Dr Raghu Nath Sahay या फिर डॉ आर एन सहाय के नाम से पहचाने जाने वाले हमारे ex - director और प्रोफेसर अब नहीं रहे. ईश्वर उनकी आत्मा को चिर शांति प्रदान करे. मेरे अंदाज़ से वे करीब 80 + के रहे होंगे और एक भरी पूरी जिंदगी जी कर गये होंगे.

सहाय सर 1954 मैकेनिकल इंजीनियरिंग बैच के के थे और शायद वे BIT के शुरुआत के बैच के चंद जीवित बचे छात्रों में से एक रहे होंगे।

हमारे कॉलेज के शुरुआत के दिनों में डॉ सहाय मैकेनिकल के HOD हुआ करते थे। इन दिनों कालेज के डाइरेक्टर डॉ जनार्दन झा होते थे, डॉ झा के बारे में बात करते ही उनके soil test में उनके विशिष्टता और Russia से उनके सम्बन्ध का जिक्र आवश्यक सा है (किवदंती के तौर पर इस बात का प्रचलन था कि डॉ झा के soil test के विशेष ज्ञान,जो आम लोगों में नहीं होता था, उसके वजह से उन्हें देश विदेश से बुलावा आता रहता था )। डॉ झा काफी उदासीन से डायरेक्टर थे और कॉलेज की क्रिया कलापों में उनकी रूचि परीक्षा में सिर्फ अनिवार्य प्रश्नों को ही हल करने की तरह सिर्फ आवश्यकतानुसार हुआ करता था।

डॉ सहाय हमारे डीन ऑफ़ स्टूडेंट हुआ करते थे और बहुत ही सक्रिय प्रोफेसरों में से एक थे। छात्रों के बीच उनकी अच्छी पैठ थी। ऐसा हमें बताया गया था कि अपने कॉलेज के दिनों में डॉ सहाय बहुत अच्छे फुटबाल के खिलाड़ी हुआ करते थे और साथ ही वे जरा "हटके" थे, यानी अपने छात्र जीवन में पढाई के अलावा उनकी दिलचस्पी जरा दबंगई में भी हुआ करता था। इस कारण से जब वे प्रोफ़ेसर बने तो हमेशा छात्रों के पक्ष में रहते थे।

डॉ सहाय खुद एक रोटेरियन थे और कॉलेज के रोट्रैक्ट क्लब के पैट्रन भी होते थे। सभी क्लब के द्वारा प्रायोजित क्रिया कलापों में डॉ सहाय काफी रूचि लिया करते थे। अपने छात्र जीवन के अनुभव के तकाजे से "जिस स्कूल के तुम स्टूडेंट हो वहाँ के हम प्रिंसिपल रह चुके हैं" इस सिद्धांत से जब कभी वे हमसे बातें करते या हमारी हुड़दंगबाजी को सम्हालते थे, उन मौकों पर उन्हें "हम उड़ते चिड़ियों के पर गिन लेते हैं " जैसी feelings आती होंगी। कई बार जब कॉलेज की स्थिति बेकाबू होने लगता था, तो वे बहुत सक्रिय होकर हम लोगो से बाते करके स्थिति को सम्हालने की कोशिश करते थे, और कई बार सफल भी होते थे।

मैकेनिकल बिल्डिंग के ठीक सामने एक विशाल पेड़ हुआ करता था, जिस के उपर कोई बन्दर तो नहीं हुआ करता था परन्तु किसी भी समय उस पेड़ के इर्द गिर्द दो चार जीवन से निराश जैसे प्राणी विचलित अवस्था में दिख जाते थे, जो चातक की तरह अपने चाँद की तलाश में नाक की सीध पर बने इलेक्ट्रिकल बिल्डिंग की तरफ एकटक ध्यान लगाये रहते थे। उस पेड़ से अगर आगे मैकेनिकल बिल्डिंग की ओर बढे तो गेट से अंदर घुसते ही एक सीढ़ी मिलती थी जिस से ऊपर आते ही दाहिने ओर HOD का ऑफिस होता था और ठीक उसके विपरीत बाँई ओर डॉ रामेश्वरी प्रसाद का कक्ष होता था जहाँ से वे हरेक महीनों की गिनती करते डॉ सहाय के डाइरेक्टर बनने या उनके रिटायर होने के दिन गिन रहे थे और HOD वाली ऑफिस घुसने की हसरत भरी निगाहों से टकटकी लगाये रहते थे।

डॉ सहाय ने 2nd year में Mech 86 को Thermodynamics Part-I भी पढ़ाया था। उनका बोलने का अंदाज़ काफी कुछ मुग़ल-ए-आज़म में अकबर बने पृथ्वीराज कपूर के जैसा होता था। क्लास में Attendance लेने के बाद उनका सबसे पहला प्रश्न होता था - "हम्म ह्म्म , मैकेनिकल के गुंडे खड़े होइये…!" और पॉकेट से एक पुर्जे को निकाल कर एक एक कर हम ४-५ लोगो को खड़ा कर दिया जाता था, इसके बाद वो हमें "heat transfer" का प्रैक्टिकल करके दिखाते थे और उस पूरे प्रवचन का मुख्य अभिप्राय निम्नलिखित होता था -

१. BIT के गौरवशाली इतिहास को हमारे जैसे दीमक से खतरा,
२. युवा पीढ़ी से नाराजगी जो बिलकुल "चौपट" था,
३. आगे चल के हम जैसे "अभागे" के लिए बहुत सारे परेशानिया आने वाली है- ऐसी भविष्यवाणी,
४. और अंत में "अगर नहीं "सुधरेंगे" तो कॉलेज से हमारी रुखसत भी की जा सकती है" जैसी खतरे की घंटी बजने जैसा एक चेतावनी

और इसके पश्चात - "हम्म्म हम्म्म अब बैठ जाइये…" जो एक तरीके से आगे की करवाई शुरुवात करने का संकेत होता था। हम "गुंडे" तुरंत अपने ऊपर उछाले गए कीचड को झाड़ते हुए, स्वयं को कमल के फूल की तरह बेदाग़ करते हुए वापस बैठ जाते थे।

कॉलेज के 2nd year के दिनों में हमारे "पंख" निकल रहे थे - हमें अपने सीनियर्स के "चाल चलन" से "दौड़ने" का ज्ञान प्राप्त हुआ था, पर हम कोशिश तो "उड़ने" की करते रहते थे! मतलब सरल भाषा में इतने रैगिंग के बाद अपने सीनियर्स को हम ये बताना चाहते थे कि अगर वे साल में एक बार ट्रेक्कर वालों से उलझते थे तो हम ५ बार उलझ के दिखाते थे या शहरपुरा के कल्पना सिनेमा हाल में अगर हमारे सीनियर्स बिना लाइन लगे टिकट लेकर दिखाते थे तो हम उन्हे ये कर दिखाए की "हम जहाँ से खड़े होते हैं लाइन वही से शुरू होता है", उसी तर्ज़ में भले हम ३० मिनट लेट से भी पहुंचे, हमारे लिए या तो सिनेमा का शो रुका रहता था या अगर गलती से चालू हो चुका है, तो हमारे लिए सिनेमा को फिर से चालू किया जाता था. कई बार जब कोई सीनियर्स हमें जब ये कहते थे की "तुमलोग हद कर दिए हो यार, हमलोग से भी दस कदम आगे चल रहे हो", तो हमें इतनी खुशी मिलती थी जितना बाबर को दिल्ली की सल्तनत मिलने से भी नहीं हुयी होगी, हमारे कदम जमीन पर नहीं पड़ते थे.

इन सब कारणों से 86 बैच बहुत ही "जबरदस्त बैच" बन गया था और आये दिन हम "गर्दा" उड़ा देने जैसा कुछ हरकत करते रहते थे।(नोट - ये एक पूर्वाग्रह से ग्रसित भावना है, जिसे सामान्य भाषा में गलतफहमी कहते हैं। यह एक नितांत सत्य सा है कि इस रोग का शिकार हर युग में हर बैच होते रहे हैं, और भविष्य में भी होते रहेंगे, और हम कोई अपवाद नही थे)

कई बार कैम्पस के बाहर से हमारी शिकायतों का टोकरा, गाँव के पीड़ित परिवार के द्वारा आम की टोकरी जमींदार को सौपने वाले अंदाज़ में कॉलेज के डाइरेक्टर को मिलता रहता था। उन दिनों डॉ जनार्दन झा डाइरेक्टर हुआ करते थे,जिन्हें कॉलेज के काम में दिलचस्पी, लगभग कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी के अपने पार्टी के क्रियाकलाप की ओर उदासीनता वाली जैसी हुआ करती थी। इन कारणों से वे पूरा का पूरा शिकायत की टोकरी बिना किसी छान बीन किये ही डॉ सहाय को सुपुर्द कर दिया करते थे और फिर से वापस अपने डारेक्टर वाले विचार कक्ष में अन्तर्धान हो जाते थे। डॉ सहाय की छात्र राजनीति में अच्छी पैठ थी और वे अपने अनुभव के आधार से तुरंत समझ जाते थे कि शिकायत में दर्ज़ क्रिया कलापों में किन ख़ास छात्रों का हाथ हो सकता था, और आनन फानन में वे उन छात्रों को दबोज कर स्थिति को काबू में ले आते थे!

जनार्दन साहेब कुछ दिनों तक बी आई टी के धूल को फांकने के पश्चात July 1988 में जैसे ही "जिसका मुझे था इंतज़ार, जिसके लिए था दिल बेक़रार" वो घड़ी आ गयी, फ़ौरन Director of Science Technology बन कर पटना चले गए। उनके जाते ही डॉ सहाय ने डायरेक्टर का पद भार सम्हाल लिया और तब से August 1989 तक के लिए वे कॉलेज के सर्वोच्च पद को शोभित करते रहे।

डॉ सहाय के डाइरेक्टर बनते ही, डॉ प्रसाद मैकेनिकल के नए HOD बन गए थे, और वे दो कदम के फासले को तय करते हुए दाहिने वाले HOD ऑफिस में आ गए। डॉ प्रसाद द्वारा खाली किए हुए कक्ष में प्रो. सी आर प्रताप ने उसी तरह से प्रविष्टि पा ली जैसे प्रदेश के किसी नेता के जीत कर MP बन कर दिल्ली जाते ही पार्टी मुख्यालय के ऑफिस में कब्ज़ा करने की होड़ होती है, इधर प्रसाद साहेब निकले और उधर प्रताप सर सामान ले के ऑफिस में घुसने के लिए खड़े थे।

बाद में डॉ रामेश्वरी प्रसाद जो हमारे नए HOD बन गए थे, अपनी ही लिखी हुई किताब से 3rd year में हमें thermodynamics पढ़ाया करते थे और इसी बहाने बुढापे में उस किताब की बची खुची प्रतियों की बिक्री जैसे व्यवसाय का भी जुगाड़ लगवा लेते थे।

त्योहरों के समय जिस तरह से भीड़ भाड़ के साथ भारतीय रेल गिरते पड़ते आगे बढ़ती रहती है, वैसे ही हमारे बैच का सफर भी शनैः शनैः अपने गंतव्य की ओर अग्रसारित थी। हम 2nd year पार करने के कगार पर थे, और साल के अंत में material science के end term exam देने के लिए बैठे हुए थे जहाँ पर कुछ ऐसी घटना हुई -

एक ने "दूसरे" के तरफ देखा, "दूसरे" ने फिर "तीसरे" के तरफ देखा, मगर "तीसरे" ने कही और देखने के बजाय वापस "दूसरे" को ही देखा, और इतने के बाद "पहले" ने एक गहरी सांस लेते हुए पूछा- "कितना बन सकता है?"

"पहले" के इस प्रश्न के पूछने में "दूसरे" और "तीसरे" के टॉप करने या अच्छे अंक आने की मनोकामना जैसी कोई नेक या परोपकार की भावना नहीं होती थी, बल्कि पूर्णतः अपना निजी स्वार्थ होता था क्योंकि "जीवनरक्षक घोल" की तरह इस उत्तर पर ही उसका पास या फेल करने की सम्भावना टिकी होती थी।

जवाब में एक गहरी साँस लेते हुए अपनी आँखें चौड़ी करते हुए "दूसरे" ने सहमते हुए कहा - "यार अगर ठीक ठीक से बोलें तो आज दो से ज्यादा पर मैं तो कॉंफिडेंट नहीं हूँ "

इस उत्तर को बताने के क्रम में, "दूसरे" को जितना दुःख हुआ था, "पहले" को सुन कर उस से कई गुना ज्यादा कष्ट पहुंचा था, सुनते ही "पहले" ने धीरज खोते हुए कहा- "मतलब तुम अगर लटकने वाली स्थिति में हो, तो मेरी कहानी सचमुच ख़त्म है?"

इस माहौल में लता मंगेशकर का गाना -"हम थे जिनके सहारे, वो हुए न हमारे, डूबी जब दिल की नैया, सामने थे किनारे" बिलकुल उपयुक्त था!

इस के बाद "पहला" लता के गाने के मुताबिक "किनारे" तलाशने के प्रयास में लग गया। और वह कोलम्बस के "भारत खोज" की भांति, exam hall के हर कोने में दूरबीन लगा कर वह दया की भीख मांगता बिलकुल कातर दृष्टि से सभी की ओर देखने लगा।

उसके मन में तेज़ी से बदलता हुए "केमिकल लोचा" कुछ इस तरह से हो रहा था - पहले "ये क्या हुआ, कैसे हुआ, कब हुआ?" वाला विस्मय, फिर "कोई जब तुम्हारा ह्रदय तोड़ दे, तड़पता हुआ जब कोई छोड़ दे, तब तुम मेरे पास आना प्रिये" वाली उम्मीद की आशा, फिर धीरे धीरे बूढ़े माँ बाप से उनके बच्चे जिस तरह "दिन, महीने, साल गुज़रते जाएंगे…" और फिर सालों सालों तक न मिलने आते है, वैसी ही फीकी होती उम्मीद जैसी हालत …

अन्याय के विरूद्ध पहली आवाज अपने अंदर उठाने की आवश्यकता होती है, अंतर्मन की चीख की गूंज इतनी तेज़ होती है कि जब आँखें खोलो तो पता चलता है कि आप अकेले नहीं हैं, कई और भी शामिल हैं.…और इस तरह से एक मौन संघर्ष, मूक सी चीख, जल्द ही एक आंदोलन का रूप ले लेता है....

"पहले" ने सबसे पहले अपनी कॉपी को बुशर्ट के अंदर रखा और "दूसरे" की कॉपी को फाड़ दिया। "दूसरा" टॉपर प्रजाति का था और उसे अपने परीक्षा के कॉपी फट जाने के बाद अभी अभी बिलकुल ताज़ा ये पता चला था कि क्लास में प्रोफेसर और रूम में किताबों के सिलेबस के आलावा "जिंदगी के कड़वे अनुभव भी बहुत कुछ सीखता है"!

अपने कॉपी को बचाने में "दूसरा" विफल हो गया था, और "नंगा अब और कितना नंगा हो सकता है" इस भावना से उसने यहाँ महसूस किया कि उसके धमनियों में भी रक्त ही बहता था जो "सब कुछ लुट जाने" के बाद वाली स्थिति में काफी गर्म हो कर अब खौल रहा था, "हालात इंसान से बहुत कुछ करवा देता है" और उसने भी वही किया जो उसके इर्द गिर्द हो रहा था...जिसे जो हाथ लगा- कॉपी हो या question papers, सबों को फाड़ना शुरू कर दिया।

बी आई टी के इतिहास का यह वह स्वर्णिम क्षण था जब भारत की स्वतंत्रता आंदोलन की तरह "नरम" और "गरम" दल दोनों एक ही मंच पर खड़े थे। वैसे लोग जिन्होंने बुशर्ट के अंदर कॉपी को रखा था, वे उन लोगों से, जिसकी कॉपी फट गयी थी, उन से दुगुनी आवाज़ में एक साथ नारा लगा रहे थे ... चंद मिनटों में ही हवा में कागज़ के टुकड़े लहराते दिखने लगे और exam hall जहाँ अक्सर बैडमिंटन खेला जाता था और खेल के दौरान काफी शोर होता था, लगभग वैसे ही माहौल में तब्दील हो गया था। संसद के अंदर नारे लगाने वाले अंदाज़ में सभी एक साथ प्रोफेसर को घेरे बहुत कुछ बोल रहे थे और चिल्ला भी रहे थे.…… समझाने वाला, फरियाद लगाने वाला, शिकायत करने वाला, डांटने वाला .... सभी की आवाज बरसात के गंदे नाले में तेजी से बहते पानी की तरह, एक ही धारा में मिल गए थे ...

दूर exam hall के एक कोने में पानी बांटने वाला चपरासी खैनी मलते हुए दूसरे से शायद "आज जल्दी ही घर जाने को मिलेगा" जैसा कुछ बोल रहा था.....

हमने exam वाक आउट कर दिया था, भविष्य में होने वाले परिणाम का अगर हमें जरा सा भी अंदाज़ा होता तो हम उस exam में fail करना ज्यादा पसंद करते और वाक आउट तो शर्तिया नहीं करते।

वाक आउट के अगले दिन भी एक और subject का exam होना था और अफवाहों का बाजार गर्म था कि "कल भी वाक आउट होने वाला है"! हमारे जैसे लोग, जो तटस्थ हो कर किनारे पर ही खड़े होते थे, यह स्थिति ठन्डे के दिनों में "नहाना या नहीं नहाना" जैसी अनिर्णयता वाली भावना सी थी, जब हम सोचते सोचते सुबह से शाम और शाम से अगले दिन उसी जगह स्वयं को वही प्रश्न करते पाते थे। पर यहाँ असमंजस की स्थिति अलग सी थी, "आज अभी इसी वक़्त" जैसा निर्णय लेना था परन्तु देर रात आते आते स्थिति एक यक्ष प्रश्न सा हो गया था कि -"कल की तैयारी की जाए या "एक खून की सजा भी फांसी तो दो की भी वही... " तो फिर क्यों पढ़ना, वाक आउट ही कर दिया जाए?"

बहरहाल, अनेकों आतंकवादी संघठनो के धमकी के डर के साये में जैसे लाल किले पर झंडा फहरा कर आतंकवादियों को जड़ से खत्म कर देने की बातें हमारे प्रधानमंत्री करते हैं, वैसे ही हम आधे अधूरे मन से, अपने अंदर दोनों "राम और रावण" को एक साथ ले के exam hall में पहुँच गये। एक बार तो मन कर रहा था कि कल की पुनरावृत्ति कर दी जाए पर संभवतः लोगों में कही न कही भय का साया व्याप्त था और मरता क्या न करता वाली स्थियि में सभी ने दम साधे अगले के तीन घंटे का दुर्गम सफर तय लिया। मुझे याद है कि mechanical वालों का वह Transport Phenomenon का पेपर था। उस दिन मेरे जैसे और बहुत छात्रों को ऐसा लग रहा था की वे क्रिकेट में अंपायर के द्वारा गलत फैसले देने का शिकार हो गए थे। थर्ड अंपायर के DRS के निर्णय मिलने जैसी हालत में जब रिजल्ट आया तो पता चला कि बड़ी मुश्किल से उस दिन के दिए पेपर TP में मैं pass किया था!

शोले सिनेमा में "जय" के मर जाने के बाद, किशोर कुमार के मातम भरे स्वर में यथासंभव धीमी गति से गाया हुआ "ये दोस्ती हम नहीं छोड़ेंगे…", शुरू हो जाता है, और सिनेमा के सभी पात्र बारी बारी से अपनी रोने वाली सूरत दिखाते हैं।दृश्य को और प्रभावशाली बनाने के लिए गाँव वालों को भी रोने का मौका मिलता है, उसी गाने के धुन को माउथ ऑर्गन पर बजाते हुए, बिना संवाद के ही पूरे घटनाचक्र को दिखाते हुए सिनेमा वापस आगे बढ़ती है। लगभग उसी तरह से वाक आउट जैसी दुर्घटना हो जाने के बाद सभी लोगो ने अपने अपने हिस्से का अफ़सोस, दुखड़ा, "ऐसा होता तो वैसा हो जाता", "कह रहे थे मत करो" इत्यादि जैसे तर्क, कुतर्क, तुहमत, सलाह, सबक लेने जैसे सारे प्रक्रिया करने के बाद, गाँव वालों की तरह मौन होकर नीरव रोदन करते हुए उसी यथार्थ को देख रहे थे, जिसके सामने उन्हें अब कुछ नहीं सूझ रहा था। कई बार हिंदी सिनेमा में "बॉस इसको टपका तो दिए, इस लाश का अब क्या करे?" ऐसे प्रश्न का जब बॉस को भी कोई उपाय नहीं सूझे, ऐसी स्थिति में, "आगे जो होगा देखा जाएगा" इस भावना से 86 बैच का third year शुरू हो चुका था.

Mechanical और साथ में दूसरे branches भी थे , जिन्होंने material sceience को वाक आउट की थी. अंगरेजी में एक कहावत है कि "when elephents fight, grass suffers" उसी तरह न चाहते हुए भी, कई साथ हो गए थे।इन सबों के साथ एक तकनीकी समस्या हो गयी थी कि जब तक हमारे 2nd ईयर के सब पेपर्स क्लियर न हो, हम थर्ड ईयर के end term में नहीं बैठ सकते थे।

1987 में डॉ झा के चले जाने के बाद डॉ आर एन सहाय बी आई टी के डाइरेक्टर बन गए थे। छात्रों में काफी उल्लास सा था कि उन्हें एक ऐसा डायरेक्टर मिला था जो छात्रों में काफी लोकप्रिय प्रोफसर थे , जो स्वयं उसी कॉलेज के छात्र थे और बाद में बतौर प्रोफ़ेसर, कैंपस में छात्रों के साथ रहकर, छात्रों और कैंपस के हर तरह की समस्याओं को समझते थे। परन्तु इस पद पर आते ही डॉ सहाय अब उतने "student friendly" नहीं रहे और आये दिन जब हमें परेशानियां होती थी तो हमारे नए डाइरेक्टर डॉ सहाय, हमारी परेशानियों के प्रति काफी निष्क्रिय से रहते थे। हमारी सबसे बड़ी समस्या थी कि किसी तरह से material science का re-exam जल्द से जल्द करवा दिया जाए जिस से हमारे third year के final end term का मार्ग प्रशस्त हो जाये।

पहले तो प्रोफेसरों को याचना पत्र दिया गया, जिस पर सभी लोगों ने अपने रोल नंबर के साथ जीवन में पहली बार अपना ऑटोग्राफ देने जैसा गौरवशाली काम किया था। फिर डायरेक्टर को हम बार बार जाकर पूछने लगे। हर बार हमें आश्वाशन दिया जाता था कि रांची यूनिवर्सिटी के मॉडरेशन ग्रुप को केस put up कर दिया गया है उनका मीटिंग अगले हफ्ते होगा, और ऐसे ही अनेक सारे और आश्वासन। धीरे धीरे जिनलोगों ने वाक आउट किया था, उनके re-exam की सम्भावना बहुत कम होती जा रही थी। अब वे एक साल गंवाने की हालत में आ चुके थे क्योंकि 87 बैच अपने सेशन के साथ लगभग वहाँ तक आ चुके थे कि कुछ महीनों में उनका end term exam होने वाला था। अफवाहों का बाजार गरम हो चुका था कि प्रशासन इस बात पर विचार कर रही थी की 87 बैच के साथ हमें exam दिलवाया जाये, जिसका अर्थ था कि हम एक साल गंवाने वाले थे - जितनी मुंह उतनी बातें!

अंत में हमलोग डाइरेक्टर के कमरे के आगे धरना पर बैठ गए और उनके ऑफिस का घेराव कर दिया। शाम को शुरू किया यह विरोध धीरे धीरे विकराल रूप लेता चला गया। एक समय छात्रों के लोकप्रिय रह चुके डॉ सहाय, अब डाइरेक्टर के तौर पर हमसे बात तक नहीं कर रहे थे और इधर छात्रों और प्रोफेसरों के बीच तना तानी बढ़ती ही जा रही थी। छात्रों का सब्र का बाँध टूटने लगा था और अब वे धीरे धीरे डॉ सहाय के विरूद्ध नारे लगाना शुरू कर दिये। देर रात तक हम उनको उन्ही के ऑफिस में कैद कर दिए। बहुत सारे प्रोफ़ेसर आ कर हमें समझा रहे थे पर हमारी मांग बस एक ही थी कि लिखित में re-exam के date मिलने तक हम टस से मस नहीं होने वाले थे। रात देर हो चुका था, आक्रोश और तेज़ होता जा रहा था, नारे और भी तेज़ होने लगा था कि तभी अचानक से किसी ने बताया कि डारेक्टर साहेब अपने ऑफिस के पीछे के कोई दरवाजे को खोल कर अपने बंगले की और जा चुके थे। जब हमें उनके ऑफिस से चले जाने का पता चला तो हम छले से महसूस करने लगे थे क्योंकि घेराव का मुख्य उद्देश्य था कि हम डॉ सहाय को वाध्य करना चाह रहे थे कि वे बहार निकलते और हमसे बात करते। बाद में पता चला कि प्रो सी आर प्रताप और कुछ और चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारियों ने उन्हें ऑफिस से निकलने में मदद की थी। उनके प्रति भी हमारा आक्रोश बढ़ने लगा था और सभी बहुत ठगा सा महसूस कर रहे थे।

डॉ सहाय के निकल कर अपने बंगले पहुँच जाने के खबर सुन कर छात्रों का जोश अपने चरमोत्कर्ष पर आ चुका था और सभी ने आव देखा न ताव बस पहुँच गए उनके बंगले पर और वानर सेना की तरह उनके बंगले में खूब नारेबाजी की।थोड़ी देर में छात्रों ने हिंसक रूप ले लिया और उनके बंगले में जितने भी गमले थे उनको तहस नहस कर दिया। तब तक किसी ने बताया की कैंपस में पुलिस आ चुकी है और मामला बिलकुल अजीब मोड़ लेता जा रहा था। कुछ छात्र उधर administrative building में अब भी धरना पर बैठे हुए थे। कॉलेज में अफरा तफरी मच गया था।

देर रात गए धनबाद के एक बहुत ही युवा SP दिवंगत रणधीर वर्मा, जो बाद में धनबाद के बैंक मोड़ में डकैतो से बड़ी दिलेरी से लड़ते हुए शहीद हो गए थे, पूरी पुलिस के फ़ौज़ के साथ आये। SP को मामला समझते देर नहीं लगा, उन्होंने आनन फानन में डॉ सहाय और छात्रों के बीच एक समझौता करा दिया और इस तरह से एक युवा पुलिस ऑफिसर ने ये बता दिया कि बातचीत के जरिये इस समस्या को बहुत आसानी से सुलझाया जा सकता था। रणधीर साहब की बड़ी जयजयकार हुयी और वो लम्बी रात खत्म हुई।

डॉ सहाय अब नही रहे, इसलिए कुछ उनके बारे में खराब लिखने का दिल नहीं करता, परन्तु उनका ये दौर शायद छात्रों के बीच बहुत निराशा पैदा करने वाला था। छात्रों को अपनी मांग पूरा कराने के लिए हर तरह का प्रयास करने को प्रशासन ने विवश कर दिया था। जले पर नमक छिड़कने जैसा काम उस रात धरना और घेराव करने वाले छात्रों के घर एक चिट्ठी भेज कर किया गया था। वह चिट्ठी न होकर एक तरह से अनुशासनिक कारवाही थी।डायरेक्टर डॉ सहाय ने हम सभी लोगो के द्वारा उनके बंगले में vandalism करने का आरोप लगाया था और उनके बंगले, ऑफिस और कैंपस में नुक्सान करने के जुर्म में फाइन भी लगा दिया था। फाइन नहीं जमा करने के स्थिति में हमारे "caution deposit" से काट लिया जाने का जिक्र था। गुस्से का घूँट पी कर सभी छात्रों ने इस अपमान को भी झेला। परन्तु दिन पार होते गए और अब भी re-exam का कोई सूचना जारी नही की गयी थी। किसी भी तरह के "official announcement" नहीं होने के कारण, ऐसा लगने लगा था कि एक साल गंवाने के आलावा कोई उपाय नही बचा था।

ये एक ऐसा दौर था जब हम सभी मझधार में फंसे होने वाली स्थिति में थे, और वाक आउट किये छात्रों को ये नही मालूम था कि वे final year में कब जाएंगे!

तभी पता चला कि उस समय के बिहार के मुख्य मंत्री श्री भागवत झा आज़ाद किसी कार्यक्रम के लिए धनबाद आये थे।हमलोग अपनी re exam के मांग को उनके पास रखने धनबाद पहुँच गए। मुझे याद नहीं है कि हम में से कौन कौन मुख्यमंत्री तक मांग लेकर गए थे, पर हमें वहाँ मुख्यमंत्री से मिलने का मौका नहीं मिला था। उनके सेक्रेटरी के द्वारा हमें ये आश्वासन दिया गया कि वे शाम को सिंदरी के गेस्ट हाउस में आने वाले हैं और उधर हमारे एक प्रतिनिधि मंडली से मिलेंगे।

शाम को हम सभी वहाँ गेस्ट हॉउस में पहुँच गए थे और अचानक पता चला कि मुख्यमंत्री जी के पास कुछ जरूरी काम आ गया है और वे जल्दी में हैं इस लिए हमसे वो नही मिल पाएंगे। अलबत्ता हमारे मांगों को वो उचित कार्यवाही के लिए भेज देंगे। इतना सुनना था कि हम में से कई लोग उनके कार के आगे जमीन पर लेट गए, स्थिति बहुत भावुक हो चुका था और अचानक से भागवत जी ने कार के शीशा को उतार कर हम में से बिन्नी और शायद सिविल के प्रभात को अपने कार में बैठा कर बाते करने को तैयार हो गये। शायद वे वास्तव में जल्दी में थे इस लिए कार में ही बात करते करते आगे बढ़ने लगे और अचानक से उनकी गाड़ी हमारे कैंपस आ गयी जहां पर बिन्नी और बाकी लोगों ने हॉस्टल के बुरी दशा को दिखाया और कैंपस के कई और मुद्दों पर भी उनका ध्यान आकर्षित किया गया था।

मुख्यमंत्री के इस दौरे के बाद वास्तव में जल्द ही हमारा re-exam हुआ और रिकॉर्ड समय में हमने अपना फाइनल "ईयर" को चंद महीनों में ही ख़त्म कर ली।

इस दौरान डॉ आर एन सहाय शायद DST बन गए या रिटायर कर गए थे और उनके जगह डॉ. यू. एन. शरण हमारे नए डायरेक्टर के रूप में आ चुके थे और एक समय के छात्रों के बहुत चहेते डॉ सहाय अचानक से बिना किसी को बताये हमारे बीच से विलुप्त हो गए।

पिछले हफ्ते उनके निधन की खबर सुन कर मैं उनको याद करने लगा और ऐसा लगा कि शायद वे उतने बुरे नहीं थे जितना हमारे बैच के साथ उनका किया व्यवहार उनको देखने को मज़बूर कर देता है। कई बार परिस्थिति इंसान पर हावी हो जाता है और शायद डॉ सहाय डाइरेक्टर की कुर्सी पर बैठ कर भी कई मामलों में निंर्णय लेने की स्थिति में नहीं रहे होंगे और वे असहाय थे। मेरा मानना है कि जिन दिनों उन्होंने इंजीनियरिंग की पढ़ाई की थी, उनके पास बहुत सारे विकल्प रहे होंगे और उन्होंने बी आई टी में रह कर सेवा करने का जो मन बनाया था, वह कही न कही उनका कॉलेज के प्रति स्नेह दिखाता है। और मेरा श्रद्धा सुमन BIT के एक ऐसे कर्मठ छात्र, प्रोफेसर और एडमिनिस्ट्रेटर को जिसने अपने जीवन का लगभग सबसे अच्छे क्षण कॉलेज को दी, ईश्वर दिवंगत आत्मा को शांति दे!