हर दौर की अपनी प्राथमिकताएं होती हैं और साथ में चुनौतियाँ भी । मिसाल के तौर पर पुराने दौर के सिनेमा की पटकथा उन दिनों की ज्वलंत समस्या पर आधारित होते थे - जैसे "एक फोन की कमी के कुपरिणाम" के पृष्ठभूमि पर अनगिनत सुपर हिट सिनेमा बन चुकी हैं।एक कोने से दूसरे कोने तक खबर पहुँचाने में आने वाली दिक्कतों के कारण, विलेन जैसे "नेटवर्क टावर्स" के द्वारा "कॉल टैपिंग" करने जैसे जघन्य अपराध, और उसके आधार पर सभी पात्रों के बीच भ्रम और अविश्वास लाने जैसे रोमांचकारी तथ्यों पर बनी कहानियां उन दिनों सिनेमा हॉल में दर्शकों को ३ घंटे तक बांधे रखने में सक्षम हो जाते थे!
परन्तु हरेक युग में कुछ outliers भी होते हैं - जिन दिनों गाँव की अभागी और अबला नायिका एक चिट्ठी भेजने के लिए पूरी फिल्म के दौरान तरसती रहती थी, उन दिनों 1949 में बनी फिल्म "पतंगा" अपने समय से काफी आगे की थी क्योंकि इस फिल्म में एक गाना है - "मेरे पिया गए रंगून", जहाँ इस बात पर बार बार जोर दिया गया है कि पिया "रंगून" गए हैं और उनको "फून" किया जा रहा है… - आज की तरह whatsapp पर emoji भेज कर अपने सुख दुःख का इज़हार करने जैसा नहीं, अब इस परिपेक्ष्य में उन सिनेमा को देखना एक उबाऊ सा काम लगता है।
इस बात को मानने में काफी दिक्कत पेश आती है कि हमारे कॉलेज छोड़ कर निकल जाने के बाद दुनिया बहुत बदल चुका है। कैसेट प्लेयर, फिल्म रोल वाली फोटोग्राफी, डाक घर में जा कर पोस्टल टिकट खरीदना, टेलिग्राम-तार भेजना, डाकिया के चिट्ठी का इंतज़ार, दूर किसी से बात करने के लिए STD बूथ पर खड़े रहना, टाइपिस्ट के पास जा के अपने प्रोजेक्ट्स को टाइप करवाना और न जाने कितने सारे हमारे दैनिक दिनचर्या की गतिविधियाँ या उन दिनों के हाई एंड टेक्नोलॉजी अब इतिहास के पन्नों में दबे, अपना गौरवशाली "भूत" और "मानव सभ्यता को इन सभी का देन"- जैसे विचारो से ग्रसित, मोक्ष प्राप्त कर भविष्य के शोध के विषय बन कर रह गए हैं। आज के दिन हमें अपने बच्चों को, उन दिनों के कुछ बहुत ही सामान्य से लगने वाले उपकरण और उनका उपयोग के बारे में बताने में भी कष्ट होता है क्योकि वो उनके सोच के realm के बाहर की बातें हैं।
संभव है कि जब मैं कुछ पुराने दिनों का विवरण देता हूँ, तो कई बाते आज के इस हमारे दौर में वैसी ही अप्रासंगिक लगे!
BIT में ज्यादातर लोग पढ़ने आये थे, सबों के जीवन के अध्यायों का table of contents लगभग पहले से ही बना होता था और उसमे कुछ गुंजाईश होती थी तो बस इतना कि लोग उन chapters को कितनी गहराई तक पढ़ना चाहते हैं। ज्यादातर लोगों के जीवन का ढर्रा बस एक cookie cutter approach होता था जिसमे विविधता सिर्फ उनके degree में फर्क से होता था - "मेरी साड़ी उसकी साड़ी से सफ़ेद कैसे" - उन दिनों के मानसिकता को उजागर करता था- प्रथम तो ये कि पहनने के लिए साड़ी ही क्यों और उस पर से सफ़ेद ही क्यों? पर हर किसी की सोच संकीर्णता की और होती थी और इसी हिसाब से हमारे कॉलेज में भी सबों का लक्ष्य लगभग एक सा होता था कि इंजीनियरिंग की डिग्री ली जाए, उसके बाद एक नौकरी और उसके बाद उचित समय पर शादी।
कॉलेज में जो छात्र पढ़ने आते थे उनका एक स्पष्ट विभाजन किया जा सकता था - शहरी और ग्रामीण, जो आंशिक रूप से इस बात पर निर्भर करता था कि वे कहाँ से आये थे - दक्षिण या उत्तरी बिहार (यानि आज का झारखण्ड और बिहार). जो ग्रामीण पृष्टभूमि के आये होते थे उनका खान-पान, बोल चाल और विचार, शहरी छात्रों से जरा अलग होता था और इस वजह से फर्स्ट ईयर के हॉस्टल का माज़रा बहुत रोचक होता था।
BIT के हर छात्र Combined Engineering Entrance Examination में उत्तीर्ण होकर आये थे। उस परीक्षा के मेघा सूची (merit list ) के मुताबिक, न सिर्फ इंजीनियरिंग के ब्रांच और प्रथम वर्ष के सेक्शन का निर्णय होता था बल्कि उसी के आधार पर हॉस्टल के कमरे का आबंटन भी होता था। प्रथम वर्ष के हॉस्टल में एक कमरे में ४ लोग रहते थे और चारों का स्वरुप और संगम बिलकुल अप्रत्याशित सा होता था। आपस में यूँ चार अजनबियों का मिलना और एक साल साथ रहने का अनुभव, यकीनन हम में से हर किसी के जीवन का एक बेहद ही रोचक और अनूठा अनुभव है। जब तक लोग कमरे के अंदर की गतिविधियों और एक दूसरे से अभ्यस्त हो पाते, तभी अचानक हर कमरे में पांचवे छात्र का आगमन ट्रेन के आरक्षित कोच में रात के २-३ बजे अचानक से किसी के ट्रेन में घुसने और उनके परिजनों के शोर से नींद खुलने जैसा अनुभव था। बहरहाल, हर कमरे में करीब महीने भर के अंदर भारत की जनसँख्या की तरह एक और सदस्य का इज़ाफ़ा हो गया और हर कमरे में हम ५ हो गये थे। पांचवा छात्र चारों कोने वालों के रहमो करम पर होता था और उसे कहीं कमरे के बीच में लोग समायोजित कर लेते थे।
हरेक कमरा अपने आप में एक देश की तरह होता था जिनका अपना एक राजनीतिक, भौगोलोक, शैक्षिक, बौद्धिक, संस्कृतितिक और वाणिज्यिक विशेषता होती थी। समाज के बाकी किसी मापदंड से भी इनका आंकलन किया जा सकता था चाहे वो धार्मिक, जातीय या आर्थिक आधार हो। हर एक कमरे के रहनेवाले छात्रों और उनके साल भर के घटनाओं पर एक उपन्यास लिखा जा सकता है और किसी anthropology के प्रोफ़ेसर के रिसर्च करने लायक पर्याप्त सामग्री मिल सकती हैं।
मैं कभी भी इंजीनियरिंग पढाई के लिए बहुत इच्छुक नहीं था परन्तु जैसा उन दिनों की एक मान्यता सी थी कि जीवन की सफलता के दो मार्गों - डाक्टर और इंजीनियर, में से एक को चुनना माँ बाप के प्रति अपना कृतज्ञ भेंट सा होता था। उन्ही सामाजिक और पारिवारिक दबाव के कारण मैं पढ़ने आ गया था पर मुझे इंजीनियरिंग से ज्यादा, लोगो को अध्ययन करने का बहुत शौक था। मैं हर किसी को बहुत ध्यान से "पढता" था और काफी चकित हो जाता था कि कैसे कोई एक ही परिस्थिति में दूसरे से भिन्न होता था। बहुत कुछ निर्भर करता था कि उसका अतीत कैसा था, या वह किस माहौल से आया था। मैं लगभग हर कमरे में घूमता रहता था और सबों से बातें कर उनको समझने का प्रयास करता रहता था।
मैंने काफी दिनों बाद इस विषय पर कुछ शोध किया और पाया कि एक algorithm, जिसका नाम - Stable Roommate Problem (SRP) है, जो उन दिनों के हॉस्टल के dynamics को समझने के लिए उपयुक्त है। इस algorithm को अगर संक्षेप में कहा जाए तो - participants are permitted to express ties in their preference lists, more than one definition of stability is possible. यानि अगर चार लोग एक साथ रह रहे हैं तो उनका आपस का bonding या घनिष्टता बहुत तरीके से हो सकता है और strongest और weakest pairs बनेंगे (super-stability and weak stability), जो समय के हिसाब से बदलता रहेगा। Mathematics जो भी कहे पर मेरा अनुभव इस से काफी अलग है। हॉस्टल में थोड़े ही दिनों बाद, हर कमरे से कभी जोर जोर से ठहाके की आवाज़ आती थी तो कभी घर के दो भाइयों जैसा नोंक झोंक! सभी एक साथ घूमने जाते थे और सुख दुःख के ऐसे साथी बन जाते थे कि ऐसा लगता था मानो कुम्भ के मेला में बिछड़े भाइयों का फिर से मिलन हुआ हो और वापस सभी कमरे में एक परिवार की तरह रहते थे- बिना किसी भेद भाव के!
पहले साल में हम कॉलेज के वातावरण में ढल रहे थे और जिंदगी के अगले पारी की नेट प्रैक्टिस शुरू ही की थी कि तभी अचानक से साल का एक ख़ास समय - "लगन का समय" आ गया।इस समय की विशेषता का ज्ञान कइयों को नहीं के बराबर था, पर जब गर्मी की छुट्टी में हॉस्टल के कुछ छात्रों को अपनी शादी का न्योता देते सुना गया तो कइयों को कुछ अजीब सी बात लगी पर यह एक सच्चाई थी।
छुट्टियों के बाद जब लोग वापस हॉस्टल आये तो कइयों के पढाई के मेज़ के एक कोने में मुस्कराती हुयी भाभीजी की तस्वीर ने अपना जगह बना लिया था! उस तस्वीर ने कइयों के जीवन के अगले पड़ाव के बारे में जानने की कौतुहलता को इस कदर से बढ़ा दिया था कि शादी कर के आये मित्रों की हालत उस ज़माने के सुप्रसिद्ध स्तंभकार डॉ प्रकाश कोठारी जैसी हो गया था और हर बार उनका विवरण सरिता में प्रकाशित -"हाय मैं शर्म से लाल हो गई" के प्रविष्टि सी होती थी… !
कॉलेज के 2nd ईयर तक आते आते छात्रों के ऐसे विशेष प्रजाति, जो "हम तो हैं परदेस, देस में निकला होगा चाँद" गाते गाते पढाई के "बोझ" को उठाने जैसा श्रम कर रहे थे, वे बहुतायत में पाये जाने लगे थे। आगे चल कर इस प्रजाति की तादाद में "गिर वन राष्ट्रीय उद्यान" के शेर की तरह काफी संतोषजनक वृद्धि होने लगी!
कई कारणों से, कइयों के लिए इस प्रजाति का साथ काफी उत्साहवर्धक भी था। हालाँकि मशाल सिनेमा के "मुझे तुम याद करना और मुझको याद आना तुम" के दुविधा से उलझते छात्रों के ऊपर पढाई के साथ साथ, फिल्म के नायक अनिल कपूर के गाने के अगले लाइन "मैं एक दिन लौट के आऊंगा, ये मत भूल जाना तुम" के कारण काफी मानसिक दबाव भी रहता था।
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