2nd ईयर के दौरान मुझे भी अपने बैच के एक मित्र के शादी का न्योता मिला। मैं कॉलेज के कुछ और साथियों के साथ जीवन के एक नए अनुभव को लेने चल पड़ा था - दोस्त की शादी ! हमउम्र के शादी की सोच ने उन दिनों हमारे अंदर अनेक सारे गुदगुदी शुरू कर दी और कई कारणों से हमें भी लगने लगा था कि हम "मंज़िल" के काफी करीब थे! Long Live Arranged Marriage System !! अगर उन दिनों इस तरह की विवाह की व्यवस्था नहीं होती तो हम में से ज्यादातर लोग, आज भी अबंड की तरह भटकते रहते और कोलम्बस की तरह भारत के खोज के क्रम में कितने सारे नए continents की खोज कर चुके होते!

भारतीय शादी में दूल्हे का होना तो अपरिहार्य है और इसलिए सर्वोपरि है, पर ब्रिटेन के संविधान की तरह अलिखित किन्तु सर्वमान्य प्रथा सी है कि दूल्हे के बाद खातिरदारी और महत्वता के क्रम में-  दूल्हे का बहनोई, भाई, पिता के साथ साथ दोस्तों का स्थान शीर्ष पर व्यवस्थित होता है। इस बात की जानकारी सबों को होती है बस - "first among equals" के लिए जरा प्रयास करना पड़ता है  - जिसका तात्पर्य है कि आप जितना "चौड़ा" हो सकते हैं, उसी अनुपात में खातिरदारी में इजाफा लाया जा सकता है।  क्रिकेट के हर ओवर में ६ गेंद होता है, मर्जी आपकी कि आप हर गेंद पर छक्का मारें या सुरक्षित उन्हें विकेटकीपर के दस्ताने में जाने दें!

मगर हमारे "दूल्हे" मित्र ने हमें किसी भी तरह के मेहनत से निश्चिन्त कर दिया था। अपने घर, या जैसा हमें बाद में लगने लगा था, सारे गाँव में पहले से ही एलान कर दिया था कि हमें किसी भी तरह की शिकायत करने का मौका नहीं मिलना चाहिए। तदानुसार उनके निर्देश का अक्षरशः पालन किया जा रहा था। हमारे दोस्त के गाँव के सबसे नज़दीक वाले रेलवे स्टेशन तक आते आते हम रेल में अल्पसंख्यक हो गए थे, और रेल के डिब्बे के अंदर, वैसे ही दिख रहे थे जैसा शोले में गाँव वालों के बीच में शर्ट -पैंट पहने जय-विजय!

जैसा हमें पहले ही निर्देश दिया गया था कि अमुक स्टेशन पर उतरना है, उसी के मुताबिक हम उस स्टेशन के अाने से काफी पहले से ही दरवाजे पर आ कर खड़े हो गए थे। हमें बताया गया था कि उस लाइन के ट्रेन के ड्राइवर बहुत भ्रष्ट होते थे और ट्रेन का ड्राइवर स्टेशन पर ट्रेन को काफी कम समय के लिए रोक कर गाड़ी को तुरंत चालू कर देने जैसा ओछी हरकत में लिप्त होते थे।  बाद में हमें इस बात का इल्म हुआ कि ड्राइवर की सांठ गाँठ आगे के एक बड़े स्टेशन के जीप और टमटम वालों से थी। ट्रेन जल्दी चला कर, यात्रियों को इस स्टेशन पर नही उतर दे पाने से, अगले स्टेशन में सवारी बढ़ा देने जैसे सहयोग से उनकी मित्रता फल फूल रही थी! भारत में सरकारी व्यवस्था के फेर बदल कर जितने व्यवसाय और रोजगार पनपते हैं, उतने सारे के सारे प्लानिंग कमीशन की योजना मिल कर करने में विफल रही है!

अलबत्ता हमारे लिए स्टेशन के बाहर, तांगा ले कर बसन्ती तो नहीं खड़ी थी, पर दो लोग प्लेटफार्म पर हमें लेने आये हुए थे। इस बात का पता हमें तब चला जब रेल के धीमी होकर रुकने के क्रम में, वे दोनों हर डिब्बे को घूर घूर कर देख रहे थे और हमें देखते ही हल्की सी दौड़ लगाते हुए लगभग चीखते हुए आदेश दिया - "इधर इधर, ये वाला डिब्बा है, साहेब सब मिल गये"!! जैसा बताया गया था, उसी के हिसाब से जब तक ट्रेन पूरी तरह से रुकती, उस से पहले ही ट्रेन की गति बढ़ने लग गयी थी, पर तब तक हम हनुमान कूद लगा के प्लेटफार्म पर उतर चुके थे! उस स्टेशन में जो बाकी यात्री ट्रेन से उतर पाये थे, उनके चेहरे पर जीवन के एक और उपलब्धि प्राप्त करने की जैसी मुस्कान थी!

स्टेशन से बाहर निकलने के लिए एक संकरा सा गेट था, जहां से निकलने के लिए इस कदर होड़ लगी हुयी थी जैसे बाढ़ पीड़ितों के सहायता सामग्री को लेने के लिए लोग बेताब हो उठे हों। ऐसा लग रहा था कि उन सभी लोगों को UN में हो रहे किसी विश्व शांति सम्मलेन में उपस्थित होने की जल्दी थी और इन के समय पर उसमे शिरकत नहीं करने की स्थिति में, पूरे विश्व में अराजकता फैलने वाली थी।  धक्कम धुक्का के बीच जो "मिल्खा सिंह" और "पी टी उषा" स्टेशन से सबसे पहले निकल गए थे,  वे स्टेशन से बाहर निकलते ही शिथिल होकर खैनी रगड़ने या बीड़ी पीने जैसे किसी महत्वपूर्ण काम में संलग्न हो गए थे, और बचे हुए दिन को काटने के लिए किसी उपाय की सोच में उलझे हुए दिख रहे थे।

संकरे गेट के ठीक पहले, स्टेशन के टिकट कलेक्टर, पूजा में  दुर्गा की मूर्ति के बगल में खड़े कार्तिक भगवान की तरह सिर्फ स्थापित होकर अपने अस्तित्व मात्र को दर्शा रहे थे। स्टेशन से यात्री, जिनके पास से टिकट मिलना उनके पुरुषार्थ पर प्रश्न चिन्ह के जैसा था, वे टिकट कलेक्टर के अहमियत से बेख़ौफ़ बाहर निकल रहे थे। हालाँकि कोई भी यात्री कलेक्टर से नज़रे मिलाने से कतरा रहा था, कारण स्पष्ट था कि सरकारी कर्मचारी और सांड को कभी नही ललकारना चाहिए, उनके पास सृष्टि को खत्म करने तक का अधिकार होता है, क्या जाने कब उनका मूड बिगड़ जाए और किसी को भी अपना शिकार बना ले।

टिकट कलेक्टर ने एक काला कोट पहन रखा था, जो बरसों से धुला नहीं था, उस पर सूखे पसीने और परत दर परत जमें धूल ये बता रहा था कि कर्मयोगी होने के वजह से उसे कभी धुलवाने का समय ही नहीं मिलता होगा। अहिंसक, शांत और अपने इर्द गिर्द की गतिविधयों से अनभिज्ञ सा दिखता कलक्टर अचानक पिचकारी की तरह पान की पीक फेंकते एक गरीब सी दिखती बूढ़ी महिला को रोक कर उससे टिकट की मांग करने जैसा पुनीत काम कर दिया था।  रेलवे के कानून के अनेक सारे धाराओं का धाराप्रवाह जिक्र करते हुए वह फाइन का मांग कर रहा था। ये अलग बात थी कि उसके अगल बगल से लोग अब भी बेरोक टोक जा रहे थे परन्तु उसे उसका कोई फिक्र नहीं था। कलेक्टर ने अपने  x-ray जैसी पैनी निगाह से पता लगा लिया था कि बूढ़ी औरत ने अपने सर के ऊपर जो रखा था उसमे  घी था और इस से यह पता चल रहा था कि बुढ़िया के पास फाइन के एवज में  उसके पाकेट को गरम करने की क्षमता थी।

अचानक से हमारे जैसे तीन चार शहरी लोगों को देख कर, टिकट कलेक्टर कुछ चौकस हो गया और अपने काम के प्रति समर्पण को दिखाने की भावना से हमसे भी टिकट की मांग कर दी। हमारे साथ आये हमारे दोनों "गाइड" ने फ़ौरन कुछ स्थानीय भाषा के पुट देते बता दिया कि हम "उनके" साथ थे, जिसे सुनकर उन्होंने हाथ उठा कर हमें आगे जाने का आदेश दे दिया और वापस अपने मुख्य व्यवसाय में लग गया।

हमारे सामान को जीप पर रख दिया गया और तत्पश्चात हमसे तीन बार पूछा गया कि -"देख लीजियेगा साहेब, आप लोगों का सब सामान है न"। हम में से एक सिगरेट खरीदने गया हुआ था परन्तु इधर स्टीयरिंग को सम्हाले ड्राइवर ऐसा लग रहा था मानो वह फार्मूला वन का ड्राइवर था और सिर्फ हुक्म का इंतज़ार भर कर रहा था।

थोड़ी देर बाद हमें भारत के गाँवों के पिछड़े होने का "उछलता कूदता" अनुभव मिलने लगा था। सब कुछ  रोलर कोस्टर के सफर के तरह चल रहा था कि अचानक हमारे जीप का फार्मूला वन ड्राइवर ने घुटने टेक दी और एक महत्वपूर्ण घोषणा किया- "आते समय तो ठीक था पर अब पानी बहुत बढ़ गया है, आगे नही जा पायेगा, डूब जाएगा…"। उसका तात्पर्य जीप के डूबने से था, पर ऐसे मौके पर दुःख भरे समाचार हमेशा तृतीय वचन में संज्ञा को विलुप्त कर के देने की प्रथा होती है। सामने एक छोटी सी नदी थी जो बरसात होने के वजह से भर गयी थी और उसने हमारे जीप के आगे का सफर से हमें वंचित करने का मूड बना लिया था। वैसे तो नदी पर पुल नहीं था पर नदी के ऊपर से जाती एक कच्चा रास्ता बना हुआ था जिसमे अब पानी भर चुका था। जब तक हम कुछ और सोचते, एक गाँव का छोटा सा बच्चा सामने की ओर इशारा करते हमें नदी को पार करने का सामान्य ज्ञान दे रहा था, उसका इशारा एक पतली सी जर्जर अवस्था में टूटी फूटी सी लकड़ी के पटरे पर थी जो किसी तरह से नदी के ऊपर टिका दिया गया था। उस समय इंजीनियरिंग पढ़ने के फायदे का तो पता नहीं था परन्तु उसके नुक्सान का बोध हुआ था, जब हमें लकड़ी के tensile strength, factor of safety और साथ में हमारे सामान्य ज्ञान से प्राप्त "अपने भार" की जानकारी, इन सबों से ये समझ में आ रहा था कि पुल टूट सकता था और हम नदी के बीच गिर सकते थे।  परन्तु निस्स्वार्थ भावना से ओत प्रोत वह बालक हमारा विश्वास जीतने के लिए तत्क्षण उस पुल से दो तीन बार नदी पार करके दिखा दिया और पुल के बीचो बीच जा कर डाइविंग बोर्ड की तरह लकड़ी के पटरे पर एकाध बार कूद कर ISI के प्रमाणिकता की मुहर और उपयोग के लिए उपयुक्तता के सर्टिफिकेट को जारी कर दिया।

जब हम आगे बढ़ने लगे थे तो हमें बताया गया था कि  "बस थोड़ी दूर पर गाँव है"  लेकिन जल्दी ही हमें इस बात का भी ज्ञान हुआ कि हर बार बताये गए "बस और थोड़ी दूर है" को जोड़ देने से लाइट ईयर बन सकता था! करीब १-२ घंटे तक खेतों के मेड पर चलते चलते  हमें वापस एक रोड मिला और एक ट्रेक्टर दिखा जिसमे  ईंट को ढोने के लिए पीछे एक ट्राली लगी हुयी थी। सिंदरी के ट्रेक्कर पर और exam में लटकने का हमें अच्छा अनुभव था और ऐसे में ट्रॉली में बैठ कर जाना कोई बहुत कष्टकारक विकल्प नहीं लग रहा था। उस नेक मनुष्य ने हमें गाँव के एक दूसरे छोर पर छोड़ दिया और उसके आगे हम वापस अपने पैरों पर खड़े थे!  अचानक से हमें पीछे एक जीप आती दिखी जो जोर जोर से हॉर्न बजा कर अपनी खुशी का इज़हार  मीलों दूर से प्रकट करते हमारे पास आकर रुक गयी।

"मिल गए साहेब लोग…मिल गए" कहते हुए हमारे फार्मूला वन ड्राइवर के साथ स्टेशन पर आया दूसरा मनुष्य  तुरंत हमारे बैग को गाड़ी में रखते हुए गाँव के सड़कों, नदियों का हाल, टूटा पुल, नया पुल और साथ ही किस तरह से दुनिया का हर हिस्सा जुड़ा हुआ है इस बात का हमें स्पष्टीकरण दे रहा था। हमें उसकी बातों में कोई ख़ास दिलचस्पी नहीं थी, पर थकान के कारण आई चुप्पी को सकारात्मक प्रतिक्रिया समझ कर वह हमें रास्ते भर गाँव और उसके इर्द गिर्द के राजनीतिक महत्व अर्थात उस क्षेत्र के आपराधिक इतिहास, वर्तमान और भविष्य का ज्ञान दे रहा था। अचानक उत्साह भरे स्वर के साथ उसने बड़ी बचकानी सी बात कर दी -"ये लीजिये आ गया गाँव "!

गाँव के बाहर ही एक बड़ा सा "शुभ विवाह" का तोरण द्वार बना था जिस पर हमारे दोस्त के नाम के आगे "इंजीनियर" शब्द भी जोड़ दिया गया था और इस का सामयिक, सामाजिक एवं व्यवहारिक पहलू का हमें ज्ञान हुआ। मेरे लिए शहर से कोसों दूर एक अंदरुनी गाँव के बच्चे, हमारे दूल्हे मित्र, को इतना परिश्रम करके इंजीनियर बनते हुए देखना और लोगो के बीच इस बात का गर्व होना वाकई एक आत्मविश्लेषण करने वाला अनुभव था- बाद में मुझे पता चला की हमारा मित्र बचपन से ही काफी मेघावी था और जल्दी ही गाँव के स्कूल से आगे निकल कर  "जिला सकूल" चला गया था। उसके बाद अनेक सारे मेघावी छात्रों की तरह वह भी पटना के "ख़ज़ांची रोड" में परीक्षा की कठिन तैयारी करने आ गया था ।

"ख़ज़ांची रोड" , पटना का वह जगह था जहाँ इंजीनियरिंग के तैयारी कराने वाले कोचिंग सेंटर्स सघन रूप से केंद्रित थे। इस जगह से हमारे बैच में भी कई छात्र आये थे और कुल मिला कर यहाँ के सभी कोचिंग संस्थानों ने मिलकर अनगिनत इंजीनियर बनाये होंगे। कई बार साथ कोचिंग करने वालों में जो उत्तीर्ण हो जाते, उनके कॉलेज में आ जाने के बाद, "मिले सुर मेरा तुम्हारा" के सुर गाते उनके साथ तैयारी करने वाले छात्र, अगले बैच में कॉलेज में वापस मिल जाते थे।

मेरे मित्र के गाँव को देखने के बाद ऐसा लगा कि उसके इंजीनियरिंग कॉलेज में आना उस गाँव के लिए एक उपलब्धि सी थी - न जाने उसने कितने और नए भविष्य के सपने,अरमानों और स्वाभिमान को पैदा किया होगा!

गाँव के बाहर एक हाट जैसा था जहां डाक घर के आहाते में एक शामियाना जैसा लगा दिया गया था। शाम हो चुकी थी और यह सभी बारातियों को इकठ्ठा करने के लिए यह एक उपयुक्त स्थान था। डाक घर से कुछ हाथ वाली कुर्सियों को निकाला गया, जो विशेष कर हम "इंजीनियरों" के बैठने के लिए लाया गया था। शामियाने के एक किनारे बैंड बाजा वाले खड़े थे। बैंड बाजे वाले में से कुछ बीड़ी पी रहे थे तो कुछ अपने अपने वाद्य यंत्रों को tune कर रहे थे।अपने अंधकारमय जीवन से निराश, पर सिर पर पेट्रोमैक्स को ढोकर दूसरों के खुशियों में रोशनी करने वाली औरते जमीन पर बैठी हुयी थी। उन औरतों ने सरहद पर बन्दूक पकडे सैनिकों की तरह, अपने हाथों में सिर पर भार को ढोने में आराम देने के लिए कपडे के बने गोल गोल गद्दे को पकड़ रखा था और हुक्म मिलते ही बारात को जगमगाने के ड्यूटी के लिए चौकन्ने थे ।  शामियाने के बाहर एक सजा हुआ रिक्शा खड़ा था जिस पर कुछ लकड़ी के तख्तों को लगा कर मंच सा बना हुआ था। एक चमकते हुए जैकेट को पहने कोई २०-२१ साल का लड़का बीच बीच में उस रिक्शे के मंच पर आ कर "हेलो हेलो हेलो" बोल रहा था।

कुल मिला कर लेट लतीफ़ और दूर से आने वाले बारातियों को इकट्ठा करने की प्रतीक्षा की जा रही थी। जल्दी आने वाले बारातियों के लिए पारितोषिक के तौर पर शरबत की व्यवस्था की गयी थी। थोड़ी देर के प्रतीक्षा के बाद बैंड बाजे वालों ने कोई बहुत ही सरल सा धीमी गति के गाने को बजा कर लोगों में जोश के लहर का संचार कर दिया। हमें देखने के बाद बैंड वालों का सरगना ने बड़े बेसुरे ढंग से tequila के धुन को बजा कर अपने जौहर का परिचय दे दिया। शामियाने के बाहर हाट में आये बहुत सारे दर्शक खड़े होकर हम सबों को घूर घूर कर देखते हुए, खैनी मलते हुए,  बगल वाले को ध्यान से देख कर micron के accuracy से थूकते हुए, जिस विधा में वो ओलिंपिक के स्वर्ण पदक जीत सकने की क्षमता रखते थे… मिला जुला कर अपना अपना हिस्सा का रोल अदा कर रहे थे।

देर रात गए बहुत बड़े फ़ौज़ की तरह बारात की शुरुआत की गयी और बैंड बाजा के धुन के साथ गायक भी चीख चीख कर गाते हुए आगे बढ़ते चले गये। जितने गाने हो सकते थे उनके रस्म को अदा कर दिया गया  -"आज मेरे यार की शादी है", "ले जाएंगे ले जाएंगे दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे", "बहारों फूल बरसाओ",जैसे गानों के बीच में "ये देश है वीर जवानों का " जैसे गीतों का समावेश लोगों में नए जोश का संचार करते, हमारे थके कदम को शक्ति देते आगे बढ़ा रही थी! करीब एक घंटे के " दांडी यात्रा" के पश्चात हम लड़की के घर के पास आ गए थे जहां सैकड़ो की तदाद में लोग खड़े थे। एक बहुत बड़े मैदान जहाँ हमें खड़ा कर दिया गया था, हमें बताया गया कि उधर आतिशबाज़ी होने वाला था। चारों तरफ भीड़ थी और अँधेरे में पेट्रोमैक्स की रोशनी और बैंड बजा वाले के धुन ने बिलकुल जगमग रात बना दिया था। मैदान में एक घुड़सवार चारों ओर दौड़ लगाते दिखा और बाद में पता चला कि आतिशबाज़ी के लिए भीेड़ को एक वृत्ताकार परिधि बनाकर उसके बाहर खड़ा करने के लिए यह एक बहुत ही कारगर विधि था। घुड़सवार के आते देख लोग भागते थे और इस तरीके से धीरे धीरे वृत्त की आकर बढ़ती गयी और जब घुड़सवार संतुष्ट हो गया तो उसने अपने घोड़े के गर्दन को सहलाते हुए उसे रुकने का आदेश दे दिया। इसके बाद आसमान में तरह तरह के रंग बिरंगे पटाखे की आतिशबाज़ी जम कर हुई। इसके बाद खूब शोर और ताली के साथ उस मैदान के कार्यक्रम की समाप्ति हो गयी।

हमारे लिए सामने के एक स्कूल में रात रुकने का इंतज़ाम किया गया था और उसके सामने ही एक बहुत बड़ा जनवासा बनाया गया था जिसमे लेटने और बैठने के लिए गद्दे और मसनद लगे हुए थे । हमारे लिए एक कोना सुरक्षित रखा गया था। जनवासे में बारात के लिए नाश्ते के साथ "फैंटा और कोका कोला" का भी इंतज़ाम था। दिन भर की थकान के बाद, गद्दे पर लेटते ही मुझे नींद आ गयी। थोड़ी देर में लड़की वालों के तरफ से किसी ने आकर हमें "सोमरस" के इंतज़ाम की बात बताई और निवेदन किया कि अगर हमें पीने की इच्छा हो तो स्कूल के एक विशेष कमरे में आने का कष्ट करें।

जनवासे में एक बहुत बड़ा सा भाग खुला रखा गया था और इस बात की जानकारी हमें देर से लगा की बनारस और मुजफ्फरपुर से विशेष रूप से आमंत्रित नाचने वाली का भी इंतज़ाम था। इस से पहले हमने इस तरह की सोच को मात्र एक कोरी कल्पना या हिंदी फिल्म के एक मनोरंजन का भाग तक ही मानते थे पर कई सूत्रों के द्वारा हमें बार बार बताया जा रहा था कि आगे रात को हम कुछ ऐसा देखने वाले थे जो बहुत ही "टॉप क्लास" का था।

बहुत उत्सुकता के बावजूद मुझे नींद आने लगी और देर रात गए मेरे साथ वाले मित्रों ने मुझे उठाया और बताया कि "आ गयी, उठ जाओ!" चमकदार साड़ियां और घुंघरू पहने दो नाचने वाली आकर बैठी हुयी थी, उसके बगल में कुछ तबला, हारमोनियम और सारंगी लिए बैठे हुए थे, ऐसा लग रहा था मानो मैं किसी सिनेमा के सेट पर बैठा था। मुझे अब भी यकीन नहीं हो रहा था कि मेरे सामने जो भी था वो वास्तविक था । मैं खुद को यकीन दिलाने के लिए चारों और देखने लगा। शायद मैं अकेला था जो जनवासे के चारों तरफ नज़रे घूमा के देख रहा था,  सभी की नज़रे एकटक उन नाचने वाले की तरफ थी। जनवासे में जितने लोग लेटे, बैठे या इन दोनों के बीच की अवस्था में थे, जाहिर था कि वे बारात के हिस्सा थे और करीब दुगुना लोग शामियाने के चारों ओर खड़े थे, जो लड़की के गाँव वाले थे।

बीच बीच में सारंगी वाला अपने बाजा में बने कुछ घुंडियों को घूमा घूमा कर सुर को ठीक कर रहा था और लगभग वही काम तबला वाला हथोड़े से तबले को ठोक करके कर रहा था, हारमोनियम वाला शांति पूर्वक चाय पी रहा था।  दोनों नाचनेवाली ने अपने चेहरे पर शंकर भक्त के भभूत की तरह अत्यधिक पाउडर लगा रखे थे, जो दूर से भी मुझे समझ में आ रहा था। और उसके ऊपर मेक अप करके इस तरह से चेहरे पर कुछ चमकने वाले कण छिड़के हुए थे, जिस से जब जब वो हंसती या हिलती, उसकी चमक लोगो को चकाचौंध कर दे। दोनों के होंठ में लगे लाल लिपस्टिक देख कर ऐसा लग रहा था मानो जुड़वां "ब्लडी मेरी" के साक्षात दर्शन हो रहा था। दोनों ने हाथों और जूड़े में फूल के गज़रे पहने रखे थे और चारों और विशेष फूलों का साज सज्जा किया गया था।

लोगों का उत्साह और जोश अपने चरमोत्कर्ष पर था और तभी अचानक से तबले और हारमोनियम के जोर जोर से बजने की आवाज ने लोगो को अपने और आकर्षित कर दिया। थोड़ी देर बाद सारंगी वाले ने भी अपने को पिछड़ते देख, सारंगी के हैंडल को जोर जोर से घसना शुरू कर दिया! म्यूजिक रिकार्डिस्ट का रोल कितना जरूरी है, ये बात उधर बज रहे तीनों वाद्य यंत्रों के बेसुरे cacophony से समझ में आ रहा था।तभी एक ने गाना और दूसरे ने नाचना शुरू कर दिया। संगीत और नृत्य के सौंदर्य और वीभत्स रस के संगम को देख कर मेरे मन में पहले तो रौद्र तत्पश्चात करुण रस आने लगा! कहना मुश्किल था कि लोग सम्मोहित, मोहित, चकित या भयभीत थे!

गुलशन कुमार के भाई किशन को फिल्म में लांच करने की बहुत कोशिश की गयी थी परन्तु जिस हिम्मत वाले ने उसके सिनेमा को देखने की कोशिश की, उसने पहले पांच मिनट में ही किशन के आने वाले दिनों की कल्पना कर ली थी। लगभग नाचने वाली के शुरुआत के पांच मिनट में ही, मुझे आगे के २-३ घंटों का अनुमान हो गया था। लोगों मे उत्साह डालने के लिए बीच बीच में कुछ बहुत ही बाज़ारू शेर या पुरानी फिल्मों के मुखड़े का सहारा लिया जा रहा था, जैसे मुझे एक याद आ रहा है -

" छोर दी सारी दुनिया किसी के लिए, ये मुनाशीब नहीं किसी के लिए"

थोड़ी देर में उसके अजीब उर्दू के उच्चारण से वहां बैठे हर "सख्स" उसके "इस्क" और "खुसबू" से अपना "दील" उसे "हमेसा" के लिए दे दिए और उसके बाद गम में सबों को "छोर" कर "सराब" पीने लगेंगे!

देर रात तक फरमाइश पर "दरोगा जी चोरी हो गयी", "नथुनिये से गोली मारे", "मोरे होंठवा से नथुनिया कुलेल करेला",  "सलाम्मे इस्क़, के मेरी जान, जरा कबूल करलो", "झुमका गीरा रे बड़े-ल्ली के बज्जार में", "हमने शनम को खत लीखा" और इस तरह के कई और गानो के साथ प्रयोग होते देख , मैं एक भयानक से नींद में खो गया। हिंदी फिल्म बनाने वाले को बहुत धन्यवाद दिया कि वे फिल्मों में नाचने वाली को उमराव जान की तरह काफी आकर्षक बना के दिखाते है, वरना अगर फिल्मों में भी इस तरह के नाचने वाली होती तो बेडा गर्क था!

बहरहाल, शादी के बाद हम अगले दिन सुबह वापस अपने कॉलेज लौटने की तैयारी में थे। कई गुलाबी सपनों को मन में संजोये जब तक वापिस कैंपस पहुंचे, पढाई के काँटों ने उन सभी अरमानों को अपने औकात पर ला दिया।

कुछ दिनों बाद हमारे शादी शुदा मित्र, एक टोकरी लड्डू और मिठाइयाँ लेकर वापस हॉस्टल आ गए और दिनचर्या सामान्य रूप से चलने लगी।