BIT के तीसरे साल तक आते आते अपने बैच में कई लोगो की शादी हो चुकी थी और ये भी एक आम बात सी हो गयी थी कि कइयों के घर पर उनके शादी के रिश्ते आ रहे थे। वैसे भी तीसरे साल तक आते आते कैंपस की हालत ये थी कि "बचे खुचे lot" की "अब इन्हें दवा नहीं दुआ की जरुरत है" वाली हालत थी - मतलब हॉस्टल में दवा-"दारू" और कइयों के घर पर बड़े बूढ़ों के दुआ से शादी की बात चालू थी।
Arranged Marriage एक सामुदायिक कार्यक्रम होता था और इसमें वैसे सभी लोग - जिनकी ज़िंदगी दीवार के खूंटे में टंगे कपड़े जैसी थी - मतलब वैसे लोग जिनको उनके अपने घर के पहनने वाले ने उतार कर टांग कर किनारा कर दिया था, वैसे लोगों को इस तरह के काम में बहुत दिलचस्पी होती थी। वैसे भी चाय नाश्ते पर किसी के घर का एक चक्कर लगा कर आने में किसी को ख़ास बुरा नहीं लगता था। शादी के लिए किसी के घर पर पहुँच जाना आज के फेसबुक पर कैंडी क्रश या farmville के request भेजने जैसी हालत थी!
उन दिनों समाज में शादी करने से ज्यादा, शादी करवाने वाले हुआ करते थे। ऐसा प्रचलित मान्यता थी कि उन दिनों किसी परिवार के कन्यादान करवाने में सहयोग करना -गुरूद्वारे में कार-सेवा या NGO की मदद करने के जैसा नेक काम होता था, और इसमें सहयोग देना परम पुण्य का काम होता है।
परसाईजी का एक लिखा एक संवाद याद आया-"हमारे मुल्क की आधी ताकत लड़कियों की शादी करने में जा रही है।"
लड़कियों का रिश्ता ले कर आने वाले - जिसे बिहार में "बर्तुहारी" कहते थे - उस टीम में गहन चिंतन करके और एक रण नीति के तहत, वैसे लोगों को शामिल किया जाता था जिनमे वाकपटुता, अगले के दिमाग को भाँपने की क्षमता, मीठी बोली बोल कर बातों को सम्हालने की क्षमता आदि आदि का समावेश होता था । कुल मिला कर यह एक "दांव-पेंच" का काम सा था और इसमें चाणक्य नीति का -साम, दाम, भेद और दंड का प्रयोग सर्वथा अनुचित नहीं माना जाता था -
इस विधा के प्रचलित हो जाने के पश्चात, आये दिन हमारे हॉस्टल के आगे -जहाँ आम तौर पर मेस के नौकर अपने लुंगी और कपड़ों को घास पर बिछा कर सूखने के लिए डाल कर, खुद भी कुत्तों के साथ धूप सेंकते नज़र आते थे, और कभी कभी कोई स्कूटर या मोटर साइकिल दिख जाता था - वहाँ शादी के लगन के समय, एम्बेसडर कार का दिखना आम बात सी हो गयी थी।
शाम के समय एक बार जब मैं चाय पीने को निकल रहा था कि अचानक से हॉस्टल के सामने एक कार रुकी और उसके खिड़की से एक आवाज़ आयी - " ये हॉस्टल १३ है क्या?"
जब तक मैं कुछ बोलता, अंदर से एक दूसरी आवाज़ आयी, जो सुनते ही समझ में आ गया कि ओहदे में पहले वाले से ऊपर वाले की थी- "अरे सीधे पूछो कि पीटर* बाबू किधर मिलेंगे।"
( * -गोपनीयता रखने के लिए पात्र का नाम बदल दिया गया है)
"हाँ इधर ही कमरे नंबर -१५० में रहते हैं", मैंने ऊपर के तरफ इशारा करते हुए बताया।
और इतना सुनते ही, अंदर से एक आवाज़ आई - "लगाओ इधर ही गाड़ी"
इतना कहते हुए कार के अंदर से करीबन एक जिले के जनसंख्या के अनुपात में लोग बाहर आ गए और एक ने कहा -
"जरा हमें उनके कमरे तक पहुंचा दीजिये" ये वैसा ही हुक्म भरा "निवेदन" का प्रस्ताव था, जिस तरह से संसद में बिना किसी भावना के "अध्यक्ष महोदय" कहने का रिवाज़ सा होता है।
मैं तो वैसे समय काटने के ख्याल से ही चाय पीने को निकला था, इस हिसाब से मुझे इनको मदद करने में कोई हिचकिचाहट नहीं हुई, दूसरा कि "आगे क्या होगा" इसकी भी कौतूहलता थी!
कमरे के अंदर पीटर उस ज़माने के हिसाब से गरीब सलमान की तरह खुला बदन और नीचे तौलिये को लपेटे, नींद जैसे कठिन कार्य को संपन्न कर रहा था और दरवाजे के दस्तक से उठते ही "कौन है बे", और आगे कुछ संस्कृत के क्लिष्ट शब्दों का प्रयोग करने के बाद जब दरवाजे को खोला तो इतने सारे मनुष्यों के झुण्ड को देख कर बिलकुल जंगल बुक के मोगली की तरह भौंचक्का रह गया।
जब तलक पीटर अपने थूक को हलक के नीचे तक उतार पता कि लोगो के भीड़ को चीर कर आगे आते हुए, टीवी के धार्मिक सीरयल में देवों के देव- महादेव की भाँति एक भारी स्वर में उद्घोषणा हुई -
"हम गजाधर प्रसाद सिंह हैं और आपके मामा जेम्स** हमारे साथ काम करते हैं, वही आपके पास भेजे हैं!"
(नोट- ** फिर से गोपनीयता के लिए पात्र के नाम को बदल दिया गया है - अब अगर लड़के का नाम पीटर चुना गया है तो उसके मामा का नाम जेम्स होना लाज़मी है!)
पीटर ने तुरंत उनको अंदर बुला कर बैठने के लिए कुर्सी दिया और मेरे तरफ याचक दृष्टि से "आगे देख लो" वाली भावना से जल्दी में जो भी टी-शर्ट और पैंट मिला उसे दबोच कर बगल वाले के कमरे में - जहाँ अभी तक तो ताश के खेल में चार-पांच लोग मग्न थे और जो अब दर्शक दीर्घा में शामिल हो गए थे- उसके कमरे में घुस गया।
थोड़ी देर बाद पीटर भी वापस अपने कमरे में आ गया और जिसको जैसा जगह मिला उसमे सब जम कर बैठ गए थे और बीच बीच में बारी बारी से सभी अपने अपने हिस्सा का संवाद देना शुरू कर दिए-
"साहेब बिहार इरीगेशन में बहुत्ते बड़े इंजीनियर हैं .……"
"पटना में कंकड़बाग में बहुत्ते बड़ा घर है इनका …।"
"खानदानी हैं, शाहपुर एस्टेट के जम्मेंदार परिवार के हैं..... "
" वहाँ के सांसद फूल सिंह- इन्ही के परिवार के हैं...."
अंतिम बात पर और वजन देने और बात में घुसने के लिए गजाधर बाबू ने आगे मोर्चा सम्हाल लिया, और chemistry के lab के titration में pH indicator methyl red डालने के जैसे निर्णायक बात से पिछले कहे सभी बातों का संक्षेपण और मुद्दे पर आने के हिसाब से उद्घोषणा की-
"फूल बाबू हमारे आपने चच्चा लगेंगे…!"
इसके बात आगे बिना किसी और भूमिका के उन्होंने अपनी इच्छा प्रकट कर दिया -
"बात ये है की आपके मामा आपकी बहुत तारीफ करते रहते हैं, बता रहे थे कि आपकी शादी के लिए घर वाले अब सोचने लगे हैं.… "
पीटर शरमाते हुए और औपचारिकता वश -"नहीं, ए साल नहीं, वो तो माँ बहुत्ते ज़िद्द की थी कि दादी का तबियत बहुत्ते ख़राब रहता है तो… हम्म ऐसे ही बोल दिए थे....अभी शादी वादी का नहीं सोचे हैं "
ऐसे सभी दांव का- जैसे सचिन ने शेन वार्न को खेलने के लिए बहुत नेट प्रैक्टिस की हुई थी, तुरंत उत्तर आया-
"अब देखिये, ऐसा है कि हम ये सब समझते हैं, पर क्या है कि समाज में सब क्या कहेगा ? अब आप की अवस्था हो गयी है शादी की, ऐसे हमारी मुनिया का भी पढ़ाई तो अभी चल ही रहा है, अभी शादी कर लीजिये, दुन्नो एक्क्दम्म मन्न लगा के पढ़िए, बाद में सही समय देक्ख के गौना कर दिया जायेगा … कोई तुरंत साथ रहने की समस्या नहीं है…"
पीटर ने एक और प्रयास किया - "नहीं अभी यहाँ से पास करके पहले नौकरी खोजना है……, शादी तो उसके बाद का सोच रहे थे ... "
मैदान में फैले हुए बाकी खिलाडियों ने भी इस में अपनी भागीदारी, और इतने दूर तक गजोधर बाबू के खर्च पर उनके शरीर के बोझ को उठा के लाये जाने का उपयोगिता दिखाने के अंदाज़ में शुरू हो गए-
"अरे नौकरी का क्या है, BIT के पास किये हुए बच्चे तो एकदम से टॉप स्टूडेंट होते हैं....निकलते ही…साहेब भी तो यही के पढ़े हुए है.... "
"इनकी बिटिया बहुत भाग्यशाली है....आते ही आपका किस्मत एकदम बदल जाएगा "
"अरे अच्छी लड़की जल्दी नहीं मिलती है, संस्कारी है, सुशील है, सबका ख्याल करने वाली है…… "
मगर पीटर के रेगिस्तान से अंतर्मन में उसके बनने वाले नए "पिता" गजोधर के बातो ने मुसलाधार बारिश जैसा प्रभाव डाल दिया -
"देखिये पीटर बाबू, अब आप अपने पिताजी का भी सोचिये, जेम्स बाबू बता रहे थे कि आपका खर्चा के अलावा अब आपका छोटा वाला भाई का भी खर्च देखना पड़ता है उनको, और महंगाई तो समझिए कमर तोड़ के रख दिया है सबका, उसपर से आपके बाबूजी ठहरे बिहार ट्रांसपोर्ट में, सब पता है हमको, पिछले ४ महीने से कर्मचारियों को वेतन तक नहीं मिला है, आगे और भी जरुरत सब पड़ने वाला है.... "
फिर थोड़ा रुकते हुए गजोधर बाबू ने आगे जो बात कही उस से पीटर को जो सन्देश मिला वो बचपन से पढ़ते आये कबीर जी के दोहे - "काल करे सो आज कर"- में अब तक उसे नहीं मिली थी-
"पीटर बाबू, शादी आज नहीं तो कल कीजियेगा ही न, तो जल्दी कीजियेगा तो हम भी आपका परिवार बन जाएंगे और अपने परिवार का मदद कौन नहीं करेगा? ऐसे भी अब आपके बाबूजी बहुत कर लिए, इतना पढ़ा लिखा के आपको ये लायक बना दिए कि देखिये अब आप साहेब बन जाइयेगा, अब कोई हक़ बनता है कि नहीं उनको भी आराम करने का?"
पीटर ने सुना था कि "गरीब बाप मिलना बदकिस्मती है पर गरीब ससुर लाना -बेवकूफी!" और फिर जरा सा हिचकिचाते हुए हामी देने वाले स्वर में बोला -
"आप लोग पिताजी से बात कर लीजिये, सब वही फाइनल करेंगे"
गजोधर बाबू के स्पिन होती गेंद पर पीटर के बार बार बीट होते देख फील्डिंग और चुस्त करते नए जोश के साथ विकेट लेने की कोशिश करते, तुरंत सहायक कलाकारों में से एक ने 'हाउ जैट" की अपील करने के अंदाज़ में -
"अरे आपके बाबूजी से तो बात करेंगे ही, मगर पहले आपके तरफ से हाँ हो जाए तब ही आगे जाएंगे....क्या है कि गजोधर बाबू का मानना है कि लड़का का रजामंदी जरूरी होना चाहिए, ज़िंदगी भर का बात है..... "
"ये देखा जाए, बिटिया का फोटो सब इधर है" एक ने लिफाफे को बढ़ाते हुए पीटर को दे दिया।
पीटर ने सहमते और शर्माते हुए एक के बाद एक लिफ़ाफ़े से फोटो को निकालते हुए अपने होने वाली "मिसेज़" का "हुस्न -ए - दीदार" किया और फिर डरते डरते लिफाफे के अंदर ही हुस्न को वापस कैद करते हुए वापस देने लगा, तभी गजोधर बाबू ने हक़ के साथ कहा -
"ये क्या कर रहे हैं, ये अपने पास ही रखिये, नया वाला एल्बम अभी स्टूडियो वाला बना रहा है, वो भी भेजवा देंगे आपको… "
"तो ठीक है पीटर बाबू, अब हमें आज्ञा दिया जाए, आगे एक निरीक्षण करते हुए रात पटना निकल जाना है, देर हो रहा है.… आप मन लगा के पढ़िए, हम जेम्स बाबू के साथ जाएंगे आपके बाबूजी से मिलने.…आप चिंता मत कीजिये आगे का सब हम कर लेंगे...."
पीटर बिलकुल फ़ौज़ के नए रंगरूट की तरह सावधान के मुद्रा में खड़े होकर -
"चाय नाश्ता कुछ कर लेते…… इतना दूर से आये थे.... "
बर्तुहरी का एक नियम होता है की यदि बात बन गया हो तो उस में जितना जरुरत जो उस से ज्यादा रुकने से कुछ गड़बड़ी की आशंका होती है , इसलिए "short and sweet" रखते हुए एक ने कहा-
"फिर कभी आएंगे तब चलेंगे कहीं इत्मीनान से.… आज साहेब को जल्दी है… "
और इसके बाद पूरा काफिला आगे बढ़ने लगा.. पीटर पीछे दरवाजा को बंद करने वाला ही था कि अनेक सारे मित्रों में से एक जो पीटर का कुछ ज्यादा ही शुभचिंतक था, उसने दूसरे छोर के जमे हुए बल्लेबाज को देखे बिना हाफ पिच तक रन के लिए दौड़ कर आ कर रन आउट करवाने जैसी हरकत कर दी- जरा ऊंची आवाज़ में बोलते हुए -
"ए पीटर, खैनी का चूना किधर रखा है ? मेस का पैसा भी नहीं दिए हो दो महीने से…और कल का बीड़ी का पैसा भी बाकी है...."
पीटर ने हाथ को उठा कर निशब्द कहा - "ये क्या हरामीगीरी है यार?"
उधर गजोधर बाबू जो स्वयं सिंदरी के पुराने बैच के थे, माज़रा को समझते हुए मंद मंद मुस्कराते हुए आगे बढ़ने लगे, शायद उनके ज़माने में भी हॉस्टल में ऐसे ही मसखरी चलती होगी !
और इस तरह से एक और सुयोग्य वर की शादी की पुंगी बज़ गयी !
Arranged Marriage एक सामुदायिक कार्यक्रम होता था और इसमें वैसे सभी लोग - जिनकी ज़िंदगी दीवार के खूंटे में टंगे कपड़े जैसी थी - मतलब वैसे लोग जिनको उनके अपने घर के पहनने वाले ने उतार कर टांग कर किनारा कर दिया था, वैसे लोगों को इस तरह के काम में बहुत दिलचस्पी होती थी। वैसे भी चाय नाश्ते पर किसी के घर का एक चक्कर लगा कर आने में किसी को ख़ास बुरा नहीं लगता था। शादी के लिए किसी के घर पर पहुँच जाना आज के फेसबुक पर कैंडी क्रश या farmville के request भेजने जैसी हालत थी!
उन दिनों समाज में शादी करने से ज्यादा, शादी करवाने वाले हुआ करते थे। ऐसा प्रचलित मान्यता थी कि उन दिनों किसी परिवार के कन्यादान करवाने में सहयोग करना -गुरूद्वारे में कार-सेवा या NGO की मदद करने के जैसा नेक काम होता था, और इसमें सहयोग देना परम पुण्य का काम होता है।
परसाईजी का एक लिखा एक संवाद याद आया-"हमारे मुल्क की आधी ताकत लड़कियों की शादी करने में जा रही है।"
लड़कियों का रिश्ता ले कर आने वाले - जिसे बिहार में "बर्तुहारी" कहते थे - उस टीम में गहन चिंतन करके और एक रण नीति के तहत, वैसे लोगों को शामिल किया जाता था जिनमे वाकपटुता, अगले के दिमाग को भाँपने की क्षमता, मीठी बोली बोल कर बातों को सम्हालने की क्षमता आदि आदि का समावेश होता था । कुल मिला कर यह एक "दांव-पेंच" का काम सा था और इसमें चाणक्य नीति का -साम, दाम, भेद और दंड का प्रयोग सर्वथा अनुचित नहीं माना जाता था -
- साम जिसका अर्थ समझदारी से समझा कर - यानी लड़की ने बीए "ऑनर्स" किया है, गृह कार्य में दक्ष है, घर बाहर सब का काम जानती है, "इंग्रीजी" भी बोल लेती है, तीखा नयन नक्श, साफ़ रंग.… यानि वो सारी बात जिसे सुनकर शायद ही कभी बात बने, पर किसी भी "terms and conditions" की तरह इसका व्याख्यान आवश्यक था,और लोग भी इसे बस औपचारिकता तक ही तज़रीह देते थे।
- दाम जिसका शाब्दिक अर्थ ही समझना चाहिए और इसमें बाजार के हिसाब से जो शेयर मार्केट का भाव चल रहा हो, अगर कोई लड़का वाला बाजार के भाव से ज्यादा निकलवा ले या इसके विपरीत लड़की वाले बाजार से कम भाव में लड़के को "पटा" ले, तो इसे बहुत बड़ी उपलब्धि मानी जाती थी। इस काम में "insider trading" का पूरा गुंजाईश होता था। घर का भेदी लंकदाह वाले विभीषण -जो बिरले नसीब वाले को ही मिल पाता था- की हर शादी के "खरीद फरोख्त" में तलाश होती थी। ऐसे "धतूरे" - जो सिर्फ खास पिच पर ही नरेंद्र हिरवानी की तरह वेस्ट इंडीज को धूल चटाने के तुरंत बाद खुद चाटने लगे - मिल जाना एक उपलब्धि जैसा होता था पर बर्तुहारी बाजार में इनका सिर्फ सामयिक या व्यक्ति विशेष महत्व -one time use- ही होता था।
- भेद जिसका उपयोग बहुत चतुराई से किया जाता था - इस विधा को समझने के लिए इसका उत्कृष्टतम उदाहरण जो स्वयं व्याख्यात्मक है - लड़के के जीजा का बर्तुहरी में साथ होना। भेद नीति में लड़के के पिता के बॉस, गाँव के प्रभावशाली या सम्मानित लोगो को साथ लाना इत्यादि का भी प्रयोग आम बात थी।
- दंड जिसका हल्का फुल्का उपयोग होते मैंने सुना था, जिसके द्वारा लड़के या उसके परिवार के मन में किसी तरह से भय डाल के उन्हें शादी के लिए तैयार किया जाता था - जैसे कोई नेता, पुलिसिया या आपराधिक तत्वों को बीच में घुसा दिया जाए।
इस विधा के प्रचलित हो जाने के पश्चात, आये दिन हमारे हॉस्टल के आगे -जहाँ आम तौर पर मेस के नौकर अपने लुंगी और कपड़ों को घास पर बिछा कर सूखने के लिए डाल कर, खुद भी कुत्तों के साथ धूप सेंकते नज़र आते थे, और कभी कभी कोई स्कूटर या मोटर साइकिल दिख जाता था - वहाँ शादी के लगन के समय, एम्बेसडर कार का दिखना आम बात सी हो गयी थी।
शाम के समय एक बार जब मैं चाय पीने को निकल रहा था कि अचानक से हॉस्टल के सामने एक कार रुकी और उसके खिड़की से एक आवाज़ आयी - " ये हॉस्टल १३ है क्या?"
जब तक मैं कुछ बोलता, अंदर से एक दूसरी आवाज़ आयी, जो सुनते ही समझ में आ गया कि ओहदे में पहले वाले से ऊपर वाले की थी- "अरे सीधे पूछो कि पीटर* बाबू किधर मिलेंगे।"
( * -गोपनीयता रखने के लिए पात्र का नाम बदल दिया गया है)
"हाँ इधर ही कमरे नंबर -१५० में रहते हैं", मैंने ऊपर के तरफ इशारा करते हुए बताया।
और इतना सुनते ही, अंदर से एक आवाज़ आई - "लगाओ इधर ही गाड़ी"
इतना कहते हुए कार के अंदर से करीबन एक जिले के जनसंख्या के अनुपात में लोग बाहर आ गए और एक ने कहा -
"जरा हमें उनके कमरे तक पहुंचा दीजिये" ये वैसा ही हुक्म भरा "निवेदन" का प्रस्ताव था, जिस तरह से संसद में बिना किसी भावना के "अध्यक्ष महोदय" कहने का रिवाज़ सा होता है।
मैं तो वैसे समय काटने के ख्याल से ही चाय पीने को निकला था, इस हिसाब से मुझे इनको मदद करने में कोई हिचकिचाहट नहीं हुई, दूसरा कि "आगे क्या होगा" इसकी भी कौतूहलता थी!
कमरे के अंदर पीटर उस ज़माने के हिसाब से गरीब सलमान की तरह खुला बदन और नीचे तौलिये को लपेटे, नींद जैसे कठिन कार्य को संपन्न कर रहा था और दरवाजे के दस्तक से उठते ही "कौन है बे", और आगे कुछ संस्कृत के क्लिष्ट शब्दों का प्रयोग करने के बाद जब दरवाजे को खोला तो इतने सारे मनुष्यों के झुण्ड को देख कर बिलकुल जंगल बुक के मोगली की तरह भौंचक्का रह गया।
जब तलक पीटर अपने थूक को हलक के नीचे तक उतार पता कि लोगो के भीड़ को चीर कर आगे आते हुए, टीवी के धार्मिक सीरयल में देवों के देव- महादेव की भाँति एक भारी स्वर में उद्घोषणा हुई -
"हम गजाधर प्रसाद सिंह हैं और आपके मामा जेम्स** हमारे साथ काम करते हैं, वही आपके पास भेजे हैं!"
(नोट- ** फिर से गोपनीयता के लिए पात्र के नाम को बदल दिया गया है - अब अगर लड़के का नाम पीटर चुना गया है तो उसके मामा का नाम जेम्स होना लाज़मी है!)
पीटर ने तुरंत उनको अंदर बुला कर बैठने के लिए कुर्सी दिया और मेरे तरफ याचक दृष्टि से "आगे देख लो" वाली भावना से जल्दी में जो भी टी-शर्ट और पैंट मिला उसे दबोच कर बगल वाले के कमरे में - जहाँ अभी तक तो ताश के खेल में चार-पांच लोग मग्न थे और जो अब दर्शक दीर्घा में शामिल हो गए थे- उसके कमरे में घुस गया।
थोड़ी देर बाद पीटर भी वापस अपने कमरे में आ गया और जिसको जैसा जगह मिला उसमे सब जम कर बैठ गए थे और बीच बीच में बारी बारी से सभी अपने अपने हिस्सा का संवाद देना शुरू कर दिए-
"साहेब बिहार इरीगेशन में बहुत्ते बड़े इंजीनियर हैं .……"
"पटना में कंकड़बाग में बहुत्ते बड़ा घर है इनका …।"
"खानदानी हैं, शाहपुर एस्टेट के जम्मेंदार परिवार के हैं..... "
" वहाँ के सांसद फूल सिंह- इन्ही के परिवार के हैं...."
अंतिम बात पर और वजन देने और बात में घुसने के लिए गजाधर बाबू ने आगे मोर्चा सम्हाल लिया, और chemistry के lab के titration में pH indicator methyl red डालने के जैसे निर्णायक बात से पिछले कहे सभी बातों का संक्षेपण और मुद्दे पर आने के हिसाब से उद्घोषणा की-
"फूल बाबू हमारे आपने चच्चा लगेंगे…!"
इसके बात आगे बिना किसी और भूमिका के उन्होंने अपनी इच्छा प्रकट कर दिया -
"बात ये है की आपके मामा आपकी बहुत तारीफ करते रहते हैं, बता रहे थे कि आपकी शादी के लिए घर वाले अब सोचने लगे हैं.… "
पीटर शरमाते हुए और औपचारिकता वश -"नहीं, ए साल नहीं, वो तो माँ बहुत्ते ज़िद्द की थी कि दादी का तबियत बहुत्ते ख़राब रहता है तो… हम्म ऐसे ही बोल दिए थे....अभी शादी वादी का नहीं सोचे हैं "
ऐसे सभी दांव का- जैसे सचिन ने शेन वार्न को खेलने के लिए बहुत नेट प्रैक्टिस की हुई थी, तुरंत उत्तर आया-
"अब देखिये, ऐसा है कि हम ये सब समझते हैं, पर क्या है कि समाज में सब क्या कहेगा ? अब आप की अवस्था हो गयी है शादी की, ऐसे हमारी मुनिया का भी पढ़ाई तो अभी चल ही रहा है, अभी शादी कर लीजिये, दुन्नो एक्क्दम्म मन्न लगा के पढ़िए, बाद में सही समय देक्ख के गौना कर दिया जायेगा … कोई तुरंत साथ रहने की समस्या नहीं है…"
पीटर ने एक और प्रयास किया - "नहीं अभी यहाँ से पास करके पहले नौकरी खोजना है……, शादी तो उसके बाद का सोच रहे थे ... "
मैदान में फैले हुए बाकी खिलाडियों ने भी इस में अपनी भागीदारी, और इतने दूर तक गजोधर बाबू के खर्च पर उनके शरीर के बोझ को उठा के लाये जाने का उपयोगिता दिखाने के अंदाज़ में शुरू हो गए-
"अरे नौकरी का क्या है, BIT के पास किये हुए बच्चे तो एकदम से टॉप स्टूडेंट होते हैं....निकलते ही…साहेब भी तो यही के पढ़े हुए है.... "
"इनकी बिटिया बहुत भाग्यशाली है....आते ही आपका किस्मत एकदम बदल जाएगा "
"अरे अच्छी लड़की जल्दी नहीं मिलती है, संस्कारी है, सुशील है, सबका ख्याल करने वाली है…… "
मगर पीटर के रेगिस्तान से अंतर्मन में उसके बनने वाले नए "पिता" गजोधर के बातो ने मुसलाधार बारिश जैसा प्रभाव डाल दिया -
"देखिये पीटर बाबू, अब आप अपने पिताजी का भी सोचिये, जेम्स बाबू बता रहे थे कि आपका खर्चा के अलावा अब आपका छोटा वाला भाई का भी खर्च देखना पड़ता है उनको, और महंगाई तो समझिए कमर तोड़ के रख दिया है सबका, उसपर से आपके बाबूजी ठहरे बिहार ट्रांसपोर्ट में, सब पता है हमको, पिछले ४ महीने से कर्मचारियों को वेतन तक नहीं मिला है, आगे और भी जरुरत सब पड़ने वाला है.... "
फिर थोड़ा रुकते हुए गजोधर बाबू ने आगे जो बात कही उस से पीटर को जो सन्देश मिला वो बचपन से पढ़ते आये कबीर जी के दोहे - "काल करे सो आज कर"- में अब तक उसे नहीं मिली थी-
"पीटर बाबू, शादी आज नहीं तो कल कीजियेगा ही न, तो जल्दी कीजियेगा तो हम भी आपका परिवार बन जाएंगे और अपने परिवार का मदद कौन नहीं करेगा? ऐसे भी अब आपके बाबूजी बहुत कर लिए, इतना पढ़ा लिखा के आपको ये लायक बना दिए कि देखिये अब आप साहेब बन जाइयेगा, अब कोई हक़ बनता है कि नहीं उनको भी आराम करने का?"
पीटर ने सुना था कि "गरीब बाप मिलना बदकिस्मती है पर गरीब ससुर लाना -बेवकूफी!" और फिर जरा सा हिचकिचाते हुए हामी देने वाले स्वर में बोला -
"आप लोग पिताजी से बात कर लीजिये, सब वही फाइनल करेंगे"
गजोधर बाबू के स्पिन होती गेंद पर पीटर के बार बार बीट होते देख फील्डिंग और चुस्त करते नए जोश के साथ विकेट लेने की कोशिश करते, तुरंत सहायक कलाकारों में से एक ने 'हाउ जैट" की अपील करने के अंदाज़ में -
"अरे आपके बाबूजी से तो बात करेंगे ही, मगर पहले आपके तरफ से हाँ हो जाए तब ही आगे जाएंगे....क्या है कि गजोधर बाबू का मानना है कि लड़का का रजामंदी जरूरी होना चाहिए, ज़िंदगी भर का बात है..... "
"ये देखा जाए, बिटिया का फोटो सब इधर है" एक ने लिफाफे को बढ़ाते हुए पीटर को दे दिया।
पीटर ने सहमते और शर्माते हुए एक के बाद एक लिफ़ाफ़े से फोटो को निकालते हुए अपने होने वाली "मिसेज़" का "हुस्न -ए - दीदार" किया और फिर डरते डरते लिफाफे के अंदर ही हुस्न को वापस कैद करते हुए वापस देने लगा, तभी गजोधर बाबू ने हक़ के साथ कहा -
"ये क्या कर रहे हैं, ये अपने पास ही रखिये, नया वाला एल्बम अभी स्टूडियो वाला बना रहा है, वो भी भेजवा देंगे आपको… "
"तो ठीक है पीटर बाबू, अब हमें आज्ञा दिया जाए, आगे एक निरीक्षण करते हुए रात पटना निकल जाना है, देर हो रहा है.… आप मन लगा के पढ़िए, हम जेम्स बाबू के साथ जाएंगे आपके बाबूजी से मिलने.…आप चिंता मत कीजिये आगे का सब हम कर लेंगे...."
पीटर बिलकुल फ़ौज़ के नए रंगरूट की तरह सावधान के मुद्रा में खड़े होकर -
"चाय नाश्ता कुछ कर लेते…… इतना दूर से आये थे.... "
बर्तुहरी का एक नियम होता है की यदि बात बन गया हो तो उस में जितना जरुरत जो उस से ज्यादा रुकने से कुछ गड़बड़ी की आशंका होती है , इसलिए "short and sweet" रखते हुए एक ने कहा-
"फिर कभी आएंगे तब चलेंगे कहीं इत्मीनान से.… आज साहेब को जल्दी है… "
और इसके बाद पूरा काफिला आगे बढ़ने लगा.. पीटर पीछे दरवाजा को बंद करने वाला ही था कि अनेक सारे मित्रों में से एक जो पीटर का कुछ ज्यादा ही शुभचिंतक था, उसने दूसरे छोर के जमे हुए बल्लेबाज को देखे बिना हाफ पिच तक रन के लिए दौड़ कर आ कर रन आउट करवाने जैसी हरकत कर दी- जरा ऊंची आवाज़ में बोलते हुए -
"ए पीटर, खैनी का चूना किधर रखा है ? मेस का पैसा भी नहीं दिए हो दो महीने से…और कल का बीड़ी का पैसा भी बाकी है...."
पीटर ने हाथ को उठा कर निशब्द कहा - "ये क्या हरामीगीरी है यार?"
उधर गजोधर बाबू जो स्वयं सिंदरी के पुराने बैच के थे, माज़रा को समझते हुए मंद मंद मुस्कराते हुए आगे बढ़ने लगे, शायद उनके ज़माने में भी हॉस्टल में ऐसे ही मसखरी चलती होगी !
और इस तरह से एक और सुयोग्य वर की शादी की पुंगी बज़ गयी !
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