इन्जीनियरिंग की प्रवेश परीक्षा में उत्तीर्ण होने के बाद काफी गतिविधियाँ हो चुकी थी। BIT सिंदरी में एडमिशन ले लेने के बाद अब कैंपस को कूच करने का समय आ गया था। जमशेदपुर के कुछेक BIT में पढ़ रहे सीनियर्स का भी पता चल चुका था। उनसे सिंदरी तक पहुँचने के बारे में पूरी जानकारियां मिल गई थी।
बस से जमशेदपुर से धनबाद तक के सफर के दौरान, आने वाले चार सालों के लिए, रास्ते में पड़ने वाले शहरों से अवगत हो चुका था। पूरे सफर का सामयिक महत्व जो भी हो - विशेषज्ञों के लिए हार या जीत के भावना से ऊपर उठ कर, जो उत्साह सचिन के खेल की बारीकी का विश्लेषण के लिए होता था - पुरुलिया के आगे पड़ने वाले "सिंह ढाबा" का आलू परांठे और खीर खाने का अनुभव- वैसा ही था ।
धनबाद के "बैंक मोड़" पर बस के रुकने से पहले ही दूर से सड़क पर आड़े तिरछे लगे ट्रेक्कर के जमावड़ा सा दिखने लगा था। ट्रेक्कर वाले के विशेष तरीके से विभिन्न योगासन की मुद्रा में रोड को सुशोभित करने का उद्देश्य - बस के वहां रुकने के उम्मीद से था। और, हर रोज़ की तरह, किसी मैराथन की दौड़ को पूरा करने के बाद हाँफते बस ने, आज भी ठीक उसी जगह आकर, पिछले ५-६ घंटे से चल रहे सड़क के साथ हो रहे दंगल को - TKO- Technical Knock Out - के रूप में, ख़त्म कर लिया।
बस के रुकते ही खिड़की से छन कर, तरह तरह के शैली और जोश में - "झरिआ, डिगवाडीह, सिंदरी.... " की आती आवाज़ ने, मेरे आगे के सफर का काम आसान कर दिया था। बस से उतर कर जब तक मैं सम्हलता, सिंदरी जाने वाले ट्रेकर के छत पर, मेरा सूटकेस और बैग रखा जा चुका था। इस से पहले मैं कभी ट्रेक्कर नहीं देखा था - लाज़मी था कि उस से कभी सफर भी नहीं की थी - अतः अपने हिसाब से, मुझे ड्राइवर के पीछे वाले सीट पर बैठना ठीक लगा, और मैं उस पर स्वतः आसीन हो चुका था ।
ट्रेक्कर के अंदर ड्राइवर के स्टीयरिंग व्हील के ठीक बगल वाले जगह पर एक मूर्ति लगी हुयी थी। शिव जी पालथी मार कर बैठे, अपने पीछे त्रिशूल को रखे, जटा से गंगा को प्रस्फुटित कराते, अपनी आँखे को ध्यान के कारण बंद किये हुए थे - और इसी कारण से - सभी को सामान रूप से आशीर्वाद दे रहे थे। मूर्ति देखने के बाद भी अगर किसी को उनका परिचय स्पष्ट न हो पाये, संभवतः शंका समाधान के इस विचार से, स्पष्टीकरण के तौर पर मूर्ति के नीचे - "हर हर महादेव" भी लिखा हुआ था।
अब तक मुझे स्पष्ट नहीं हुआ था कि ड्राइवर का "भगवान में भरोसा" या "भगवान के भरोसे" - इनमे से, कौन सी भावना - ज्यादा प्रबल थी? अलबत्ता गाड़ी के बाहर बड़े बड़े अक्षर से पेंट करके कलात्मक ढंग से, डमरू लगे त्रिशूल के चित्र के मध्य -"शंकर तेरा ही सहारा" -लिखा गया था, जिसके "ही" को परिलक्षित करने के उद्देश्य से, शिव जी को गाड़ी के डैशबोर्ड पर, फेविकोल से हमेशा के लिए चिपका दिया गया था। हर रोज अपनी श्रद्धा दिखाने के झंझट से मुक्ति पाने के उद्देश्य से - रंग बिरंगे प्लास्टिक के बने फूलो के माला को - शिवजी के गले में डाल दिया गया था। इस तरह से शिवजी को हमेशा के लिए आशीर्वाद देने के काम पर लगाकर, वह अपने धंधे पर ज्यादा ध्यान दे पा रहा था। सारांश में, ट्रेक्कर के ड्राइवर का - धर्म और कर्म - दोनों में एक साथ मन लगाने का बोध हो रहा था।
शिवजी के आसन के ठीक नीचे, एक कैसेट प्लेयर जैसी ध्वनि प्रदूषक यन्त्र को लगा कर रखा गया था, जिसमे उस वक़्त - "उई ली ली …उई उईई " जैसे विचित्र आवाज़ निकालते, जीवन के सारांश के उपदेश को देता, -"एक तो कम है जिंदगानी, उस से भी कम है जवानी...प्यार दो, प्यार लो…" - उस समय का एक प्रसिद्द जाबांज़ फिल्म का गाना बज़ रहा था। गाना बजाने का उद्देश्य, संभवतः गाड़ी के अंदर - कैद कर लिए गए यात्रियों- के प्रति संवेदना के भाव से तथा राहत के तौर पर उनके मनोरंजन करने से जुड़ा था। क्योंकि इस वक़्त गाना से बेखबर, ड्राइवर जिराफ की तरह गाड़ी से गर्दन को बाहर निकाले, गिद्ध नज़र लगाये किसी भी चलते फिरते आदमी को - जिसमे चुटकी भर भी कही जाने की संभावना दिख रही थी - वैसे सभी लोगों को देख कर, उत्साहित स्वर में आस पास के शहरों का स्मरण कराते हुए "झरिआ, डिगवाडीह, सिंदरी.... " के मंत्र का, जोर जोर से उच्चारण कर रहा था.… !
इन सब गतिविधियों के बीच मेरी निगाह सड़क के किनारे रुकते बसों से उतरते लोगों में थी। मैं खोज रहा था कि कोई मेरे साथ कॉलेज में एडमिशन लेने वाला और भी दिख जाए। इधर ट्रेक्कर को थोड़ी थोड़ी देर में बिलकुल चल पड़ने वाली स्थिति में दिखा कर, बाहर के यात्रियों को आकर्षित करने और अंदर बैठे गिरफ्त में आये यात्रियों को ढाढस बाँधने के, जैसा कुछ कार्यक्रम चल रहा था।
इन सब के बीच, मेरे कतार में आगे बैठे एक संत सरीखे मनुष्य ने बीड़ी सुलगा ली। सर्वथा समय काटने के उद्देश्य से प्रेरित अपने मौलिक स्वाभाव के अनुरूप किये इस कार्य को लेकर, उसके अगल बगल बैठे लोगों में काफी रोष सा था। बीड़ी पीने वाले के दोनों और बैठे लोगों में से, ज्यादा विचलित होने वाला मनुष्य - अपनी सारी जमा की हुई औकात को फिर से इकठ्ठा करने के बाद भी, उसका कुछ न कर पाने की स्थिति में - अपने गर्दन को यथासंभव लम्बा कर - बाहर की ओर देखने लगा। बीड़ी पीने वाले ने भी सिर्फ समय काटने के उद्देश्य से ही बीड़ी सुलगाया था क्योंकि हरेक कश के बाद वह खांसने की रस्म को ज्यादा शिद्दत से अदा कर रहा था। जब अनवरत चलते रहने के भ्रम सा देने वाली ज़िंदगी भी एक दिन ख़त्म हो जाती है, तो फिर बीड़ी क्या चीज़ थी? अलविदा का एक लम्बा चुम्बन सा देते हुए, उसने पूरी ताकत लगा के एक दमदार कश ली। और बीड़ी को फेंकने के लिए- बिलियर्ड के सोते हुए शॉट के पोजीशन में - अपने बगल वाले के ऊपर लगभग लेटते हुए, वह फिर से एक बार और जोर से खांसा- जिस में उसके शरीर के अंदर के सारे अस्तर पंजर ने भी कोरस सा साथ दिया था। एक बार फिर से उस ने पूरी साँस को अंदर लेकर गहरी सांस लिया और एक लम्बी सी थूक के साथ बीड़ी को भी गाड़ी के बाहर फेंक दिया।
धनबाद शहर काफी चहल पहल वाला लग रहा था और मेन रोड के इर्द गिर्द जिंदगी पनाह लेती सी लग रही थी। सड़क पर गहन गतिविधियाँ चल रही थी -सभी को जल्दी थी- भाग दौड़ में जिंदगी जैसे कही खो गयी थी।
सड़क पर आते जाते ट्रैफिक में कभी बस, उनके बीच में ट्रेक्कर, शान से चलती लाल बत्ती लगाये जीप, बिना लाल बत्ती वाले दबंग से जीप, निरीह सी दिखती मारुती कार, सफ़ेद सरकारी पर ,कोयले के परत की कालिख लगाये, एम्बेस्डर कार - सब के सब सड़क पर अपना मालिकाना हक़ समझ कर बेतहाशा दौड़ रहे थे। इन सबों के बीच, सड़क के धमनियों में रक्त के बहते से अनगिनत दुपहिए- सब के सब मिलकर सड़क के ट्रैफिक की परिभाषा पूरा कर रहे थे । यदा कदा शेर सरीखे धक धक की हुंकार करके शान से चलती, सड़क पर बाकी निरीह से दिखने वाले दुपहियों के नायक - एनफील्ड मोटरसाइकल-अपने उपर कोई ठेकेदार या रंगदार सा मनुष्य को सवार किये दिख जाते थे। आम तौर पर इन मोटरसाइकल के पीछे भी एक इंसान बैठा दिखता था, जो स्वाभाव और भाव से ही चलाने वाले का अंगरक्षक सा लगता था। ईश्वर में आस्था रखते, अपनी जान को बचाते और सड़क पर अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ते हुए, साईकिल पर और पैदल चलते सामान्य लोग सड़क के किनारे होते होते लगभग सड़का के नीचे उतर गए थे। एक ही सड़क - अलग अलग मंज़िल, अलग अलग गतियाँ, सड़क पर अलग अलग हिस्से पर अपना स्वामित्व बनाये - पर सभी के सभी गतियमान थे!
इधर ट्रेक्कर लगभग भर चुका था पर ड्राइवर अभी भी "लटकने और झूलने वाले" सवारी के प्रतीक्षा में थे।
सड़क के दोनों किनारे, इस तरह से लोग खड़े होकर दूर से आती गाड़ियों को देख रहे थे, जैसे कृष्ण के आने की तैयारी में स्वागत के लिए गोपियाँ खड़े हों! दूर से आ रही गाड़ियों को गौर से देखते हुए -लोग बचपन में पढ़ाये "वेग और दूरी" का उपयोग कर रहे थे और अपने दौड़ने की क्षमता का अांकलन करते हुए - मौका मिलते ही गाड़ियों को चिढ़ाने के अंदाज़ में, दौड़ते हुए रोड के दूसरे तरफ चले आ रहे थे। इस तरह के "सड़क पार करने के कार्यक्रम" में, कभी कभी पूरे परिवार के एक जैसे जिगर और चुस्ती न होने के कारण, कुछ सड़क पार कर जाते तो कुछ लोग सड़क के इस पार ही छूट जाते थे। सड़क पार करने की फिर से हिम्मत जुटाते - एक कदम आगे और दो पीछे करते - फिर से प्रयास कर रहे थे। इनकी सड़क को पार करने की हिमाकत को देख - दूर से आ रहे बस या ट्रक वाले नाराज हो जाते थे - गाड़ी की गति को और बढ़ा देते और मिजाज़ भर के गलियां देते हुए- गगनभेदी हॉर्न को बजा कर उन्हें अपनी औकात बता रहे थे। हॉर्न के कर्कश तेज़ ध्वनि को सुन कर दूसरे ग्रह के निवासी भी सिहर जाते होंगे - परन्तु अक्खड़ सड़क पार करने वाले उसे अनसुना करते, आगे बढ़ते जा रहे थे। सड़क पूंजीपति बने ट्रक और बस वाले की बपौती थी, जो सड़क पार करने वाले सामान्य से लोगो के हिम्मत को, कुचल कर सबक सीखा देने की ठान रखी थी!
अब तक करीब आधे घंटे हो गए थे और हर क्षण ऐसा लगता था कि ट्रेक्कर बस अब चलने ही वाली थी। ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे बरसात के बीच स्टेडियम में बैठे किसी भी पल खेल शुरू होने के प्रतीक्षा में थे। कभी कभी सड़क पर खड़े मेरे ट्रेक्कर के बगल से कोई डम्पर या "मशीनी रूप-रेखा" वाली कोई गाड़ी निकलती - और अपने पीछे गरजते हुए काले काले धुँआ का बवंडर छोड़ते जा रहे थे।
सड़क से उड़ते धूल और पूरे वातावरण में हार्न और गाड़ियों के चीख और चिल्ल्हाट के बीच, सड़क के किनारे एक पेड़ अब भी गर्दन ताने खड़ा था। कोलाहल के बीच, उस पेड़ को देख कर ऐसा लग रहा था, मानो वह अपनी बेबसी पर नीरव रोदन करते करते शायद अब बहरा हो गया था और निर्विकार भाव से खड़ा - "ये ज़िंदगी कुछ भी सही, पर ये मेरे किस काम की" - गा रहा था।
सड़क पर और सड़क के अगल बगल हो रहे गतिविधियों को देख कर यह समझ में नही आ रहा था कि इतनी तत्परता से हो रहे काम के बावजूद हमारा देश विकसित क्यों नहीं हो पा रहा था!
बस से जमशेदपुर से धनबाद तक के सफर के दौरान, आने वाले चार सालों के लिए, रास्ते में पड़ने वाले शहरों से अवगत हो चुका था। पूरे सफर का सामयिक महत्व जो भी हो - विशेषज्ञों के लिए हार या जीत के भावना से ऊपर उठ कर, जो उत्साह सचिन के खेल की बारीकी का विश्लेषण के लिए होता था - पुरुलिया के आगे पड़ने वाले "सिंह ढाबा" का आलू परांठे और खीर खाने का अनुभव- वैसा ही था ।
धनबाद के "बैंक मोड़" पर बस के रुकने से पहले ही दूर से सड़क पर आड़े तिरछे लगे ट्रेक्कर के जमावड़ा सा दिखने लगा था। ट्रेक्कर वाले के विशेष तरीके से विभिन्न योगासन की मुद्रा में रोड को सुशोभित करने का उद्देश्य - बस के वहां रुकने के उम्मीद से था। और, हर रोज़ की तरह, किसी मैराथन की दौड़ को पूरा करने के बाद हाँफते बस ने, आज भी ठीक उसी जगह आकर, पिछले ५-६ घंटे से चल रहे सड़क के साथ हो रहे दंगल को - TKO- Technical Knock Out - के रूप में, ख़त्म कर लिया।
बस के रुकते ही खिड़की से छन कर, तरह तरह के शैली और जोश में - "झरिआ, डिगवाडीह, सिंदरी.... " की आती आवाज़ ने, मेरे आगे के सफर का काम आसान कर दिया था। बस से उतर कर जब तक मैं सम्हलता, सिंदरी जाने वाले ट्रेकर के छत पर, मेरा सूटकेस और बैग रखा जा चुका था। इस से पहले मैं कभी ट्रेक्कर नहीं देखा था - लाज़मी था कि उस से कभी सफर भी नहीं की थी - अतः अपने हिसाब से, मुझे ड्राइवर के पीछे वाले सीट पर बैठना ठीक लगा, और मैं उस पर स्वतः आसीन हो चुका था ।
ट्रेक्कर के अंदर ड्राइवर के स्टीयरिंग व्हील के ठीक बगल वाले जगह पर एक मूर्ति लगी हुयी थी। शिव जी पालथी मार कर बैठे, अपने पीछे त्रिशूल को रखे, जटा से गंगा को प्रस्फुटित कराते, अपनी आँखे को ध्यान के कारण बंद किये हुए थे - और इसी कारण से - सभी को सामान रूप से आशीर्वाद दे रहे थे। मूर्ति देखने के बाद भी अगर किसी को उनका परिचय स्पष्ट न हो पाये, संभवतः शंका समाधान के इस विचार से, स्पष्टीकरण के तौर पर मूर्ति के नीचे - "हर हर महादेव" भी लिखा हुआ था।
अब तक मुझे स्पष्ट नहीं हुआ था कि ड्राइवर का "भगवान में भरोसा" या "भगवान के भरोसे" - इनमे से, कौन सी भावना - ज्यादा प्रबल थी? अलबत्ता गाड़ी के बाहर बड़े बड़े अक्षर से पेंट करके कलात्मक ढंग से, डमरू लगे त्रिशूल के चित्र के मध्य -"शंकर तेरा ही सहारा" -लिखा गया था, जिसके "ही" को परिलक्षित करने के उद्देश्य से, शिव जी को गाड़ी के डैशबोर्ड पर, फेविकोल से हमेशा के लिए चिपका दिया गया था। हर रोज अपनी श्रद्धा दिखाने के झंझट से मुक्ति पाने के उद्देश्य से - रंग बिरंगे प्लास्टिक के बने फूलो के माला को - शिवजी के गले में डाल दिया गया था। इस तरह से शिवजी को हमेशा के लिए आशीर्वाद देने के काम पर लगाकर, वह अपने धंधे पर ज्यादा ध्यान दे पा रहा था। सारांश में, ट्रेक्कर के ड्राइवर का - धर्म और कर्म - दोनों में एक साथ मन लगाने का बोध हो रहा था।
शिवजी के आसन के ठीक नीचे, एक कैसेट प्लेयर जैसी ध्वनि प्रदूषक यन्त्र को लगा कर रखा गया था, जिसमे उस वक़्त - "उई ली ली …उई उईई " जैसे विचित्र आवाज़ निकालते, जीवन के सारांश के उपदेश को देता, -"एक तो कम है जिंदगानी, उस से भी कम है जवानी...प्यार दो, प्यार लो…" - उस समय का एक प्रसिद्द जाबांज़ फिल्म का गाना बज़ रहा था। गाना बजाने का उद्देश्य, संभवतः गाड़ी के अंदर - कैद कर लिए गए यात्रियों- के प्रति संवेदना के भाव से तथा राहत के तौर पर उनके मनोरंजन करने से जुड़ा था। क्योंकि इस वक़्त गाना से बेखबर, ड्राइवर जिराफ की तरह गाड़ी से गर्दन को बाहर निकाले, गिद्ध नज़र लगाये किसी भी चलते फिरते आदमी को - जिसमे चुटकी भर भी कही जाने की संभावना दिख रही थी - वैसे सभी लोगों को देख कर, उत्साहित स्वर में आस पास के शहरों का स्मरण कराते हुए "झरिआ, डिगवाडीह, सिंदरी.... " के मंत्र का, जोर जोर से उच्चारण कर रहा था.… !
इन सब गतिविधियों के बीच मेरी निगाह सड़क के किनारे रुकते बसों से उतरते लोगों में थी। मैं खोज रहा था कि कोई मेरे साथ कॉलेज में एडमिशन लेने वाला और भी दिख जाए। इधर ट्रेक्कर को थोड़ी थोड़ी देर में बिलकुल चल पड़ने वाली स्थिति में दिखा कर, बाहर के यात्रियों को आकर्षित करने और अंदर बैठे गिरफ्त में आये यात्रियों को ढाढस बाँधने के, जैसा कुछ कार्यक्रम चल रहा था।
धनबाद शहर काफी चहल पहल वाला लग रहा था और मेन रोड के इर्द गिर्द जिंदगी पनाह लेती सी लग रही थी। सड़क पर गहन गतिविधियाँ चल रही थी -सभी को जल्दी थी- भाग दौड़ में जिंदगी जैसे कही खो गयी थी।
सड़क पर आते जाते ट्रैफिक में कभी बस, उनके बीच में ट्रेक्कर, शान से चलती लाल बत्ती लगाये जीप, बिना लाल बत्ती वाले दबंग से जीप, निरीह सी दिखती मारुती कार, सफ़ेद सरकारी पर ,कोयले के परत की कालिख लगाये, एम्बेस्डर कार - सब के सब सड़क पर अपना मालिकाना हक़ समझ कर बेतहाशा दौड़ रहे थे। इन सबों के बीच, सड़क के धमनियों में रक्त के बहते से अनगिनत दुपहिए- सब के सब मिलकर सड़क के ट्रैफिक की परिभाषा पूरा कर रहे थे । यदा कदा शेर सरीखे धक धक की हुंकार करके शान से चलती, सड़क पर बाकी निरीह से दिखने वाले दुपहियों के नायक - एनफील्ड मोटरसाइकल-अपने उपर कोई ठेकेदार या रंगदार सा मनुष्य को सवार किये दिख जाते थे। आम तौर पर इन मोटरसाइकल के पीछे भी एक इंसान बैठा दिखता था, जो स्वाभाव और भाव से ही चलाने वाले का अंगरक्षक सा लगता था। ईश्वर में आस्था रखते, अपनी जान को बचाते और सड़क पर अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ते हुए, साईकिल पर और पैदल चलते सामान्य लोग सड़क के किनारे होते होते लगभग सड़का के नीचे उतर गए थे। एक ही सड़क - अलग अलग मंज़िल, अलग अलग गतियाँ, सड़क पर अलग अलग हिस्से पर अपना स्वामित्व बनाये - पर सभी के सभी गतियमान थे!
इधर ट्रेक्कर लगभग भर चुका था पर ड्राइवर अभी भी "लटकने और झूलने वाले" सवारी के प्रतीक्षा में थे।
सड़क के दोनों किनारे, इस तरह से लोग खड़े होकर दूर से आती गाड़ियों को देख रहे थे, जैसे कृष्ण के आने की तैयारी में स्वागत के लिए गोपियाँ खड़े हों! दूर से आ रही गाड़ियों को गौर से देखते हुए -लोग बचपन में पढ़ाये "वेग और दूरी" का उपयोग कर रहे थे और अपने दौड़ने की क्षमता का अांकलन करते हुए - मौका मिलते ही गाड़ियों को चिढ़ाने के अंदाज़ में, दौड़ते हुए रोड के दूसरे तरफ चले आ रहे थे। इस तरह के "सड़क पार करने के कार्यक्रम" में, कभी कभी पूरे परिवार के एक जैसे जिगर और चुस्ती न होने के कारण, कुछ सड़क पार कर जाते तो कुछ लोग सड़क के इस पार ही छूट जाते थे। सड़क पार करने की फिर से हिम्मत जुटाते - एक कदम आगे और दो पीछे करते - फिर से प्रयास कर रहे थे। इनकी सड़क को पार करने की हिमाकत को देख - दूर से आ रहे बस या ट्रक वाले नाराज हो जाते थे - गाड़ी की गति को और बढ़ा देते और मिजाज़ भर के गलियां देते हुए- गगनभेदी हॉर्न को बजा कर उन्हें अपनी औकात बता रहे थे। हॉर्न के कर्कश तेज़ ध्वनि को सुन कर दूसरे ग्रह के निवासी भी सिहर जाते होंगे - परन्तु अक्खड़ सड़क पार करने वाले उसे अनसुना करते, आगे बढ़ते जा रहे थे। सड़क पूंजीपति बने ट्रक और बस वाले की बपौती थी, जो सड़क पार करने वाले सामान्य से लोगो के हिम्मत को, कुचल कर सबक सीखा देने की ठान रखी थी!
अब तक करीब आधे घंटे हो गए थे और हर क्षण ऐसा लगता था कि ट्रेक्कर बस अब चलने ही वाली थी। ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे बरसात के बीच स्टेडियम में बैठे किसी भी पल खेल शुरू होने के प्रतीक्षा में थे। कभी कभी सड़क पर खड़े मेरे ट्रेक्कर के बगल से कोई डम्पर या "मशीनी रूप-रेखा" वाली कोई गाड़ी निकलती - और अपने पीछे गरजते हुए काले काले धुँआ का बवंडर छोड़ते जा रहे थे।
सड़क से उड़ते धूल और पूरे वातावरण में हार्न और गाड़ियों के चीख और चिल्ल्हाट के बीच, सड़क के किनारे एक पेड़ अब भी गर्दन ताने खड़ा था। कोलाहल के बीच, उस पेड़ को देख कर ऐसा लग रहा था, मानो वह अपनी बेबसी पर नीरव रोदन करते करते शायद अब बहरा हो गया था और निर्विकार भाव से खड़ा - "ये ज़िंदगी कुछ भी सही, पर ये मेरे किस काम की" - गा रहा था।
सड़क पर और सड़क के अगल बगल हो रहे गतिविधियों को देख कर यह समझ में नही आ रहा था कि इतनी तत्परता से हो रहे काम के बावजूद हमारा देश विकसित क्यों नहीं हो पा रहा था!
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