धनबाद के बैंक मोड़ पर अभी तक ट्रेक्कर पर बैठे बैठे आगे के सफर की कल्पनाओं में गोते लगते लगाते जब झपकी लेने लगा था कि तभी पीछे वाले ट्रेक्कर ने जोर जोर से हॉर्न मारना शुरू कर दिया - जो हमारे ट्रेक्कर वाले के लिए आगे बढ़ने का इशारा था। ट्रेक्कर को आगे बढ़ते नहीं देख, पीछे वाले ड्राइवर ने, भारत के सबसे ज्यादा उपयोग में आने वाले शब्दों का - जिनका प्रयोग आम भारतीय "अ आ इ ई " सीखने से पहले ही शुरू कर देते हैं- उनके उच्चारण करते हुए, हार्न के करतल ध्वनि के साथ साथ जुगलबंदी शुरू कर दी थी।
पीछे के ट्रेक्कर के छत के ऊपर, एक १०-११ साल का बच्चा, बन्दर की तरह दुबक कर बैठा हुआ था - जो ड्राइवर का हेल्पर था। स्थानीय भाषा में, हेल्पर को "टेनिया" कहा जाता था। फिलहाल टेनिया चीख चीख कर, हमारे ड्राइवर को यह बताने की चेष्टा कर रहा था कि -"संतोषं परमं धनं" का पालन करना चाहिए- यानी हमारे ट्रेक्कर वाले को जितनी सवारी मिल गया था, उसी में संतोष करके उसे आगे बढ़ जाना चाहिए, बाकी सवारी पीछे वाले के लिए भी छोड़ दे।
थोड़ी देर में, ट्रेक्कर ने अपने पूरे हिम्मत को दिखाते हुए, सड़क पर चलने का जौहर दिखा दिया। अभी २ मिनट चल कर गाड़ी ने सांस लेना शुरू ही किया था, कि सामने एक स्कूल जाने वाले उम्र के लड़के को देख कर, धीमी हो गई। परन्तु ट्रेक्कर के पूर्ण विराम आने के पहले ही वह लड़का किसी तरह से ट्रेक्कर पर लटक गया था। उसके प्रयास के सफलीभूत होने का प्रमाण, "टेनिया" ने गाड़ी के छत को जोर जोर से पीटते हुए -"बढ़ा के" ध्वनि अनुमोदन से किया था। सवारी के चढ़ने और उतरने का क्रम इसी तरह से चलता रहा।
धनबाद से आगे आते ही सड़क की हालत बदतर होती चली जा रही थी। सड़क के हर हिस्से में गड्ढे थे और छोटे छोटे गड्ढे के बैर को भूल कर ड्राइवर - जिंदगी के एकसमान भाव में डूबा - गाड़ी को आगे बढाता जा रहा था। बड़े आकार के गहरे गड्ढे आ जाने पर गाड़ी की गति काफी धीमी हो जाती थी और - तैराकी के ब्रेस्ट-स्ट्रोक लेने के अंदाज़ में - गाड़ी गड्ढे में उतर कर, फिर सही सलामत बाहर निकल जाती थी।
थोड़ी देर में ही हम शहर से दूर कोयलों के खदान के बीचो-बीच बसे आबादी से गुज़र रहे थे।टूटे फूटे सड़क के किनारे बसे झुग्गी झोपड़ियों से, गरीबी चीख चीख कर बरबस राह चलते की ध्यान, अपनी ओर खीच रही थी। सड़क के दूसरी ओर, ट्रेक्कर के इंतज़ार में - खड़े, बैठे, अकेले, झुण्ड में, बच्चे, बूढ़े, आदमी, औरत, गेरुआ में, बुरखे में, साफ़ कपड़ों में, गंदे कपड़ों में, स्कूल ड्रेस में, वर्दी में, टोकरी लिए सब्जी बेचने वाले, बोरे के ढेर को लिए, संदूक को लिए, बन्दूक को लिए - जीवन के हर वर्ग और कर्म के लोग - जंगल के सभी प्यासे जानवरों की तरह, एक ही घाट पर, पानी के लिए खड़े थे।
सड़क के किनारे कभी कभी दूर क्षितिज तक बिना किसी पेड़ या हरियाली के समतल वीरान परती सा - जिया जा चुका - जमीन दिखता था। बिना आबादी वाले ऐसे जमीन "ओपन कास्ट कोलफील्ड" थे। गौर से देखने से ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो धरती चीत्कारते हुए कह रही थी कि - इंसान पाने के लिए किस हद तक जा सकता था - पाताल तक खोदे हुए कोयले के खदानों से, धूल की आँधियाँ उड़ती दिख रही थी। इतने देर के सफर में ही, मुझे अपने चेहरे और सिर पर, धूल ही धूल महसूस होने लगा था।
थोड़ी देर में धनबाद के नज़दीक का सबसे बड़ा शहर - झरिया, आ गया था। घनी आबादी वाले झरिया के बाजार के बीच से किसी तरह से सरकते हुए, ट्रेक्कर वापस खुले सड़क पर आ गई थी। सड़क के किनारे, थोड़ी दूरी पर ही, आग से धधकते हुए जलते कोयलों का खान दिखने लगा था। जमीन से उठते धुंए के कारण, सड़क के किनारे देखने से, आधे किलोमीटर के आगे कुछ भी नहीं दिख रहा था। साथ चलने वाले एक जानकार ने बताया कि - "झरिया के कोयले की खदानों में सालों से आग लगी है जो फैलती जा रही है और इसीलिए झरिया के बारे में प्रसिद्द है कि - खोखली जमीन पर डोलती जिंदगी"!!
सड़क के किनारे लोहे के विशाल खम्भों पर लटकते रोप वेज़, पुल्ली और फ्लाई व्हील और उन पर झूलते हुए गतिमान से कुछ बड़े बड़े से वैगन दिख रहे थे, जिन से कोयले को ट्रांसफर किया जा रहा था। बीच बीच में सड़क के किनारे रेल के ट्रैक भी दिखते थे। जब कभी रेलवे ट्रैक सड़क का आलिंगन करते - सड़क उसका स्वागत एक रेलवे फाटक से करता था। बीच बीच में सड़क पर कोयला को लादे डम्पर आक्रमण कर देता था। डम्पर के जाते ही सड़क पर कोयले से रिस रिस के गिरते पानी से - पानी जो वेइिंग ब्रिज पर कोयला के वजन को बढ़ाने के उद्देश्य से शिवलिंग पर, इत्मीनान और भरपूर मात्रा में, जल चढाने के सरीखे डाला जाता था - उस कालिख से सने पानी से, सड़क नहा लेता था और उस पानी पर जमते हुए धूल - जो फिर थोड़ी देर में सूख कर हवा में व्याप्त हो कर अपने जीवन चक्र को कायम रखा था !
रुकते चलते ट्रेक्कर - डिगवाडीह, फूस बंगला, CFRI, भागा, पाथरडीह - को पार करते हुए "चास नाला" को पार कर रही थी।चास नाला में हुए हादसे के बारे में हम बचपन से सुनते आ रहे थे - फिल्म काला-पत्थर इसी हादसे पर आधारित था। हालाँकि फिल्म में कोई नही मरता है परन्तु वास्तव में यहाँ पर हुए दुर्भाग्यपूर्ण हादसे में सैकड़ो मज़दूरों की जान चली गयी थी।
इधर ट्रेक्कर अपनी पूरी लय में चल रही थी क्योंकि पाथरडीह तक आते आते आधे से ज्यादा सवारी उतर चुकी थी। सवारी के उतरते ही, एक तरफ झुकी हुयी ट्रेक्कर, पुनः सीधी होकर तन कर चलने लगी थी। ट्रेक्कर में ,खुदरे में बचे खुचे लोग, अब अर्धनिद्रा अवस्था में थे। तभी अचानक से सड़क के किनारे कुछ लड़कों के एक झुण्ड ने, ट्रेक्कर वाले को इशारा करते हुए, रुकने का आदेश दिया। ट्रेक्कर के रुकते ही, उन लड़को के झुण्ड में से एक ने मुझे देखते हुए और एक दूसरा ट्रेक्कर के दूसरे तरफ से अंदर देखते हुए पूछने लगे - "Any BIT Fresher?" - बाद में ज्ञात हुआ की कैंपस का यह गेट # १ था।
ट्रेक्कर को कैंपस के अंदर भेज दिया गया था।
प्रोफ़ेसर कॉलोनी को पार करते हुए, मैं आगे आने वाली जिंदगी के बारे में अनभिज्ञ सा - जिसकी बागडोर इसी कॉलेज को सौंपने जा रहा था - उसकी शुरुआत में, बिना ये जाने कि मुझे कहाँ जाना है, किधर रुकना है, बस मैं ट्रेक्कर में बैठा बढ़ता ही जा रहा था।
थोड़ी देर बाद सड़क के दोनों किनारे - बहुत सारे खिड़की वाले - इमारत दिखने लगे जो हॉस्टल की तरह दिख रहे थे। ठीक उन इमारतों के सामने सड़क पर कुछ भीड़ सी थी और फिर से कुछ लड़को का एक झुण्ड सा दिखा। उन में से किसी एक ने हाथ से गाड़ी को रुकने का इशारा किया। फिर से वही प्रश्न किया गया और मेरे सकारात्मक उत्तर देने पर, मुझे ट्रेक्कर से उतर जाने का आदेश दिया गया। यह हॉस्टल #१० था।
ट्रेक्कर से उतरने के बाद बड़ी राहत हुई कि आखिरकार मैं BIT के कैंपस तक तो पहुँच गया था। साथ ही इस समय मन में रैगिंग की शुरुआत हो जाने का भय सा भी था। अब तक तो ये समझ में आ ही चुका था कि ये सब कॉलेज के सीनियर्स थे।
आगे क्या हुआ, इसे जानने के लिए पढ़िए अगला अंक....
पीछे के ट्रेक्कर के छत के ऊपर, एक १०-११ साल का बच्चा, बन्दर की तरह दुबक कर बैठा हुआ था - जो ड्राइवर का हेल्पर था। स्थानीय भाषा में, हेल्पर को "टेनिया" कहा जाता था। फिलहाल टेनिया चीख चीख कर, हमारे ड्राइवर को यह बताने की चेष्टा कर रहा था कि -"संतोषं परमं धनं" का पालन करना चाहिए- यानी हमारे ट्रेक्कर वाले को जितनी सवारी मिल गया था, उसी में संतोष करके उसे आगे बढ़ जाना चाहिए, बाकी सवारी पीछे वाले के लिए भी छोड़ दे।
थोड़ी देर में, ट्रेक्कर ने अपने पूरे हिम्मत को दिखाते हुए, सड़क पर चलने का जौहर दिखा दिया। अभी २ मिनट चल कर गाड़ी ने सांस लेना शुरू ही किया था, कि सामने एक स्कूल जाने वाले उम्र के लड़के को देख कर, धीमी हो गई। परन्तु ट्रेक्कर के पूर्ण विराम आने के पहले ही वह लड़का किसी तरह से ट्रेक्कर पर लटक गया था। उसके प्रयास के सफलीभूत होने का प्रमाण, "टेनिया" ने गाड़ी के छत को जोर जोर से पीटते हुए -"बढ़ा के" ध्वनि अनुमोदन से किया था। सवारी के चढ़ने और उतरने का क्रम इसी तरह से चलता रहा।
धनबाद से आगे आते ही सड़क की हालत बदतर होती चली जा रही थी। सड़क के हर हिस्से में गड्ढे थे और छोटे छोटे गड्ढे के बैर को भूल कर ड्राइवर - जिंदगी के एकसमान भाव में डूबा - गाड़ी को आगे बढाता जा रहा था। बड़े आकार के गहरे गड्ढे आ जाने पर गाड़ी की गति काफी धीमी हो जाती थी और - तैराकी के ब्रेस्ट-स्ट्रोक लेने के अंदाज़ में - गाड़ी गड्ढे में उतर कर, फिर सही सलामत बाहर निकल जाती थी।
थोड़ी देर में ही हम शहर से दूर कोयलों के खदान के बीचो-बीच बसे आबादी से गुज़र रहे थे।टूटे फूटे सड़क के किनारे बसे झुग्गी झोपड़ियों से, गरीबी चीख चीख कर बरबस राह चलते की ध्यान, अपनी ओर खीच रही थी। सड़क के दूसरी ओर, ट्रेक्कर के इंतज़ार में - खड़े, बैठे, अकेले, झुण्ड में, बच्चे, बूढ़े, आदमी, औरत, गेरुआ में, बुरखे में, साफ़ कपड़ों में, गंदे कपड़ों में, स्कूल ड्रेस में, वर्दी में, टोकरी लिए सब्जी बेचने वाले, बोरे के ढेर को लिए, संदूक को लिए, बन्दूक को लिए - जीवन के हर वर्ग और कर्म के लोग - जंगल के सभी प्यासे जानवरों की तरह, एक ही घाट पर, पानी के लिए खड़े थे।
सड़क के किनारे कभी कभी दूर क्षितिज तक बिना किसी पेड़ या हरियाली के समतल वीरान परती सा - जिया जा चुका - जमीन दिखता था। बिना आबादी वाले ऐसे जमीन "ओपन कास्ट कोलफील्ड" थे। गौर से देखने से ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो धरती चीत्कारते हुए कह रही थी कि - इंसान पाने के लिए किस हद तक जा सकता था - पाताल तक खोदे हुए कोयले के खदानों से, धूल की आँधियाँ उड़ती दिख रही थी। इतने देर के सफर में ही, मुझे अपने चेहरे और सिर पर, धूल ही धूल महसूस होने लगा था।
थोड़ी देर में धनबाद के नज़दीक का सबसे बड़ा शहर - झरिया, आ गया था। घनी आबादी वाले झरिया के बाजार के बीच से किसी तरह से सरकते हुए, ट्रेक्कर वापस खुले सड़क पर आ गई थी। सड़क के किनारे, थोड़ी दूरी पर ही, आग से धधकते हुए जलते कोयलों का खान दिखने लगा था। जमीन से उठते धुंए के कारण, सड़क के किनारे देखने से, आधे किलोमीटर के आगे कुछ भी नहीं दिख रहा था। साथ चलने वाले एक जानकार ने बताया कि - "झरिया के कोयले की खदानों में सालों से आग लगी है जो फैलती जा रही है और इसीलिए झरिया के बारे में प्रसिद्द है कि - खोखली जमीन पर डोलती जिंदगी"!!
सड़क के किनारे लोहे के विशाल खम्भों पर लटकते रोप वेज़, पुल्ली और फ्लाई व्हील और उन पर झूलते हुए गतिमान से कुछ बड़े बड़े से वैगन दिख रहे थे, जिन से कोयले को ट्रांसफर किया जा रहा था। बीच बीच में सड़क के किनारे रेल के ट्रैक भी दिखते थे। जब कभी रेलवे ट्रैक सड़क का आलिंगन करते - सड़क उसका स्वागत एक रेलवे फाटक से करता था। बीच बीच में सड़क पर कोयला को लादे डम्पर आक्रमण कर देता था। डम्पर के जाते ही सड़क पर कोयले से रिस रिस के गिरते पानी से - पानी जो वेइिंग ब्रिज पर कोयला के वजन को बढ़ाने के उद्देश्य से शिवलिंग पर, इत्मीनान और भरपूर मात्रा में, जल चढाने के सरीखे डाला जाता था - उस कालिख से सने पानी से, सड़क नहा लेता था और उस पानी पर जमते हुए धूल - जो फिर थोड़ी देर में सूख कर हवा में व्याप्त हो कर अपने जीवन चक्र को कायम रखा था !
रुकते चलते ट्रेक्कर - डिगवाडीह, फूस बंगला, CFRI, भागा, पाथरडीह - को पार करते हुए "चास नाला" को पार कर रही थी।चास नाला में हुए हादसे के बारे में हम बचपन से सुनते आ रहे थे - फिल्म काला-पत्थर इसी हादसे पर आधारित था। हालाँकि फिल्म में कोई नही मरता है परन्तु वास्तव में यहाँ पर हुए दुर्भाग्यपूर्ण हादसे में सैकड़ो मज़दूरों की जान चली गयी थी।
इधर ट्रेक्कर अपनी पूरी लय में चल रही थी क्योंकि पाथरडीह तक आते आते आधे से ज्यादा सवारी उतर चुकी थी। सवारी के उतरते ही, एक तरफ झुकी हुयी ट्रेक्कर, पुनः सीधी होकर तन कर चलने लगी थी। ट्रेक्कर में ,खुदरे में बचे खुचे लोग, अब अर्धनिद्रा अवस्था में थे। तभी अचानक से सड़क के किनारे कुछ लड़कों के एक झुण्ड ने, ट्रेक्कर वाले को इशारा करते हुए, रुकने का आदेश दिया। ट्रेक्कर के रुकते ही, उन लड़को के झुण्ड में से एक ने मुझे देखते हुए और एक दूसरा ट्रेक्कर के दूसरे तरफ से अंदर देखते हुए पूछने लगे - "Any BIT Fresher?" - बाद में ज्ञात हुआ की कैंपस का यह गेट # १ था।
ट्रेक्कर को कैंपस के अंदर भेज दिया गया था।
प्रोफ़ेसर कॉलोनी को पार करते हुए, मैं आगे आने वाली जिंदगी के बारे में अनभिज्ञ सा - जिसकी बागडोर इसी कॉलेज को सौंपने जा रहा था - उसकी शुरुआत में, बिना ये जाने कि मुझे कहाँ जाना है, किधर रुकना है, बस मैं ट्रेक्कर में बैठा बढ़ता ही जा रहा था।
थोड़ी देर बाद सड़क के दोनों किनारे - बहुत सारे खिड़की वाले - इमारत दिखने लगे जो हॉस्टल की तरह दिख रहे थे। ठीक उन इमारतों के सामने सड़क पर कुछ भीड़ सी थी और फिर से कुछ लड़को का एक झुण्ड सा दिखा। उन में से किसी एक ने हाथ से गाड़ी को रुकने का इशारा किया। फिर से वही प्रश्न किया गया और मेरे सकारात्मक उत्तर देने पर, मुझे ट्रेक्कर से उतर जाने का आदेश दिया गया। यह हॉस्टल #१० था।
ट्रेक्कर से उतरने के बाद बड़ी राहत हुई कि आखिरकार मैं BIT के कैंपस तक तो पहुँच गया था। साथ ही इस समय मन में रैगिंग की शुरुआत हो जाने का भय सा भी था। अब तक तो ये समझ में आ ही चुका था कि ये सब कॉलेज के सीनियर्स थे।
आगे क्या हुआ, इसे जानने के लिए पढ़िए अगला अंक....
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