Bihar Institute Technology, अर्थात- बिहार प्रौद्योगिकी संस्थान- के कैंपस के अंदर आते ही हॉस्टल # १० के पास ट्रेक्कर को रोक कर हमें हॉस्टल के अंदर जाने का निर्देश दिया गया था। अंदर का माहौल कुछ रेलवे प्लेटफार्म पर प्रतीक्षा करते यात्रियों सा था। ट्रेन लग चुकी थी। सबों को उसी पर सवार होना था। पर अब तक डिब्बों पर आरक्षण तालिका नहीं लगी थी- जिस कारण - अब तक किसी को ये नहीं पता था कि कौन किस डिब्बे में जाने वाले थे। मेरे जैसे बाकी नव आगंतुक, अंदर हॉस्टल में चारों ओर अलग अलग कमरे में, किस्तों में बंटे हुए और बिखरे से पड़े थे। किसी को कुछ ख़ास पता नहीं था कि आगे क्या होने वाला था। सभी सहमे सहमे से - "वहां कौन है तेरा मुसाफिर जाएगा कहाँ, दम ले ले घड़ी भर ये छैयां पायेगा कहाँ " - की भावना से एक चौराहे पर खड़े थे और आगे किस राह को लेना है, इस सोच में पड़े से थे। समय काटने और सामाजिक प्राणी के गुणों का निर्वाह करते हुए, एक दुसरे को पुरातत्व की भावना से खोद रहे थे और जो भी तथ्य हाथ लग रहे थे उन "keywords" से "गूगल" करके उनके longitude और latitude - अर्थात - किस जगह से, किस कॉलेज से, इत्यादि जैसी जानकारी का आदान प्रदान कर रहे थे। आने वाले दिनों में बनने वाली  - '86 बैच आवर्त सारणी (Periodic Table) के, सभी तत्वों(elements) से - हमारी पहली मुलाकात हो रही थी।

अपने सामान को कमरे में एक लॉकर  में रखने के बाद, हम सभी - चींटी की तरह - जिधर बाकी जा रहे थे, उनके पीछे-पीछे निकल पड़े। हम सभी जरुरत के सर्टिफिकेट और दस्तावेजों को साथ लेकर निकले थे। सभी का लक्ष्य -"एडमिनिस्ट्रेटिव ब्लॉक" की ओर पहुँचने का था, जहाँ पहुँच कर BIT में एडमिशन की बाकी बची कार्यवाही को पूरा करने की औपचारिकता करनी थी।

हम में से ज्यादातर लोग अपने लक्ष्य तक पहुँचने के प्रयास में प्रयत्नशील थे। पर मंज़िल के मिलने से पहले ही, कुछ सीनियर्स ने हमें रोक लिया और DPA के सामने बने बड़े से गोलचक्कर के पास हमसे कुछ विेशेष वार्तालाप की शुरुआत हुई। ऐसा प्रतीत हो रहा था कि वे सभी "अग्रज" प्रजाति के थे और  "भाईचारे के भावना" से ओत प्रोत थे, इसलिए उनके मन में हमारे बारे में जानने की प्रबल इच्छा जागृत हो गयी थी।

साधु सरीखे अग्रजों में से एक अति उत्साहित एवं जन-ज्ञान पिपासु सीनियर, मेरी ओर प्रस्तुत हुए और उनके तीन जिज्ञासा-युक्त प्रश्नामृत निम्न थे :
उक्ति # १ - "क्यों बे हीरो, अपना पूरा इंट्रोडक्शन दे?"
उक्ति # २ - "जिस कॉलेज में पढ़ने आये हो, उसका नाम हिंदी में बताओ?"
उक्ति # ३ - "गलत, जिस कॉलेज में अगला चार साल पढोगे उसका नाम तक नहीं पता? ये सभी सामान इधर रख कर" - फिर सामने गोशाला के तरफ के गेट को दिखाते हुए - "सीधे उधर जाओ जहाँ गेट के बाहर हिंदी में नाम लिखा है, उसे देखो, याद करो और फिर इधर वापस आकर मुझे बताओ…"

उक्ति#३ में,  मेरे लिए उनके आज्ञा का पालन करने के सिवा, कोई और चारा भी तो नहीं था।  अतः मैं जैसे ही निर्गत हो कर मिल्खा की आत्मा को अपने शरीर में प्रविष्ट करते हुए श्वेत शशक शावक की तरह धावक बन पाता, संत सरीखे - अग्रज ने मेरे समक्ष एक व्यवधान डाल दी, और मुझे वापस बुला कर मेरे सारे कागज़ातों के फोल्डर के भार से मुझे मुक्त करने के जैसा स्नेहपूर्ण कार्य को संपन्न कर दिए। कैंपस के ठीक बाहर - गोशाला मेन गेट के ऊपर- हिंदी में लिखे कॉलेज के नाम को पढ़ कर लौटने लगा था कि रास्ते में, अन्य साधु सरीखे अग्रजों से भी मेरी वार्तालाप शुरू हो गयी।

इस तरह के प्रेम और सहिष्णुता भरे वातावरण में अचानक से ख्याल आया कि प्रथम संत पुरुष, जो मेरे दस्तावेजों के फोल्डर का भार उठाने का कष्टप्रद कार्य को संपन्न कर रहे थे, वे अब दृष्टिगोचर हो गए थे। हठात मेरे मन में यह विचार आया कि प्रेम भाव में डूब कर, मुझे तो इस बात का स्मरण ही नहीं रहा था - कि उस महापुरुष का शुभ नाम तक पूछ पाता। फलस्वरूप नाम के आभाव में, अब मुझे उस महापुरुष के बारे में, किसी से भी पूछते नहीं बन पा रहा था।

कुल मिला कर मैं अब एक ऐसे समस्या में फंस गया था जिसका हल बहुत जटिल था।

करीब २-३ घंटे तक तरह तरह के सीनियर्स के प्रश्नोत्तरी के दौर से - जिसे आम भाषा में "रैगिंग" कहा जाता है - गुजरता रहा पर फिर भी उस संत सरीखे महापुरुष का, जिन्होंने मेरे कागज़ातों को अपने साथ रखा हुआ था, अभी तक कही दर्शन नहीं हो पा रहा था।

अब करीब दोपहर के २ बज चुके थे। अब तक मैं काफी थक गया था। अपने ऊपर खीझता और दुखी होता - मैं अंततः अंदर से टूट गया था। अब तक इस बात का पूरी तरह से एहसास हो चुका था कि मैं एक ऐसे अजीबोगरीब संकट में फंस चुका था, जिसका कोई सामान्य समाधान नहीं था - बल्कि किसी चमत्कार की ही जरुरत सी थी । मेरे अंदर के विद्यमान बुद्धि - पेरे जा चुके गन्ने की तरह हो चुका था, जिसे और कितनी बार भी मरोड़ा जाए तो - समस्या के निदान का - कोई रस निकलने की अब सम्भावना नहीं बची थी। अब अगर ऊपर से कोई सेब गिरे, तो कोई न्यूटन की आत्मा अपनी -out of the box - सोच के बल्ब को जला कर, मार्ग को प्रशश्त कर दे। इसी उम्मीद के - "दीपक" - को,  "मुसीबत के आंधी के झोंके" से बचाता, मैं उधर ही -एडमिनिस्ट्रेटिव ब्लॉक - के एक कोने में जाकर, चुपचाप से जमीन पर बैठ गया।

मुझे इतनी बुरी तरह से दुखी, एक कोने में जमीन पर बैठा देख कर, उधर से गुज़रते एक सीनियर की मुझ पर नज़र पड़ गयी। शायद वह फाइनल ईयर के थे और उन्हें मेरी पूरी हालत को समझते देर नहीं लगी। पूरी समस्या को समझने के बाद उन्होंने मुझे सांत्वना देते हुए, सब कुछ ठीक हो जाने का, आश्वासन दिया। फिर बड़े अनपेक्षित ढंग से पूछा कि- "मैं अब तक कुछ खाया था या नहीं?"

अपने साथ वे मुझे बी-जोन के हॉस्टल #१६ में ले गए और अपने कमरे में बिठा कर मेरे लिए भोजन की व्यवस्था करवाया। जिस सीनियर को मैंने कागज़ात दिए थे, उसका हुलिया और कहाँ मिले थे इन सब तरह के -ख़ुफ़िया जानकारी- इकठ्ठा करने के बाद, मुझे अपने कमरे में आराम करने को कहते, वे मेरे कागज़ातों को तलाशने निकल पड़े।

उस अनजान सीनियर के कमरे में, मैं सहमा सा बैठा, हर घड़ी इस खौफ में था कि अचानक से उस हॉस्टल के बाकी सीनियर्स भी कहीं मेरी रैगिंग न शुरू कर दे- आखिरकार, मैं बिलकुल शेर के मांद - फाइनल ईयर के हॉस्टल -  में पनाह जो ले रहा था!

इस असमंजस वाली स्थिति में थोड़ी ही देर में, कमरे में एक दस्तक पडी और डरते डरते जब मैं दरवाज़े को खोला तो देखा कि कमरे वाले सीनियर  वापस आ चुके थे और अपने साथ उनके दो-तीन साथी भी थे। जब तक मैं कुछ रैगिंग के बारे में सोचता, उन्होंने मुझे सारे कागज़ात दिखाते कहा कि मैं एक बार ठीक से देख लूँ कि सभी कुछ सही सलामत था या नहीं? मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा, फिर मुझे तुरंत साथ चलने को कहा और मैं उनके साथ एडमिनिस्ट्रेटिव ब्लॉक की ओर चल पड़ा।

 अंततः मेरी एडमिशन की पूरी प्रक्रिया संपन्न हो गई। तत्पश्चात, मुझे अपने साथ वे मुझे सही सलामत हॉस्टल #१० के अंदर तक छोड़ गए। आने वाले दिनों में कोई भी दिक्कत हो, तो बेझिझक उनके कमरे आ जाने का निर्देश देते हुए, वे सभी चले गए।

जल्द ही समझ में आ गया कि कॉलेज में लोग बुरे नहीं थे पर शायद कुछ ऊँच-नीच हर जगह हो जाती है। हालांकि मैं उन सीनियर्स को कभी धन्यवाद नहीं दे पाया, पर शायद इस ब्लॉग के माध्यम से, मैं उनको अपनी कृतज्ञता और आभार प्रकट कर पाँऊ- वाकई वे सब बहुत संवेदनशील इंसान थे। मैं उन्हें कभी नहीं भूल पाउँगा क्योंकि उस दिन उनका मिलना - किसी प्यासे को मरूद्यान मिलने की तरह था। किसी परिवार के मुखिया की तरह, बड़ी संजीदगी से, उन्होंने मुझे BIT परिवार से जोड़ा था।

इसके बाद मैं वापस हॉस्टल # १० के कमरे -२३ में आ गया था, जहाँ पहले से ही तीन में से एक- अपने टेबल पर बैठ कुछ पढाई या चिट्ठी लिखने के काम में व्यस्त सा था- और बाकी अपने सबसे प्राकृतिक रूप में थे - अर्थात सो रहे थे ।

इतने सारे लोगो से आपस में मिलना जुलना और फिर जीवन के एक नए अध्याय की शुरुआत कुछ इस तरह से हुई - जैसे जग के पानी में सभी सामग्रियों के हिलते रहने के बाद, धीरे धीरे वे अपने अपने भार के अनुसार तलछटे में बैठते चले जा रहे थे। शुरुआत के दिनों में तो हर कमरे के साथियों के आपस में मिलने का सिलसिला - तत्पश्चात जिसका जिससे मन मिलने लगा - वैसे समूह बनने का सिलसिला चालू हो गया। कारवां बनते गए और काफिला चलता रहा....