बचपन में मेरे पास एक मिटटी का बना हुआ गुल्लक था।  जब भी मुझे कही से कोई सा भी खुदरा सिक्का मिल जाता, मैं उसमें डाल दिया करता था। समय बीतता चला गया और मैं गुल्लक को बिलकुल भूल सा गया था। घर में कोने के एक शेल्फ पर बरसों से वह धूल खाते पड़ा रहा।

ज़िंदगी अपनी पूरी रफ़्तार से आगे और बहुत आगे निकल गयी - इस बात से बिलकुल बेफिक्र की उस गुल्लक का क्या हुआ। फिर एक दिन जब ज़िंदगी जरा थक सी गई , और सुस्ताने लगी,  तो ख्याल आया कि उस गुल्लक को तोड़ के देखा जाए कि आखिर उनमें कितने सिक्के हैं? और जब उसे तोड़ा, तो पाया की उसके अंदर ऐसे सिक्के मिले जो अब बाजार में नहीं चल सकते थे। सिक्के पुराने नही हुए थे - या हो गए थे?

फिर मैंने हर एक सिक्के को गौर से देखा - अल्बम के किसी पुराने पीली पडी तस्वीर सी - आज के रंगीन जमाने के सामने बेरौनक सी-  पर जब भी देखो - मूक तस्वीरें बहुत कुछ कहती सी!  मेरे अतीत से H 2 O की तरह जुड़े से । बाजार का तो पता नहीं, पर मेरे लिए, वे सभी सिक्के तो अब एक बेशकीमती धरोहर से बन गए थे।  हरेक सिक्के, जुगनू बन कर, बीते क्षणों की यादों को टिमटिमाते और भीनी भीनी खुशबू लिए से! पुराने, पर सिक्कों की खनखनाहट में अब भी वही ताज़गी, ज़िंदगी जिसे सुनकर गुलज़ार के लिखे वो गीत गा उठती -

"उम्र कब की बरस के सफ़ेद हो गयी, कारी बदरी जवानी की छँटती नहीं,  थोड़ा कच्चा है जी, दिल तो बच्चा है जी"

गुल्लक में रखे सिक्कों की तरह, BIT के कैंपस में बिताये वो हरेक पल, हमारे अंदर…कही बहुत अंदर तक …गहरी पैठ बना चुकी है। जैसे जैसे दिन गुज़रते जा रहे हैं, वे और बेशकीमती बनते जा रहे हैं।  

BIT के दिनों को याद करता हूँ तो, समय के उस पड़ाव में खो जाता हूँ - जब स्वच्छंद पक्षी की तरह जिंदगी के आकाश में हम जितनी मर्ज़ी उतनी उड़ान लगाया करते थे -जिस से चाहे बेबाक बात कर लेते थे - जब हर कोई एक सा था  - जब जीवन में कोई बेचैनी नहीं थे - समय का आभाव नहीं था - कोई प्रतिबद्धता नहीं थी - ज़िंदगी कोई रेस नहीं थी- ज़िंदगी कैलेंडर, मीटिंग, शेड्युल, प्रेजेंटेशन के बंधन में जकड़ी सी नहीं - बल्कि उन्मुक्त होकर मचलती से- इतराती सी- कैंपस के इस कोने से उस कोने तक दौड़ लगती सी - कहीं भी, कभी भी, किसी के साथ, बस इकट्ठे हो जाते, और फिर शुरू हो जाता था घंटों तक हंसी-मज़ाक का दौर!

रिश्तों की एक ऐसी नींव पडी कि आज भी जब हम मिलते हैं, तो समय का अंतराल कही सिमट के रह जाता है - हम बेझिझक एक दुसरे को अपना समझ कर जो मर्ज़ी बोल देते हैं - और सुनने वाला भी उन सभी बातों को सुन कर हँसता- हँसता - पर कही अंदर पुराने दिनों की याद - शीशे की दीवार सी - देख सकते हैं पर छू  नहीं सकते- उन दिनों में वापस नहीं जा सकते - और ये भावना हर किसी को कुरेद कर भावुक सा बना देता है!

आइये समय के उस पड़ाव में फिर से खो जाये… एक बार समय के चक्र को वापस घुमा दे … Welcome back to 1986 -90 !!

हम में से हर कोई मार्च १९८६ के आस पास बिहार संयुक्त प्रवेश परीक्षा देने गए थे। दो दिनों तक चलने वाले प्रवेश परीक्षा के लिए हर किसी को किसी दूसरे शहर में जाना पड़ा था। ये समय का वह दौर था, जब यातायात के साधन सीमित थे और एक जगह से दुसरे जगह जाना आसान नहीं था - रहने के लिए होटल के आभाव में हर किसी को धर्मशाला, मंदिर, गुरूद्वारे, किसी परिचित, परिचित के परिचित के घर …न जाने किस तरह से व्यवस्था की गयी थी । टेलीफोन या किसी और संपर्क के आभाव में, कल्पना कीजिये कि हम में से हरेक छात्र के लिए, परीक्षा देने का प्रयास कितना विषमता से भरा अनुभव रहा होगा - कोई सुदूर बिहार के किसी गाँव से शायद पहली बार रांची या जमशेदपुर जैसे शहर में, तो दुसरी ओर कोई शहर के अंग्रेज़ी माध्यम में पढ़ने वाले सारे सुख सुविधाओं को छोड़ कर किसी उत्तरी बिहार के शहर में पहली बार। प्रवेश परीक्षा कोई बहुत आसान सोपान नहीं था - हज़ारों छात्रों ने किस्मत आजमाया था और उनमे से करीबन १५०० सफल हुए थे।

करीबन ५ महीने के लम्बे अंतराल के बाद प्रवेश परीक्षा का रिजल्ट आया और अगस्त के पहले हफ्ते हम सभी MIT, मुजफ्फरपुर में साक्षात्कार - Counselling के लिए आये थे, जहाँ हम में से हर किसी ने सिंदरी को अपना विकल्प चुना। दो-तीन हफ्ते के अंतराल में -संभवतः १८ अगस्त, १९८६ को - हर कोई जीवन के एक नए सफर का प्रारम्भ करने, अलग अलग तरीके से धनबाद पहुँच गए।  इसके पश्चात, अलग अलग उपवन से एकत्रित हुए, विभिन्न प्रकार के पुष्प - साथ मिलकर '1986 बैच का माला' बनने को तैयार थे ।

करीब एक घंटे का धनबाद से सिंदरी का सफर, सबों के लिए एक सा नया अनुभव था।  सड़क के दोनों ओर कोयले के खदानों के बीच से होते हुए - झरिया, डिगवाडीह, भागा, पाथरडीह, चासनाला को पार करते हुए, ट्रेक्कर BIT कैम्पस में गेट # 1  से प्रविष्ट हो गई। प्रोफेसर कॉलोनी के बगल से होते हुए हम सभी हॉस्टल #9, 10 और 11 के आस-पास ट्रेक्कर से उतर गए थे।  रोमांच, भय, गर्व, प्रसन्नता और संतुष्टि के मिश्रण के साथ हम सभी एडमिन ब्लॉक की ओर चल पड़े थे जहाँ कॉलेज के दाखिला की अंतिम औपचारिकता पूरी करनी थी।

आने वाले दिन बहुत तरह के संघर्ष और चुनौती लिए थे। शुरुआत हुई - हॉस्टल के कमरे में अपने रूम-मेट्स के प्रथम मिलन से - अगले एक साल तक चार अपरिचितों का साथ - फिर मेस के खाने से सामंजस्य स्थापित करना। अगले दिन से इस नए वातावरण में, सबों को सुबह एक ही समय पर तैयार होकर,  मेस में खाते हुए समय से क्लास तक पहुंचने का क्रम - आज भी रोंगटे खड़ा कर देता है!  कॉलेज का पाठ्यक्रम आसान नहीं था, और साथ में वर्क-शॉप - आने वाले इंजीनियर के जीवन की एक झलक दिखता सा - खास कर फिटिंग और फाइलिंग के दौरान पड़े हाथ के छाले - आज भी शुरुआत के दिनों के संघर्ष की याद को बिलकुल ताज़ा कर देता है ।

धीरे-धीरे पूरा हॉस्टल एक बड़ा परिवार सा बन गया था। एक दुसरे से वाकिफ होने के क्रम में पता चला कि - हरेक की एक अपनी कहानी थी।  एक दुसरे से काफी जुदा और उतनी ही रोचक- कई लोगों की संघर्ष की कहानियां अत्यधिक प्रेरक थी तो कई की कहानियां बहुत मार्मिक व मर्मस्पर्शी। और कई ऐसे भी थे, जो भारत के सबसे बेहतरीन स्कूल या परिवेश से आये थे। पर BIT में आने के बाद, सब एक परिवार के हिस्सा बन गए थे - साथ साथ हॉस्टल में रहते हुए , एक साथ मेस में खाते, हॉस्टल और कॉलेज के एक ही जैसे सुविधाओं में आगे बढ़ते हुए, सभी एक ही सफर को जारी रखे हुए थे!

BIT के दिनों को अब जरा फ़ास्ट फॉरवर्ड मोड में देखते हैं - हरेक हफ्ते डीपीए में देखे सिनेमा का उत्साह। मेहता स्टोर से 'जर्नल कवर' लेना - और चेंज नहीं होने पर - मेहता अंकल के दिए टॉफियां। कामेश्वर ढाबा के समोसा, जलेबी और चाय। कैंटीन के सफ़ेद रसगुल्ले और गुलाब जामुन। कुदरूस के ढाबा का चिकेन, सत्तू पराठे और पायस। आये दिन हॉस्टल के मेस बंद होने पर गोशाला मेन गेट पर तपन, दुबे, हुज़ूर और अन्य तरह के ढाबों का सहारा। आर्ट्स क्लब का स्वर संध्या। रोट्रैक्ट क्लब का आई कैंप। लियो का फ्रेशर ऑफ़ थे इयर कांटेस्ट। गांधी रचनात्मक समिति का पुस्तकालय। राष्ट्रभाषा परिषद का just a minute -JAM। फोटोग्राफी क्लब के डार्क रूम में सिल्वर नाइट्रेट से अँधेरे में तस्वीर को निकलते देखना। मॉडल क्लब का दिमागी तंदरुस्ती का परिचय।Gym के सामने के मैदान में होते वार्षिक एथेलेटिक्स - फुटबॉल, क्रिकेट, कबड्डी के मैच। सिविल बिल्डिंग के C -21 में होते बैडमिंटन के मैच- खास कर रांची विश्वविद्यालय का वह फाइनल मैच। अनेको प्रकार के विद्वान प्रोफेसर्स- हर स्वभाव के - कड़े, सौम्य, हंसमुख, क्रूर - दयालु (नंबर देने के मामले में)। वर्कशॉप और लैब के अनेकों असिस्टेंट्स - जिनके माध्यम से - भविष्य में असल इन्जिनीरिंग के क्षेत्र में होने वाले काम की एक झलक दिखी थी। कंप्यूटर लैब का, नहा धोकर, जूता उतार कर किया भ्रमण और हाथों से लिखे FORTRAN 77 के प्रोग्राम। एडमिन ब्लॉक में बसा एक छोट मोटा पटना सचिवालय सा सरकारी माहौल - जहाँ से No -Dues और Provisional Degree Certificate(PDC) निकलवाने का चुटीला सा अनुभव…… अपने यादों के बाढ़ को कहाँ तक बहने दूँ  - सच, यादें ऊन के गुच्छों की तरह होती हैं - एक बार लुढक जाए तो बस उलझती ही जाती है....!

BIT के पहले तीन साल के गुजरने का एहसास ही नहीं हुआ - इतने दिनों के खट्टे मीठे अनुभवों को साथ लिए, अब हम यथार्थ के संसार को दस्तक दे रहे थे। अनेक सारे कंपनियों में नौकरी पाने के लिए होने वाले परीक्षाओं में बैठने के लिए - कभी पटना, कभी कलकत्ता तो कभी दिल्ली - हम सभी इकट्ठे ही जाते थे। अब सामूहिक "चरैवेति चरैवेति" से "एकला चलो रे" का दौर आ गया था। BIT के घोंसले से उड़ कर लम्बे सफर की उड़ान लेने का समय आ गया।

फिर सितम्बर 1990 को सभी अपने अपने गंतव्य की ओर निकल गए। हर कई अलग अलग दिशाओं में और अलग अलग फासले को तय करते अपने नए जीवन के सागर में गोते लगाते खो गए थे। एक लम्बे दौर तक सभी एक दुसरे से बेखबर अपनी अपनी धुन में लगे हुए थे - सफर तो चलता ही रहता पर अपने एक प्यारे साथी - बाल मुकुंद तिवारी - के खो जाने के बाद - यकीनन हम में से हर कोई हक्का बक्का रह गया और मायूस हो कर हम सभी वापस एक दुसरे से फिर से संपर्क बनाने लगे थे। जब तक सम्हलते - ४ साल के बाद एक और साथी - प्रदीप चौधरी - के जाने का हमें इतना सदमा हुआ कि - अंदर से हर किसी को आज तक यकीन ही नहीं होता है कि - बालू और दीपू अब इस दुनिया में नहीं रहे! ईश्वर उन दिवंगत आत्माओं को चिर शांति प्रदान करें, जहाँ कहीं से वे देख रहे होंगे - हमारी हर बातों को सुन कर हंस रहें होंगे!

इधर पिछले साल भर से वॉट्सएप्प का प्रादुर्भाव हुआ और हमें पता चला कि हमारे सभी साथी अब - "स्मार्ट" फोन लेने को विवश हो गए हैं  - परन्तु इस नए तकनीक ने हमारे बैच में एक क्रन्तिकारी परिवर्तन ला दिया। सभी फिर से दुनिया के हर कोने से जुड़ गए और शायद ही कोई दिन ऐसा होता होगा जब सभी दोस्त आपस में पुराने दिनों को याद नहीं करते होंगे! ब्रिटिश साम्राज्य के बारे में कहा जाता था कि उनके राज में कभी सूर्यास्त नहीं होता था - हमारे वॉट्सएप्प ग्रुप का लगभग वही हाल है - अमेरिका, कनाडा, कज़किस्तान, ब्रिटेन,मिस्त्र - Egypt, वेनेज़ुएला और अनगिनत देशो के साथ भारत के लगभग हर कोने में फैले 1986 बैच अनेकों कामयाबी के झंडे गाड़ चुके हैं।

कैंपस से निकल कर २५ साल के लम्बे सफर को तय करने के बाद, हर कोई एक बात जरूर मानता है कि - इमारत कितनी भी ऊंची बनी हो, नींव BIT में ही पड़ा था - जहाँ हमारे बैच में हर किसी को, पढाई के आलावा अनेक प्रकार के विषमताओं के बीच रहने की प्रेरणा, सहजता, और लड़ने का हौसला मिला था - यह एक ऐसा सफलता का मन्त्र है जो हम में से हर किसी को भीड़ से अलग कर देता है ।

देखते देखते 1986 बैच को कॉलेज से निकले 25 साल हो गए- इस दरम्यान दुनियां कहाँ से कहाँ पहुँच गयी - 1990 में मोबाईल फोन पर बात नहीं होती थी  - पीसीओ के क़तार में घंटो इंतज़ार करना पड़ता था, फ़ोन से वीडियो बना कर फ़ोन से ही MMS भेजना तो दूर, फोटो खीचने के लिए कैमरे में फिल्म के रील को डालना पड़ता था और अंदर बंद फोटो में - आँखें बंद आयी थी या खुली थी - इसे देखने के लिए हफ्ते भर इंतज़ार करना पड़ता था और वीडियो बनने के लिए तो किसी शादी का ही इंतज़ार करना पड़ता था ! 1990 के बाद विश्व में ३४ नए देश बन गए हैं, भारत में इस दौरान ९ प्रधानमंत्री बने और तो और बिहार के विभाजन के बाद झारखण्ड अलग राज्य बन गया - जिस कारण BIT सिंदरी का नाम भी बदलना पड़ा।

पर इतने बदलाव के बाद भी  आपस के और कॉलेज से हमारे रिश्ते वही हैं - क्योंकि इनकी नींव बहुत गहरी हैं और वह इन सभी बदलावों से परे हैं। BIT के बाकी बैच से 1986 बहुत अलग था - ऐसा हम में से हर किसी का मानना है! यकीन करें, ये एक एहसास है - दिखा नहीं सकते - पर BIT 86 में हम सभी इसे हर रोज़, हर पल महसूस करते हैं !