BIT के दौरान कैंपस में अनेक तरह के लोग मिले थे पर कुछ ख़ास तरह के व्यकितत्व थे, जाने अनजाने यादों के झरोखे को जब भी खोलता हूँ बरबस इनकी यादें आंखो मे तैरने लगता है :

'बी' जोन के हॉस्टल १६ के मेन गेट से अंदर घुसते ही दाहिने और एक स्टोर हुआ करता था जो एक तरह से 'ए' जोन के मेहता स्टोर का एक पर्याय जैसा था। उस स्टोर में हर तरह के रोज़मर्रा की सामान मिलती थी जो 'बी' जोन के सभी हॉस्टल में रहने वाले के जरूरत आ सकती थी। आम तौर पर सेशनल के जर्नल कवर सबों के लिए एक अनिवार्य आवश्यकता सी थी और वो यहाँ मिलता था। "टोपोलॉजी" के लिए आवश्यक टी स्क्वायर, इंजीनियरिंग ड्राफ्टिंग पेपर, एच, २-एच, एच बी से लेकर जापानी तकनीक से बनी लीड वाली, हर तरह के पेंसिल के प्रकार वहाँ मिलते थे। उस जमाने के हिसाब से प्रचलित तरह तरह के जिल्द लगे हुए नोट बुक भी वहां बिकता था।  


नोट बुक के जिल्द पर वैसे सभी विषयों के तस्वीरें होती थी जो मन को सदैव लालायित करता रहे कि जीवन में पढाई से हट के भी बहुत कुछ और करने को है। ज्यादातर किसी पसन्दीदा क्रिकेट खिलाड़ी, स्विट्ज़रलैंड या ऐसे ही किसी खूबसूरत जगह ,तोता, बाज़, मोर या कोई और पक्षी, किसी खूबसूरत प्रसिद्ध अभिनेत्री, बिलकुल एंग्री यंग मैन अमिताभ बच्चन या किसी और अभिनेता के चित्रों का प्रचलन होता था।  

कुछ लोगों की भावना ऐसी भी होती थी कि कहीं इन सब से मन विचलित न हो जाए और पढाई की एकाग्रता भंग न हो जाए तदानुसार उन लोगो के लिए जिल्द पर वीणा पकड़े हंस के साथ वाली सरस्वती माँ वाले नोट बुक भी उपलब्ध होते थे। जो सरस्वती जी के कृपा के कोप भाजक थे, वे परम परमेश्वर के दूसरे रूप जैसे हनुमान जी या मनोकामना पूरी करने वाले किसी और देवी देवता के जिल्द पर बने चित्र वाले नोट बुक की तरफ आस्था प्रकट करते थे। 

कुल मिला कर चयन करने वाला कैसी जिल्द वाली नोट बुक खरीदता था, काफी हद तक वह उसके मानसिक स्थिति का द्योतक होता था। 

स्टोर में खाने के भी तरह तरह के सामान मिलते थे। मगर इन सब चीज़ों से दूर, जिस कारण से स्टोर चलता था, उसका कारण था, वहां सिगरेट का मिलना और वह भी देर रात को भी। मैं भी उन दिनों सिगरेट बहुत पीता था और इस सेवा का बहुत शुक्रगुजार था कि जब देर रात गोशाला के दूकान बंद हो जाते थे ऐसे में रात को इस स्टोर को खुलवाने के अलावा और कोई अच्छा विकल्प नहीं हुआ करता था - मेस सर्वेन्ट्स को जगा कर उनके बीड़ी पीना बहुत घटिया अनुभव होता था।

मुझे आज भी वो हरेक क्षण याद है जब मैं पहली बार उस स्टोर में गया था। एक बुज़ुर्ग जिनके सर पर जो कुछ भी बचे खुचे बिलकुल बर्फ की तरह उजले बाल थे, वो लगता था मानो पिघल पिघल कर उनके होंठों के ऊपर घनी मूंछों और फुले हुए गोल गोल गालों पर कुछ बेतरतीब बड़ी दाढ़ियों में आ कर सिमट कर जम सा गया था। उनके गोल चेहरे पर बड़ी बड़ी आँखें ऐसा प्रतीत कराता था जैसे कोई शांत सागर हो जिसने अनेको प्रलय, सुनामी और गोताखोरों के कारनामे को देख कर अपने अंदर कई राजों को सिमटे मानो हमसे ये पूछ रहा था कि "बच्चे जिंदगी की तो अभी शुरुआत है , है दम ख़म मेरे उम्र में ऐसे जीने की?" उसके चेहरे से बड़ी मुश्किल से जब नज़र हटी तो देखा की वह खादी के बने एक खुले हाथ वाला कुरता और धोती पहने ऐसा लग रहे थे जैसे कोई पुराने जमाने का स्वतंत्रता सेनानी हो.

हम देर रात को स्टोर को खुलवाये थे और "बाबा" जिस नाम से उन्हें सब पुकारा करते थे वो सो रहे थे और उनको उठना पड़ा था। इस कारण वे बिलकुल सुस्त मगर आज्ञा सुन कर "जो हुकुम मेरे आका" की तरह दूकान पर आये हॉस्टल के छात्रों के हरेक आज्ञा को बस पूरा किये जा रहे थे। थोड़ी देर बाद टिड्डे की झुण्ड की तरह आये सभी लड़के जब निकलने लगे तो उनके साथ साथ बाबा भी दूकान के बाहर तक आ गये और ऐसा लगा मानो हमें वो विदा कर रहे थे, ये बात हमें तब समझ में आयी जब हमारे निकलते ही उन्होंने तत्क्षण स्टोर को बंद कर दिया।

मुझे बड़ी दिलचस्पी हुई की बाबा के बारे में मैं और जानूँ। उनकी शख्शियत जितना दिखता था उसे से जरूर कही ज्यादा होगा, ऐसा मेरा पूर्ण विश्वास था। एक दिन दोपहर के समय मैं स्टोर में गया तो देखा कि स्टोर बिलकुल खाली था और बाबा स्टोर में नहीं थे बल्कि स्टोर के अंदर एक लड़का खड़ा था। पूछने पर जवाब मिला की वे बाथरूम गए थे। मुझे बड़ा अचरज हुआ था कि उस युग में भी कोई ऐसा था जो स्टोर किसी "और" के भरोसे छोड़ कर जा सकता था? थोड़ी देर बाद बाबा स्टोर में आये और उस लड़के ने अपना सामान खरीदा और उसके जाने के बाद मेरी तरफ देख कर पूछे कि मुझे क्या चाहिए था। मैं तो गया था उनको और जान ने को इसलिए मैंने अनायास ही कुछ मांग लिया और इधर उधर कुछ और देखने लगा। मेरी कौतूहलता तो उनके बारे में और जानने की थी और कुछ समझ नहीं आ रहा था कि कैसे उनसे उनके निजी जिंदगी के बारे में कुछ पूछूँ, ऐसे में मेरी नज़र दुकान के अंदर पड़े एक छोटी सी चौकी पर गयी जिस पर वो सोया करते थे। कुछ इधर उधर की बात करते करते मैं उनसे उनके कुछ अंतरंग बातें पूछ ही ली. जैसा मैंने सोचा था बाबा के बारे में लगभग वैसा ही रोमांचकारी और रोचक बातें पता चला।

बाबा स्वदेशी के पुजारी थे और गांधी के आदर्शों पर चलते हुए सादा जीवन यापन कर रहे थे। मैं उनके त्याग और सादे जीवन से बहुत प्रभावित हो गया था। जैसा मुझे लग ही रहा था, वास्तव में वैसा ही सच निकला कि उनका अपना कोई परिवार नहीं था। उनसे पता चला कि बहुत कम उम्र में ही घर परिवार छोड़ कर एक तरह से गांधीजी के आदर्शों और संघर्ष के लिए उन्होंने स्वयं को पूर्ण रूप से समर्पित कर दिया था। आजादी के बाद वे इधर उधर कुछ करने के बाद बी आई टी पहुँच गए और शायद तब से इसी स्टोर से अपना जीवनयापन कर रहे थे।

बाबा ने भी पुराने दिनों की चर्चा वैसी ही की, जैसा उन दिनों कैंपस में देशपांडे के स्वर्णिम दिनों के अंतिम कड़ी के रूप में बचे कुछेक और स्टाफ किया करते थे। कैसी अजीब कैफियत थी देशपांडे के जमाने की कि उसका नशा उस ज़माने के बचे लोगो में वैसा ही छाया हुआ था, जैसे कैसिनो में सारे पैसे लुटा देने के बाद भी किसी का हाथ बरबस पॉकेट में बचे-खुचे खुदरे को भी खर्च करने को चल जाये, वे थकते नहीं थे उस ज़माने की बाते करते-करते। 


बाबा भी अतीत में खो गए और फिर …
- अरे क्या बात थी देशपांडे साहेब की! किसी ने बताया की हॉस्टल में कोई बीमार है, बस खुद पहुँच जाते थे देखने और जब तक स्टूडेंट वापस ठीक न हो जाए पिता जैसा हाल चाल जानते रहते थे… 
- उन दिनों की क्या बात करें, लड़के इतना समझदार होते थे कि क्या बताये? बस शाम होते ही सब हॉस्टल वापिस और हॉस्टल में बिलकुल शांति…जिनको खेलना था या कही घूमने जाना था, सब के सब टाइम से वापिस …घर जैसा माहौल होता था… अब ये समझ लीजिये की उस ज़माने में लड़के सब बहुत जिम्मेदारी से पढाई करते थे.… 
- कोई भी कालेज का विद्यार्थी जब कैंपस के बाहर जाता था लोग इज़्ज़त देते थे, अरे उस समय लोग यहाँ एडमिशन लेने ले लिए तरसते थे साहेब, क्या बताये.… 
- देशपांडे साहेब का क्या कहें, समझिए की सीधे मुख्यमंत्री से ही उनकी बात होती थी। श्रीकृष्ण बाबू तो खुद ही इनको इधर लाये थे न, समझ लीजिये एक तरह से हाथ जोड़ कर लाये थे इधर , क्या दरोगा, क्या कलेक्टर?सब के सब इनके हुक्म को तामील करने को एक टांग पर खड़े होते थे.… अरे डाइरेक्टर का क्या रुतबा था उन दिनों. …! 
- अब ये देखिये न, मतलब ये कि खुद खोज-खोज कर सारे इंडिया के कोने कोने से एक से एक प्रोफेसर को लाते थे..... ये समझते थे न कि कौन किस एरिया में माहिर है! वेतन के लिए रुपिये पैसे का कोई रोक नहीं न था, श्रीकृष्ण बाबू का हाथ था इनके ऊपर, मतलब आई आई टी से ज्यादा खब्बसूरत बनाने का होड़ था, और देशपांडे साहेब एकदम से समझ लिजीए कि बी आई टी को नंबर एक इन्जिनीयरिंग कालेज बनाने में कोनो कसर नहीं छोड़े थे .… 
ऐसा था कि जिनको एक बार चिट्ठी लिख के भेज देते थे, बस ऐसा समझ लीजिये कि जैसे साथ में रेलवे का टिकट भी लगा कर ही भेज देते थे, चिट्ठी मिला और आ जाते थे ज्वाइन करने .… किसी का मजाल था कि इनके बुलावे को ठुकरा दे? मतलब देशपांडे बुला लिए तो समझिए एक गर्व की बात होती थी..   
बाबा उन दिनों को याद करते करते मानो अतीत में कही खो से गए थे, और अचानक गहरी साँस छोड़ते हुए बड़े धीमे स्वर में कहा -
फिर सब कुछ खत्म न हो गया..... एका एक…
कहते कहते बाबा रुक गए। मानो आगे अब कुछ बताने का उनका दिल नहीं कर रहा था। 

मैंने बात के क्रम को आगे रखते हुए कहा- 

चौधरी साहब डाइरेक्टर बने थे न उनके जाने के बाद?
हाँ..... बने चौधरी साहेब..... बने, चौधरी साहेब बने नए डाइरेक्टर...... ठीक थे वो… बहुत कोशिश किये....  मगर....वो वाली बात नहीं न थी उनमें..... देशपांडे साहब में जो बात थी, वो अलग दर्जे की थी.... पर चौधरी साहेब भी ठीक थे..... ठीक थे…पर देशपांडे साहेब वाली बात नही थी, वो अलग ढांचे के इंसान थे... 
ऐसा लग रहा था मानो देशपांडे सर के जाने का सदमा अभी तक उनके दिल से पूरी तरह से नहीं निकला था और उनकी गोल गोल आँखे कही अतीत में खो सा गया था।

मैं भी बाबा के साथ उन दिनों में ही खो गया था और एहसास ही नहीं हुआ कि दूकान में और भी कुछ लड़के आ चुके थे कि तभी अचानक से बेशर्म से दो लड़के में से एक ने बड़ी बेहूदगी से कहा-

अरे सुनाई नहीं दे रहा है, बाबा तभी से दो ठो सिगरेट मांग रहे हैं न, ए बाबा लगता है सुनाई कम पड़ने लगा है आप को....
ऐसा कहते हुए वह दुसरे की तरफ कुटिल मुस्कान देता धीरे से कहा -
लगता है बाबा सठिया गए हैं.…
दोनों के हंसी के बीच अचानक से बाबा ने जरा ऊंची आवाज करते हुए कहा - 
पैकेट में बिकता है यहाँ, छुट्टा सिगरेट नहीं बेचते है…
दोनों के चले जाने के बाद बाबा ने एक लम्बी सांस लेते हुए कहा -
समझते नहीं हैं, ये खुदरा में बेचने से बहुत दिक्कत होता है, कोई आता है बोलता है नया डब्बा खोलिए तो कोई कहता है वो वाला चाहिए, अब हमें इतना समझ में भी नहीं आता है कि कौन वाला कौन सा डब्बा का है, इस लिए अब हम समूचा डब्बा ही बेचते हैं… 
फिर मानो पश्चात्ताप से कह रहे थे - 
 ये सिगरेट बेचने का दिल तो करता नहीं है पर क्या करे, अब और कोई सामान बिकता ही नहीं है…एहि लेने कोई आ जाता है तो साथ में दो चार और सामान बिक जाता है..... पढ़ने लिखने वाला बच्चा सब अब नही आता है… 
मुझे ये देख कर बड़ा आश्चर्य हुआ की बाबा उन दोनों के ओछी हरकत से बिलकुल आहत नहीं हुए थे। मैंने जान बुझ कर उन्हें जरा उकसाने के अंदाज़ में उनके हरकतों के बारे में पूछ लिया। बाबा निष्क्रियता से बड़े शांत स्वर में बोले-
अब आदत हो गयी है। अब इस उम्र में अब जाये भी तो किधर जाये. अब तो लगता है कि यही हमारा घर है, कितने बच्चे पढ़ लिख कर चले गए यहाँ से, आते रहते हैं कभी कभी कोई यहाँ स्टोर पर …अब तो हम किसी को पहचान नहीं पाते हैं, वही लोग याद दिलाते रहते हैं, कि हम अमुक साल यहाँ थे तो कोई बताता है हम ये थे, तो हम वो थे …
फिर ठहरते हुए बोले - 
मगर अब ऐसा है कि मुझे अब याद कम रहता है....अब उम्र भी तो हो गया न… 
मैंने उत्सुकता वश जानने की कोशिश की कि वो उस समय के कॉलेज के किसी प्रोफेसर को भी जानते थे या नहीं और हँसते हुए बाबा ने कहा-
अरे अभी के जितने नए वाले हैं सब को हम एकदम छोटकन से देखे हैं....बहुत सारे तो इधर यही हॉस्टल में रहते थे, आते थे आपलोग के जैसे ही.....आते हैं कभी कभी मिलने, हाल चाल जान ने को ..... कोई कोई तो अपने घर पर भी बुलाते हैं होली, दीवाली और कोई पर्व त्यौहार पर … 
उस दिन के बाद मैं बाबा के स्टोर पर जाता रहता था और भी कई पुराने दिनों का जिक्र होता था। कुछेक हमारे मित्र भी हमारे साथ जाते और उनके साथ खैनी खाते थे। बाबा बहुत ही हंसमुख,मिलनसार और कई मामलों में आदर्शवादी थे।

बाबा को अंतिम बार मैंने १९९४ में देखा था जब मैं अपने डिग्री के प्रतिलिपि (PDC) को लेने कैंपस गया था। उनको FCI गेट के बाहर बने एक चाय के दूकान पर अपने एक मित्र के साथ बैठ कर चाय पीते देखा था। उनकी बातों से मुझे ऐसा अहसास हुआ था कि शायद वे कैंपस से बाहर रहने लगे थे। फिर उनका कोई पता नहीं है।  


कई ऐसे चेहरों के छवि मेरे दिमाग के आईने में अटका सा रह गया है, पर अब वो न जाने कहाँ किसी यादों के गहरे सागर में समां सा गए हैं। कभी कभी इसी तरह से समय के चट्टानों पर उफान मारती जोर से टकराती हैं और मेरे मन में बहुत शोर करके मुझे वे सभी शकलें बनाकर झकझोर से जाते हैं!