हॉस्टल के बाबुओं की सेवा में उतने ही जोश से तत्पर दुबला पतला मगर चुस्त सा रमण मौसम से मानो बेखबर हर वक़्त अपने शरीर पर एक पुरानी गंदी से ऊनी स्वेटर पहना होता था जो ऐसा लगता था कि उसके शरीर का वह एक अभिन्न हिस्सा बन चुका था.
हँसता मुस्कराता सा चेहरा, धीमी आवाज़ और बड़े अदब से हॉस्टल के हर किसी से बात करता देख दिल पिघल जाता था। ऐसा लगता था कि समस्याएं कितनी भी हो, उसे सहन करने की शक्ति ईश्वर कितने रूप में देता है - कोई इसे नियति मान कर हिम्मत हार लेता है, तो कोई उसे एक लम्बी अनवरत कठिन राह समझ कर हँसते बोलते और अपने इर्द गिर्द खुशियों को बांटते, इस बात से बेपराह कि मंज़िल तक पहुंचे न पहुंचे पर साहिर के जज्बे के साथ- "जो मिल गया उसी को मुकद्दर समझ लिया, जो खो गया उसको भुलाता चला गया", बिना किसी गिला या शिकवा किये सहजता से जी लेता है. हॉस्टल में जब कभी अपनी समस्याओं के बारे में सोच कर मन खिन्न होता था, रमण के व्यक्तित्व का मन में स्मरण हो जाता था.
गरीबी ने उसके घर की हालत ऐसी कर दी थी कि पूरा परिवार घर से खाना बना कर हॉस्टल में टिफिन भेजने के व्यवसाय में लगे हुए थे. एक दो बड़े हो चुके बच्चे रूम तक टिफिन पहुचाने के काम में लगे होते थे.
२००६ मैं अपने बीवी और बच्चों के साथ कैंपस गया था. बड़ी उत्सुकता से उन्हें कैंपस के हर कोने को दिखा रहा था और उनको ये अहसास कराने की कोशिश कर रहा था कि मैंने कितनी विषमताओं में पढाई की थी. १६ साल बीत जाने के बाद हॉस्टल और कैंपस काफी बदला बदला सा नज़र आ रहा था और कई नए चेहरों में भी मैं कुछ पुराने लोगो को ढूंढ रहा था, कि तभी कुछ वार्ड सर्वेन्ट्स ने कहा -
हँसता मुस्कराता सा चेहरा, धीमी आवाज़ और बड़े अदब से हॉस्टल के हर किसी से बात करता देख दिल पिघल जाता था। ऐसा लगता था कि समस्याएं कितनी भी हो, उसे सहन करने की शक्ति ईश्वर कितने रूप में देता है - कोई इसे नियति मान कर हिम्मत हार लेता है, तो कोई उसे एक लम्बी अनवरत कठिन राह समझ कर हँसते बोलते और अपने इर्द गिर्द खुशियों को बांटते, इस बात से बेपराह कि मंज़िल तक पहुंचे न पहुंचे पर साहिर के जज्बे के साथ- "जो मिल गया उसी को मुकद्दर समझ लिया, जो खो गया उसको भुलाता चला गया", बिना किसी गिला या शिकवा किये सहजता से जी लेता है. हॉस्टल में जब कभी अपनी समस्याओं के बारे में सोच कर मन खिन्न होता था, रमण के व्यक्तित्व का मन में स्मरण हो जाता था.
गरीबी ने उसके घर की हालत ऐसी कर दी थी कि पूरा परिवार घर से खाना बना कर हॉस्टल में टिफिन भेजने के व्यवसाय में लगे हुए थे. एक दो बड़े हो चुके बच्चे रूम तक टिफिन पहुचाने के काम में लगे होते थे.
२००६ मैं अपने बीवी और बच्चों के साथ कैंपस गया था. बड़ी उत्सुकता से उन्हें कैंपस के हर कोने को दिखा रहा था और उनको ये अहसास कराने की कोशिश कर रहा था कि मैंने कितनी विषमताओं में पढाई की थी. १६ साल बीत जाने के बाद हॉस्टल और कैंपस काफी बदला बदला सा नज़र आ रहा था और कई नए चेहरों में भी मैं कुछ पुराने लोगो को ढूंढ रहा था, कि तभी कुछ वार्ड सर्वेन्ट्स ने कहा -
"ये ही है रमण, सर".
ऐसा लगा कि जैसे पुलिस स्टेशन में लाइन हाज़िर का कोई फरमान जारी होने पर किसी पुराने अपराधी की तरह उसे सामने ला के खड़ा कर दिया गया था. मैं थोड़ी देर तक अतीत में खो गया था, और उसी रमण को खोज रहा था मगर सामने जो खड़ा था वह एक बहुत बुढा हो चुका इंसान था. गौर से देखा तो वह रमण ही था मगर वह अब पहले से काफी कमज़ोर दिख रहा था. लग रहा था कि जीवन के थपेड़ो से ठोकर खाते खाते अब वह बहुत लाचार हो चुका था. जो रमण खड़ा दिख रहा था वह ऐसा लग रहा था मानो बिना कुछ कहे बहुत कुछ मांग रहा था. शायद वह अब भी पहले की तरह ही स्वाभिमानी था और उसी तरह मुस्करा रहा था, पर मुझे कुछ तो अँधेरे की वजह से उसका चेहरा साफ़ साफ़ नज़र नहीं आ रहा था और कुछ उसके पहले से ज्यादा धंस चुके गाल के कारण भी स्पष्ट नहीं हो पा रहा था.
शाम हो चुका था और हमें वापस धनबाद के लिए निकलना था, इस लिए जरा स्वार्थी बनते हुए मुझे उसे तुरंत अपनी याद दिलानी थी कि मैं अमुक बैच का "बाबू" था … शायद वह मेरी पुराने याद करने के पूरे क्रम में खुद का कोई स्वार्थ नहीं पा रहा था और इसलिए बहुत ज्यादा उत्सुक नज़र नहीं आ रहा था. कुछ देर में ही बड़े अनमने ढंग से उसने तुरंत याद कर लिया कि "हाँ याद आ गया …आप वो वाले रूम में थे" ....
मैंने भी कुछ औपचारिकताएं पूरी की, उसके साथ अपने रूम के पास खड़े हो कर एक फोटो खिंचवाई और उसे कुछ आर्थिक मदद के तौर पर जो उचित लगा दे दिया और मन में बहुत खलिश के साथ अपने गाड़ी में बैठ गया और उस से विदा ले ली.
ऐसा लगा कि जैसे पुलिस स्टेशन में लाइन हाज़िर का कोई फरमान जारी होने पर किसी पुराने अपराधी की तरह उसे सामने ला के खड़ा कर दिया गया था. मैं थोड़ी देर तक अतीत में खो गया था, और उसी रमण को खोज रहा था मगर सामने जो खड़ा था वह एक बहुत बुढा हो चुका इंसान था. गौर से देखा तो वह रमण ही था मगर वह अब पहले से काफी कमज़ोर दिख रहा था. लग रहा था कि जीवन के थपेड़ो से ठोकर खाते खाते अब वह बहुत लाचार हो चुका था. जो रमण खड़ा दिख रहा था वह ऐसा लग रहा था मानो बिना कुछ कहे बहुत कुछ मांग रहा था. शायद वह अब भी पहले की तरह ही स्वाभिमानी था और उसी तरह मुस्करा रहा था, पर मुझे कुछ तो अँधेरे की वजह से उसका चेहरा साफ़ साफ़ नज़र नहीं आ रहा था और कुछ उसके पहले से ज्यादा धंस चुके गाल के कारण भी स्पष्ट नहीं हो पा रहा था.
शाम हो चुका था और हमें वापस धनबाद के लिए निकलना था, इस लिए जरा स्वार्थी बनते हुए मुझे उसे तुरंत अपनी याद दिलानी थी कि मैं अमुक बैच का "बाबू" था … शायद वह मेरी पुराने याद करने के पूरे क्रम में खुद का कोई स्वार्थ नहीं पा रहा था और इसलिए बहुत ज्यादा उत्सुक नज़र नहीं आ रहा था. कुछ देर में ही बड़े अनमने ढंग से उसने तुरंत याद कर लिया कि "हाँ याद आ गया …आप वो वाले रूम में थे" ....
मैंने भी कुछ औपचारिकताएं पूरी की, उसके साथ अपने रूम के पास खड़े हो कर एक फोटो खिंचवाई और उसे कुछ आर्थिक मदद के तौर पर जो उचित लगा दे दिया और मन में बहुत खलिश के साथ अपने गाड़ी में बैठ गया और उस से विदा ले ली.

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