BIT का कैंपस बहुत विस्तृत क्षेत्रफल में फैला हुआ था। हरेक होस्टल "राम राज्य" की तरह, ताला संस्कृति से विरक्त, बिलकुल खुला सा होता था। बावजूद इसके, कैंपस से बाहर के तत्त्व, जिन में युद्ध विराम का प्रस्ताव ले के जाने वाला जैसा आत्म-विश्वास होता था, वैसे फेरीवाले ही अपना सामान बेचने हॉस्टल के अंदर या आसपास आते थे.
कुछ फेरीवाले हॉस्टल ११ (girls hostel) की तरह अपवाद थे। वे अपने लिए स्थाई जगह बना लिए थे, जैसे गन्ने का रस निकालने वाला या कैंटीन के बगल का पान दुकान, परन्तु बाकी घूम घूम कर अपने सामान को बेचते थे.
कैंपस के फेरीवाले का बिजनेस मॉडल और चरित्र रेलवे स्टेशन के फेरीवालों से मिलता जुलता था, ट्रेन के रुकते ही सामान बेचने का सिलसिला शुरू हो जाता था. कुछ जो सिर्फ आम छात्रों की तरह पढाई की खाना पूरी करने कॉलेज आये थे, वे ट्रेन के एक सिरे जो गार्ड का डिब्बा होता था, उस छोर से इंजन तक का एक चक्कर लगा के end term exam की तरह अगले ट्रेन के रुकने का इंतज़ार करते थे. मगर मेघावी छात्रों की तरह, कुछ फेरीवाले स्टेशन पर जब तक ट्रेन रुका हो, तब तक जितनी बार संभव हो एक सिरे से दूसरे सिरे का चक्कर लगाते ही रहते थे, ये पुनरावृति का सिद्धांत "जिन ढूँढा तिन पाइयाँ, गहिरे पानी पैठ।जो बौरा डूबन डरा, रहा किनारे बैठ॥" से प्रेरित था। मेघावी छात्रों का भी विश्वास होता था कि जितनी बार डुबकी लगाएंगे, उन्हें कोई नए ज्ञान की प्राप्ति होगी। परन्तु मेरे जैसे विद्यार्थी को, पानी से ही बहुत डर लगता था, और हमारे जैसों के लिए नदी के चक्कर में न पड़ कर बस उसे पार कर अगले किनारे तक जाना ही मकसद था! हॉस्टल में आने वाले कुछ फेरीवाले भी थे, जो दिन में कई मर्तबा चक्कर लगाते रहते थे की क्या जाने कोई नया खरीद हो जाए !
उन्हीं फेरीवालों में से एक बहुत ही बूढ़ा बंगाली मिठाई वाला था। वह एक विचित्र प्रकार के रस्सी से बंधे गांठों के बीच, एल्युमीनियम के बर्तन में 'संदेश' (बंगाली मिठाई) और बाकी विभिन्न प्रकार के मिठाई ले कर आता था. फसल के कट जाने के बाद खेत में फैले जड़ों की तरह, उसके काले पिचके गाल पर - काफी दूर दूर पर कई दिनों से न शेव किये हुए - उसकी पकी दाढ़ी नज़र आती थी। सिर पर बिखरे हुए सफ़ेद बाल उसके उम्र और उतने दिनों में हासिल की हुई उसकी गरीबी को बिलकुल साफ़ झलकाता था। ढलती उम्र में -उसके हिम्मत की तरह - टूटा फ्रेम वाला चश्मा, उसके साँसों के मानिंद, एक धागे से बंधा उसकी आँखों पर टिका कर, किसी तरह से जिंदगी को चला रहा था.
"सन्देश", "सन्देश" की आवाज़ लगाता वह घूमता रहता था और अगर किसी ने उसे रोक दिया तो वह रोकने वाले के तरफ बड़ी हसरत भरी निगाहों से देखता हुआ मगर उतने ही फक्र के साथ अलुमिनिुयम के बर्तन पर से ढक्कन को हटा कर सभी मिठाइयों को दिखता था मानो उसके हालत कैसे भी हों उसे अपने मिठाइयों पर काफी भरोसा था की वे खुद ब खुद अपने खासियत को बयां कर लेंगे. अपने व्यवसाय के मामले में वह बड़ा द्रढ होता था और जब तक उसे पैसा न मिल जाए वह मिठाई नहीं देता था. वह बड़े ही रोचक ढंग से महुए के हरे पत्तों का एक कटोरा सा कर उसमे सन्देश या मिठाइयों को रख कर देता था. बीच बीच में वह सूखे होंठो को जीभ से चाटता रहता था, यक़ीनन तौर पर मैं कह सकता था कि "घोडा को घास से दोस्ती नहीं करनी चाहिए" के हिसाब से उसने कभी खुद अपनी मिठाई बरसों से चख के नहीं देखा होगा।
कई बार मैं उसके इस दयनीय हालत को देखने तक की हिम्मत नहीं जुटा पाता था और ज्यादा समय उस से दूर ही रहने की कोशिश करता था, मगर वह गरीबी के मार से ऐसा विवश था की हर रोज उसी जोश और उम्मीद से हॉस्टल आ जाता था. गर्मी के दिनों में जब हमारे सभी क्लासेज़ लंच के पहले ही करवा दिया जाता था और तेज़ गर्मी और लू के वजह से कॉलेज दोपहर में बंद होता था, तब भी वह हॉस्टल में घूमता मिलता था…उसकी सोच बाद में जब मैं सैम वाल्टन (founder of Wal-Mart) के बारे में पढ़ा तो समझ में आया - "Swim upstream. Go the other way. Ignore the conventional wisdom." कैसी अजीब बात है कि जीवन को चलाने की मज़बूरियाँ इंसान से वही सभी कुछ करवाता है जो दुनियां के हर बड़ी सफलता के नींव में भी दिखता है!
कई बार मुझे जीवन की अजीब विसंगतियाँ देखने को मिला है, इस मिठाईवाले को याद कर आज भी दिल बैठ जाता है कि जीवन में इतनी कड़वाहट होने के बावजूद वो दूसरो को मिठास कैसे बाँट सकता था? क्या किसी की विवशता उसे इतना मज़बूर कर दे सकता है कि वह फूल की तरह अपना हरेक कतरा शहद बनाने के लिए दे कर खुद कुम्हलाता चला जाए?
कुछ फेरीवाले हॉस्टल ११ (girls hostel) की तरह अपवाद थे। वे अपने लिए स्थाई जगह बना लिए थे, जैसे गन्ने का रस निकालने वाला या कैंटीन के बगल का पान दुकान, परन्तु बाकी घूम घूम कर अपने सामान को बेचते थे.
कैंपस के फेरीवाले का बिजनेस मॉडल और चरित्र रेलवे स्टेशन के फेरीवालों से मिलता जुलता था, ट्रेन के रुकते ही सामान बेचने का सिलसिला शुरू हो जाता था. कुछ जो सिर्फ आम छात्रों की तरह पढाई की खाना पूरी करने कॉलेज आये थे, वे ट्रेन के एक सिरे जो गार्ड का डिब्बा होता था, उस छोर से इंजन तक का एक चक्कर लगा के end term exam की तरह अगले ट्रेन के रुकने का इंतज़ार करते थे. मगर मेघावी छात्रों की तरह, कुछ फेरीवाले स्टेशन पर जब तक ट्रेन रुका हो, तब तक जितनी बार संभव हो एक सिरे से दूसरे सिरे का चक्कर लगाते ही रहते थे, ये पुनरावृति का सिद्धांत "जिन ढूँढा तिन पाइयाँ, गहिरे पानी पैठ।जो बौरा डूबन डरा, रहा किनारे बैठ॥" से प्रेरित था। मेघावी छात्रों का भी विश्वास होता था कि जितनी बार डुबकी लगाएंगे, उन्हें कोई नए ज्ञान की प्राप्ति होगी। परन्तु मेरे जैसे विद्यार्थी को, पानी से ही बहुत डर लगता था, और हमारे जैसों के लिए नदी के चक्कर में न पड़ कर बस उसे पार कर अगले किनारे तक जाना ही मकसद था! हॉस्टल में आने वाले कुछ फेरीवाले भी थे, जो दिन में कई मर्तबा चक्कर लगाते रहते थे की क्या जाने कोई नया खरीद हो जाए !
उन्हीं फेरीवालों में से एक बहुत ही बूढ़ा बंगाली मिठाई वाला था। वह एक विचित्र प्रकार के रस्सी से बंधे गांठों के बीच, एल्युमीनियम के बर्तन में 'संदेश' (बंगाली मिठाई) और बाकी विभिन्न प्रकार के मिठाई ले कर आता था. फसल के कट जाने के बाद खेत में फैले जड़ों की तरह, उसके काले पिचके गाल पर - काफी दूर दूर पर कई दिनों से न शेव किये हुए - उसकी पकी दाढ़ी नज़र आती थी। सिर पर बिखरे हुए सफ़ेद बाल उसके उम्र और उतने दिनों में हासिल की हुई उसकी गरीबी को बिलकुल साफ़ झलकाता था। ढलती उम्र में -उसके हिम्मत की तरह - टूटा फ्रेम वाला चश्मा, उसके साँसों के मानिंद, एक धागे से बंधा उसकी आँखों पर टिका कर, किसी तरह से जिंदगी को चला रहा था.
"सन्देश", "सन्देश" की आवाज़ लगाता वह घूमता रहता था और अगर किसी ने उसे रोक दिया तो वह रोकने वाले के तरफ बड़ी हसरत भरी निगाहों से देखता हुआ मगर उतने ही फक्र के साथ अलुमिनिुयम के बर्तन पर से ढक्कन को हटा कर सभी मिठाइयों को दिखता था मानो उसके हालत कैसे भी हों उसे अपने मिठाइयों पर काफी भरोसा था की वे खुद ब खुद अपने खासियत को बयां कर लेंगे. अपने व्यवसाय के मामले में वह बड़ा द्रढ होता था और जब तक उसे पैसा न मिल जाए वह मिठाई नहीं देता था. वह बड़े ही रोचक ढंग से महुए के हरे पत्तों का एक कटोरा सा कर उसमे सन्देश या मिठाइयों को रख कर देता था. बीच बीच में वह सूखे होंठो को जीभ से चाटता रहता था, यक़ीनन तौर पर मैं कह सकता था कि "घोडा को घास से दोस्ती नहीं करनी चाहिए" के हिसाब से उसने कभी खुद अपनी मिठाई बरसों से चख के नहीं देखा होगा।
कई बार मैं उसके इस दयनीय हालत को देखने तक की हिम्मत नहीं जुटा पाता था और ज्यादा समय उस से दूर ही रहने की कोशिश करता था, मगर वह गरीबी के मार से ऐसा विवश था की हर रोज उसी जोश और उम्मीद से हॉस्टल आ जाता था. गर्मी के दिनों में जब हमारे सभी क्लासेज़ लंच के पहले ही करवा दिया जाता था और तेज़ गर्मी और लू के वजह से कॉलेज दोपहर में बंद होता था, तब भी वह हॉस्टल में घूमता मिलता था…उसकी सोच बाद में जब मैं सैम वाल्टन (founder of Wal-Mart) के बारे में पढ़ा तो समझ में आया - "Swim upstream. Go the other way. Ignore the conventional wisdom." कैसी अजीब बात है कि जीवन को चलाने की मज़बूरियाँ इंसान से वही सभी कुछ करवाता है जो दुनियां के हर बड़ी सफलता के नींव में भी दिखता है!
कई बार मुझे जीवन की अजीब विसंगतियाँ देखने को मिला है, इस मिठाईवाले को याद कर आज भी दिल बैठ जाता है कि जीवन में इतनी कड़वाहट होने के बावजूद वो दूसरो को मिठास कैसे बाँट सकता था? क्या किसी की विवशता उसे इतना मज़बूर कर दे सकता है कि वह फूल की तरह अपना हरेक कतरा शहद बनाने के लिए दे कर खुद कुम्हलाता चला जाए?
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