BIT कैंपस में पहली बार जब भी कोई कदम रखता, उसकी नज़र सबसे पहले हॉस्टल १,२,३ पर पड़ती थी जो अंतिम वर्ष के छात्रों के लिए होता था. इन तीनों हॉस्टल का विश्लेषण बचपन में गाय पर निबंध लिखने के लिए सिखाये गए उन सभी पहलुओं से बिलकुल ही तर्कसंगत बैठता था :
१. जैविक - चार साल घिस लेने के बाद अकेले कमरे में रहने की स्वतंत्रता,
२. सामाजिक - इस हॉस्टल के सामने से मेन रोड जाने के कारण कम से कम अंतिम वर्ष ये एहसास कराना आवश्यक है कि अब छात्र कॉलेज से निकल कर वापस समाज में एक जिम्मेदार नागरिक की तरह जीवन यापन करने जा रहे हैं,
३. प्रासंगिक - आम तौर पर कॉलेज के सेशन की हालत भारतीय रेल की तरह ही रहती है और अंतिम साल के ऊपर उसैन बोल्ट की तरह पूरी दम ख़म लगा के जीताने का लक्ष्य होता है जिस कारण देर शाम और सप्ताहांत में भी क्लासेज होती रहती हैं और कैंपस के बीचो बीच रहने से समय और दूरी की बचत होती है
४. वाणिज्यिक - हॉस्टल २ में मेहता स्टोर्स होने की वजह से मच्छर मारने से ज्यादा उपयोगी काम स्टोर के अंदर बैठने से ये पता चलता था कि पैसे पेड़ पर नहीं फलते हैं, एवं
५. उपसंहार- जिस तरह दुनिया में सब कुछ परिवर्तनशील होता है वैसे ही बीआई टी से भी छात्रों को एक दिन निकलना पड़ता है और घर से निकलने से पहले आईने में अंतिम बार शकल देखने जैसा यह हॉस्टल छात्रों को स्वावलोकन, स्वयं को आंकने और परखने के बाद अपने गंतव्य की और अग्रसारित होने के लिए प्रेरित करता है और इस कारण इसका बी आई टी के संसार में बहुत महत्त्व होता है .
यहाँ तक आते आते छात्रों की दशा बॉबी फिल्म का गाने जैसा हो जाता था -
इन होस्टल्स में बिताये समय, पूरे बी आई टी कैंपस में बीते दिनों का वो दौर होता था जब लोग अचानक से "जीवन के लक्ष्य", "क्या पाया क्या खोया", "भविष्य आपके ही हाथों में होता है " इत्यादि जैसे बहुत ही जटिल विषयों को सहजता से समझ कर आत्मसात करते हुए शांति से गुजारते थे. सामान्य भाषा में लोग "औकात" में आ जाते थे.
वैसे माहौल में भी जीवन को तो चलना ही होता है और हॉस्टल को सुचारू रूप से चलाते रहने की जिम्मेवारी दरबान की होती थी. आम तौर पर तो हर हॉस्टल के दरबान से छात्रों का नोंक झोंक सामान्य सी बात थी पर अंतिम वर्ष में इस हॉस्टल तक आते आते छात्रों का जीवन किसी गंभीर समस्या पर बनी जटिल फिल्म के मध्य वाली हो जाती थी. उस स्थिति को भांपते हुए मानो नियति ने भी हास्य के पुट देने के लिए एक ख़ास व्यक्तित्व को दरबान के रूप में यहाँ भेज दिया था.
यहाँ के दरबान शायद अयोध्या के आस पास का रहने वाला था और वह इस बात से बिलकुल बेफिक्र होकर कि अब वह सिंदरी में रहता था, धड़ल्ले से खालिस अवधी निष्ठ हिंदी बोलता था और उसका विश्वास था कि सभी लोग उसकी बातों को सहजता से समझ लेते होंगे.
धोती कुरता पहने बिलकुल बूढ़ी शक्ल पर चन्दन का लेप और उसके ऊपर एक बड़ा सा लाल रंग का ठोप लगाये जिस तरह हमें भूगोल में पढ़ाया जाता था कि समुद्र में जहाज दिखने के पहले उसका मस्तूल दिखता है, उसी प्रकार इस दरबान की "गूंज" वातावरण में इनके प्रकट होने के पहले ही व्याप्त हो जा चुकी होती थी…
अवधी दरबान कुछ तो बोलता फिरता रहता था, जो बचपन में हिंदी के व्याकरण में पढ़ाये "कारक" के आठ भाग-
"कर्ता – ने , कर्म – को, करण – से, के साथ, के द्वारा , संप्रदान – के लिए, को , अपादान – से, संबंध – का, के, की, अधिकरण – में, पर, संबोधन – हे ! हो! रे !" में से लगता था कि वह सिर्फ "सम्बोधन" पर ही केंद्रित रहता था. ऐसा प्रतीत होता था कि हर वक़्त वह वार्ड सर्वेन्ट्स या इलेक्ट्रीशियन, जो कुछ बल्ब वगैरह बदलने के लिए आये होते थे, उनके ऊपर चीखता चिल्लाता "अरे!! हऊ!! हए!!" करता हुआ घूमता रहता था.
उसके बात करने की समस्या थी कि उसके बात में कोई सन्दर्भ नहीं होता था और सुनने वाले के साथ भी वैसी ही दिक्कत होती थी जैसा हमारे बचपन के दिनों में गावस्कर के ९९ के स्कोर पर होने पर हो रहे रेडिओ कमेंट्री के दौरान होता था.
ऐसा लगता था कि गावस्कर अपना मालिकाना हक़ समझते हुए ९९ के स्कोर पर जितनी मर्ज़ी उतनी देर तक खेलते रहते थे. कभी कभी खाना या चाय के आधे घंटे पहले भी ९९ के स्कोर पर होने के बाद हरेक गेंद को "सम्मान पूर्वक" खेलते रहने के कारण जब हम डकार ले कर अगले भोजन या चाय पीने की तैयारी में होते थे तब वो सुशील दोषी के शब्दों में "बाहर जाती गेंद के साथ छेड़ छाड़" कर देते थे! ऐसे माहौल में जब गावस्कर ने "कुछ" तो किया, Murphy's Law की तरह उसी वक़्त घर के सामने के सड़क पर कोई मोटरसाइकिल वाला आ जाता था और हमारे ट्रांजिस्टर में सिर्फ "कट कट कट.…" जैसॆ आवाज़ आने लगती थी.... और उस शोर के के बीच हमें कुछ समझ में नहीं आता था. और जब मोटर साइकल आगे चल जाती थी, सुशील दोषी किसी पिता की तरह सांत्वना देने वाले स्वर में बोलते पाये जाते थे - "… बिलकुल गेंद टप्पा खा कर ऊपर और ऊपर (कितनी ऊपर?) आ कर मिडल स्टंप से ऑफ़ स्टंप और फिर बाहर और बाहर और बिलकुल बाहर (कितनी बाहर? स्टेडियम से भी बाहर?) जा रही थी.…… " बहुत देर तक समझ में ही नहीं आता था कि गावस्कर आउट या सेंचुरी या कुछ नहीं?
दरबान की बातें भी उसी तरह से किसी के समझ के परे होती थी और जिस तरह सुशील दोषी के कमेंट्री को जब ठहर कर दो मिनट इत्मीनान से सुनते थे कि "…और अगली गेंद को गावस्कर ने हल्का सा पुश कर दिया", तब जाकर यह स्पष्ट होता था कि गावस्कर अभी भी पिच पर खेल ही रहा है. दरबान की बात भी सुशील दोषी की तरह भावना से ओत प्रोत, खास कर रौद्र रस और खिन्न भाव से भरा होता था, बहुत देर तक उसकी इधर उधर की बात को सुनने के बाद उसका तात्पर्य या सन्दर्भ समझ में आता था.
दरबान से कोई भी शिकायत की जाती तो उसका उत्तर कुछ इस अंदाज़ में होता था कि लोग समझ जाते थे कि कुछ होने जाने को नहीं है. जैसे ट्रेन के गंतव्य रेलवे स्टेशन के आउटर सिग्नल पर मानो रुकने की प्रथा होती है और लोग सीट छोड़ गेट के पास खड़े हो कर बाहर निकलने की प्रतीक्षा में रहते हैं वैसे ही अंतिम साल होने की वजह से या तो लोग अब तक बी आई टी के व्यवस्था से वाकिफ या कॉलेज से निकलने और अनिश्चित भविष्य के बारे में ज्यादा चिंतित होते थे, संभवतः इसी कारण लोग इस दरबान के हर लापरवाही या अकर्मण्यता को नज़रअंदाज़ कर देते थे . और शायद यही वजह रही होगी की ये दरबान बिना रोक टोक के अपने हिसाब से अपनी जीवन शैली को चला रहा था.
दरबान की हरेक बात में कुछ शब्दों का प्रयोग बारम्बार होता था, कुछ तो मुझे अब भी याद हैं-"भैया", "लला", "होइ गवा है", "राव साहब" (हॉस्टल के वार्डन जो की सिविल के प्रोफसर लक्कपति हनुमंत राव होते थे), "इतवार", "बिफाई"(बृहस्पतिवार), "सम्मार"(सोमवार), और भी अनेक सारे और विचित्र अवधी शब्द हुआ करते थे, जो उसे रोक कर बार बार पूछने से पता चलता कि वो क्या कहना चाह रहा था.
रोचक बात यह थी कि दरबान ने ढलती उम्र में स्मार्ट फोन से उलझने जैसा कुछ काम कर लिया था और अपने बेटी की उम्र की एक नयी पत्नी घर ले आया था, यह बात हम सबों को पता चल गया था… आगे बताने की जरुरत नहीं है कि हॉस्टल के छात्रों की जिज्ञासा का विषय क्या होता होगा?
१. जैविक - चार साल घिस लेने के बाद अकेले कमरे में रहने की स्वतंत्रता,
२. सामाजिक - इस हॉस्टल के सामने से मेन रोड जाने के कारण कम से कम अंतिम वर्ष ये एहसास कराना आवश्यक है कि अब छात्र कॉलेज से निकल कर वापस समाज में एक जिम्मेदार नागरिक की तरह जीवन यापन करने जा रहे हैं,
३. प्रासंगिक - आम तौर पर कॉलेज के सेशन की हालत भारतीय रेल की तरह ही रहती है और अंतिम साल के ऊपर उसैन बोल्ट की तरह पूरी दम ख़म लगा के जीताने का लक्ष्य होता है जिस कारण देर शाम और सप्ताहांत में भी क्लासेज होती रहती हैं और कैंपस के बीचो बीच रहने से समय और दूरी की बचत होती है
४. वाणिज्यिक - हॉस्टल २ में मेहता स्टोर्स होने की वजह से मच्छर मारने से ज्यादा उपयोगी काम स्टोर के अंदर बैठने से ये पता चलता था कि पैसे पेड़ पर नहीं फलते हैं, एवं
५. उपसंहार- जिस तरह दुनिया में सब कुछ परिवर्तनशील होता है वैसे ही बीआई टी से भी छात्रों को एक दिन निकलना पड़ता है और घर से निकलने से पहले आईने में अंतिम बार शकल देखने जैसा यह हॉस्टल छात्रों को स्वावलोकन, स्वयं को आंकने और परखने के बाद अपने गंतव्य की और अग्रसारित होने के लिए प्रेरित करता है और इस कारण इसका बी आई टी के संसार में बहुत महत्त्व होता है .
यहाँ तक आते आते छात्रों की दशा बॉबी फिल्म का गाने जैसा हो जाता था -
"मुझे रात दिन नहीं और काम,बस फर्क इतना होता था कि यह भावना किसी कम्पनी के प्रति जागे स्नेह के लिए होती थी.
कभी तेरी याद कभी तेरा नाम,
सब रंग दुनिया के फीके लगते हैं,
एक तेरे बोल बस मीठे लगते हैं,
लिखे हैं बस तेरे सज़दे इस ज़मीं पर,
जिन्दा हूँ तेरी बस हाँ और नहीं पर"
इन होस्टल्स में बिताये समय, पूरे बी आई टी कैंपस में बीते दिनों का वो दौर होता था जब लोग अचानक से "जीवन के लक्ष्य", "क्या पाया क्या खोया", "भविष्य आपके ही हाथों में होता है " इत्यादि जैसे बहुत ही जटिल विषयों को सहजता से समझ कर आत्मसात करते हुए शांति से गुजारते थे. सामान्य भाषा में लोग "औकात" में आ जाते थे.
वैसे माहौल में भी जीवन को तो चलना ही होता है और हॉस्टल को सुचारू रूप से चलाते रहने की जिम्मेवारी दरबान की होती थी. आम तौर पर तो हर हॉस्टल के दरबान से छात्रों का नोंक झोंक सामान्य सी बात थी पर अंतिम वर्ष में इस हॉस्टल तक आते आते छात्रों का जीवन किसी गंभीर समस्या पर बनी जटिल फिल्म के मध्य वाली हो जाती थी. उस स्थिति को भांपते हुए मानो नियति ने भी हास्य के पुट देने के लिए एक ख़ास व्यक्तित्व को दरबान के रूप में यहाँ भेज दिया था.
यहाँ के दरबान शायद अयोध्या के आस पास का रहने वाला था और वह इस बात से बिलकुल बेफिक्र होकर कि अब वह सिंदरी में रहता था, धड़ल्ले से खालिस अवधी निष्ठ हिंदी बोलता था और उसका विश्वास था कि सभी लोग उसकी बातों को सहजता से समझ लेते होंगे.
धोती कुरता पहने बिलकुल बूढ़ी शक्ल पर चन्दन का लेप और उसके ऊपर एक बड़ा सा लाल रंग का ठोप लगाये जिस तरह हमें भूगोल में पढ़ाया जाता था कि समुद्र में जहाज दिखने के पहले उसका मस्तूल दिखता है, उसी प्रकार इस दरबान की "गूंज" वातावरण में इनके प्रकट होने के पहले ही व्याप्त हो जा चुकी होती थी…
अवधी दरबान कुछ तो बोलता फिरता रहता था, जो बचपन में हिंदी के व्याकरण में पढ़ाये "कारक" के आठ भाग-
"कर्ता – ने , कर्म – को, करण – से, के साथ, के द्वारा , संप्रदान – के लिए, को , अपादान – से, संबंध – का, के, की, अधिकरण – में, पर, संबोधन – हे ! हो! रे !" में से लगता था कि वह सिर्फ "सम्बोधन" पर ही केंद्रित रहता था. ऐसा प्रतीत होता था कि हर वक़्त वह वार्ड सर्वेन्ट्स या इलेक्ट्रीशियन, जो कुछ बल्ब वगैरह बदलने के लिए आये होते थे, उनके ऊपर चीखता चिल्लाता "अरे!! हऊ!! हए!!" करता हुआ घूमता रहता था.
उसके बात करने की समस्या थी कि उसके बात में कोई सन्दर्भ नहीं होता था और सुनने वाले के साथ भी वैसी ही दिक्कत होती थी जैसा हमारे बचपन के दिनों में गावस्कर के ९९ के स्कोर पर होने पर हो रहे रेडिओ कमेंट्री के दौरान होता था.
ऐसा लगता था कि गावस्कर अपना मालिकाना हक़ समझते हुए ९९ के स्कोर पर जितनी मर्ज़ी उतनी देर तक खेलते रहते थे. कभी कभी खाना या चाय के आधे घंटे पहले भी ९९ के स्कोर पर होने के बाद हरेक गेंद को "सम्मान पूर्वक" खेलते रहने के कारण जब हम डकार ले कर अगले भोजन या चाय पीने की तैयारी में होते थे तब वो सुशील दोषी के शब्दों में "बाहर जाती गेंद के साथ छेड़ छाड़" कर देते थे! ऐसे माहौल में जब गावस्कर ने "कुछ" तो किया, Murphy's Law की तरह उसी वक़्त घर के सामने के सड़क पर कोई मोटरसाइकिल वाला आ जाता था और हमारे ट्रांजिस्टर में सिर्फ "कट कट कट.…" जैसॆ आवाज़ आने लगती थी.... और उस शोर के के बीच हमें कुछ समझ में नहीं आता था. और जब मोटर साइकल आगे चल जाती थी, सुशील दोषी किसी पिता की तरह सांत्वना देने वाले स्वर में बोलते पाये जाते थे - "… बिलकुल गेंद टप्पा खा कर ऊपर और ऊपर (कितनी ऊपर?) आ कर मिडल स्टंप से ऑफ़ स्टंप और फिर बाहर और बाहर और बिलकुल बाहर (कितनी बाहर? स्टेडियम से भी बाहर?) जा रही थी.…… " बहुत देर तक समझ में ही नहीं आता था कि गावस्कर आउट या सेंचुरी या कुछ नहीं?
दरबान की बातें भी उसी तरह से किसी के समझ के परे होती थी और जिस तरह सुशील दोषी के कमेंट्री को जब ठहर कर दो मिनट इत्मीनान से सुनते थे कि "…और अगली गेंद को गावस्कर ने हल्का सा पुश कर दिया", तब जाकर यह स्पष्ट होता था कि गावस्कर अभी भी पिच पर खेल ही रहा है. दरबान की बात भी सुशील दोषी की तरह भावना से ओत प्रोत, खास कर रौद्र रस और खिन्न भाव से भरा होता था, बहुत देर तक उसकी इधर उधर की बात को सुनने के बाद उसका तात्पर्य या सन्दर्भ समझ में आता था.
दरबान से कोई भी शिकायत की जाती तो उसका उत्तर कुछ इस अंदाज़ में होता था कि लोग समझ जाते थे कि कुछ होने जाने को नहीं है. जैसे ट्रेन के गंतव्य रेलवे स्टेशन के आउटर सिग्नल पर मानो रुकने की प्रथा होती है और लोग सीट छोड़ गेट के पास खड़े हो कर बाहर निकलने की प्रतीक्षा में रहते हैं वैसे ही अंतिम साल होने की वजह से या तो लोग अब तक बी आई टी के व्यवस्था से वाकिफ या कॉलेज से निकलने और अनिश्चित भविष्य के बारे में ज्यादा चिंतित होते थे, संभवतः इसी कारण लोग इस दरबान के हर लापरवाही या अकर्मण्यता को नज़रअंदाज़ कर देते थे . और शायद यही वजह रही होगी की ये दरबान बिना रोक टोक के अपने हिसाब से अपनी जीवन शैली को चला रहा था.
दरबान की हरेक बात में कुछ शब्दों का प्रयोग बारम्बार होता था, कुछ तो मुझे अब भी याद हैं-"भैया", "लला", "होइ गवा है", "राव साहब" (हॉस्टल के वार्डन जो की सिविल के प्रोफसर लक्कपति हनुमंत राव होते थे), "इतवार", "बिफाई"(बृहस्पतिवार), "सम्मार"(सोमवार), और भी अनेक सारे और विचित्र अवधी शब्द हुआ करते थे, जो उसे रोक कर बार बार पूछने से पता चलता कि वो क्या कहना चाह रहा था.
रोचक बात यह थी कि दरबान ने ढलती उम्र में स्मार्ट फोन से उलझने जैसा कुछ काम कर लिया था और अपने बेटी की उम्र की एक नयी पत्नी घर ले आया था, यह बात हम सबों को पता चल गया था… आगे बताने की जरुरत नहीं है कि हॉस्टल के छात्रों की जिज्ञासा का विषय क्या होता होगा?
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