Hostel # 3 का शायद सबसे कम उम्र का एक वार्ड सर्वेंट हुआ करता था- संजय। सेना के नए रंगरूट सा बिलकुल चुस्त और फुर्तीला सा संजय तड़के सभी रूम को खटखटाता था और अगर खुला तो झाड़ू लगाता वरना आगे बढ़ जाता और आनन फानन में सभी रूम के बाहर रखे बाल्टी में हैंड पंप से पानी को भरता हुआ सबसे पहले हॉस्टल से गायब हो जाया करता था.
देर से उठने वाले प्राणियों को गुस्सा आता था क्योंकि कइयों को सिगरेट मंगवाना होता था या कोई और काम. कई बार सुदामा, जो उसी हॉस्टल का एक दूसरा वार्ड सर्वेंट हुआ करता था वही उसके हिस्से का काम कर दिया करता था.
अचानक से एक दिन खबर आया की संजय ने मैट्रिक का इम्तिहान पास कर लिया है. विषमताओं के बीच इस तरह के अदम्य साहस, उसकी लगन, निष्ठा और कड़े मेहनत को याद कर आज भी जी करता है कि उसे गले से लगा लूँ और उस से प्रेरित हो कर कुछ मैं भी ताकत पा लूँ!
जब मैं २००६ में बी आई टी गया था, मैं कोशिश की थी कि अपने बच्चों और पत्नी को न सिर्फ कॉलेज का हर कोना दिखाऊं बल्कि उन सभी लोगो से मिलने की कोशिश करूँ जिन्होंने न सिर्फ उन दिनों हमें मदद किया था बल्कि मुझे किसी न किसी कारण से अतयधिक प्रभावित किया था. इस कारण जब मैं कैम्पस में सुबह आया, तभी ही इन सबों के बारे में पूछना शुरू कर दिया और किसी कारण वश संजय का कोई पता नही चल पा रहा था. जब मैं अपने भ्रमण के अंतिम चरण पर मेहता स्टोर्स को देखते हुए निकलने को था तभी तेजी से साइकल चलाता हुआ संजय प्रकट हो गया और इसकी प्रसन्नता देखते बन रहा था. मैंने जितना उचित लगा उतनी आर्थिक मदद देने के बाद इस से इसके पढाई के बारे में पूछा जो बहुत उत्साहवर्धक नहीं था, वही समस्याएं जो हर गरीब परिवारों के "put the common multipliers outside the bracket" जैसा है, बूढ़े माँ बाप, बड़ा परिवार,जिम्मेदारियां, घर पर और कोई और कुछ नहीं करता है, आदि आदि.
बहरहाल, मुझे संजय के जज्बे और जिस तरह से उसने संकल्प ले के पढाई पूरी की थी, उन पर अब भी नाज़ है और मुझे उम्मीद है की आज के दिन वह कुछ बेहतर कर रहा होगा। ये नीचे ली गयी तस्वीर २००६ की है, शायद आप में से कुछ उसे पहचान सके-
देर से उठने वाले प्राणियों को गुस्सा आता था क्योंकि कइयों को सिगरेट मंगवाना होता था या कोई और काम. कई बार सुदामा, जो उसी हॉस्टल का एक दूसरा वार्ड सर्वेंट हुआ करता था वही उसके हिस्से का काम कर दिया करता था.
अचानक से एक दिन खबर आया की संजय ने मैट्रिक का इम्तिहान पास कर लिया है. विषमताओं के बीच इस तरह के अदम्य साहस, उसकी लगन, निष्ठा और कड़े मेहनत को याद कर आज भी जी करता है कि उसे गले से लगा लूँ और उस से प्रेरित हो कर कुछ मैं भी ताकत पा लूँ!
जब मैं २००६ में बी आई टी गया था, मैं कोशिश की थी कि अपने बच्चों और पत्नी को न सिर्फ कॉलेज का हर कोना दिखाऊं बल्कि उन सभी लोगो से मिलने की कोशिश करूँ जिन्होंने न सिर्फ उन दिनों हमें मदद किया था बल्कि मुझे किसी न किसी कारण से अतयधिक प्रभावित किया था. इस कारण जब मैं कैम्पस में सुबह आया, तभी ही इन सबों के बारे में पूछना शुरू कर दिया और किसी कारण वश संजय का कोई पता नही चल पा रहा था. जब मैं अपने भ्रमण के अंतिम चरण पर मेहता स्टोर्स को देखते हुए निकलने को था तभी तेजी से साइकल चलाता हुआ संजय प्रकट हो गया और इसकी प्रसन्नता देखते बन रहा था. मैंने जितना उचित लगा उतनी आर्थिक मदद देने के बाद इस से इसके पढाई के बारे में पूछा जो बहुत उत्साहवर्धक नहीं था, वही समस्याएं जो हर गरीब परिवारों के "put the common multipliers outside the bracket" जैसा है, बूढ़े माँ बाप, बड़ा परिवार,जिम्मेदारियां, घर पर और कोई और कुछ नहीं करता है, आदि आदि.
बहरहाल, मुझे संजय के जज्बे और जिस तरह से उसने संकल्प ले के पढाई पूरी की थी, उन पर अब भी नाज़ है और मुझे उम्मीद है की आज के दिन वह कुछ बेहतर कर रहा होगा। ये नीचे ली गयी तस्वीर २००६ की है, शायद आप में से कुछ उसे पहचान सके-
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