Hostel में खाने की समस्या, बचपन में समाज शास्त्र में पढ़ाये जाने वाला विषय - "भारत के पिछड़े होने के अनेक कारणों में से प्रमुख खाद्यान की आपूर्ति में आत्म-निर्भर न होना" का ही एक सूक्ष्म रूप में व्यापक समस्या का द्योतक था. कैंपस में और हॉस्टल में और भी अनेक तरह की समस्याएं होती थी परन्तु - रोटी, कपडा और मकान में से ऐसा प्रतीत होता था कि हमारे लिए तीसरे की समस्या तो नहीं थी, परन्तु हमारे "मकान" में जल का नितांत अभाव रहता था और हमारे जीवन में हैंड पंप के महत्व का ज्ञान प्राप्ति हुई.
जहां आभाव है वहीं विकल्प भी पनपते हैं. इस क्रम में, हर समस्याओं का निदान के रास्ते बनते चले गए और ४ साल कैसे पार हो गए हमें पता भी नहीं चला. हॉस्टल के खाने की समस्या का निदान को, तीन सतहों पर समझना पड़ेगा -
अनुभवी विक्रेता होने के कारण इधर उधर घूमते रहने की बजाय जब भी कोई उस से खरीदता था, वह बड़े प्यार से अपने सिर पर से टोकरी को उतार कर जमीन पर रख देता था. इसके बाद वह उसी जगह पर स्वयं को काफी देर के लिए स्थापित सा कर लेता था. केला या सेब की काट छाँट करते करते लोगो को अपने बातों में उलझाये रखने की कला उसमे भरपूर थी. इसका फायदा यह होता था कि जो लोग उनके साथ बातों में उलझते थे, उनकी हंसी और खिलखिलाहट से हॉस्टल के बाकी लोग भी उधर ही खींचते चले आते थे. फलों को पूरी तरह से काट छाँट कर देने के बाद बहुत ही रोचक अंदाज़ से उसके उपर नमक और मसाला का छिड़काव करते हुए कुछ हद तक अपने origami के हुनर का परिचय देता वह अखबार के एक टुकड़े से ही चम्मच बना देता था जो खाने के काम आ सकता था.
शायद फलवाला गया या औरंगाबाद का रहने वाला था और उसकी उर्दू उम्दा दर्ज़े की थी. इधर वह हर थोड़ी देर पर "अर्ज़ किया है… " का सिलसिला चलाता और उधर लोग फरमाइश और दाद के साथ साथ खरीदते भी चले जाते थे.
खास बात यह थी की बेचते तो ये veg सामान थे पर अगर "खुल" के बात करें तो बहुत ही प्यारी non veg शेरो शायरी का दौर भी चलता था....यानी आज के टीवी चैनल लाइन अप की तरह उसके पास आस्था या संस्कारी चैनेल से लेकर वो सभी भी थे जिसे देखने की हॉस्टल में हर कोई तमन्ना रखता था..!
अनेक शेरों में से कोई एक कोई "नाज़नीन...." वाला शेर हुआ करता था जो हरेक बार फरमाइश की जाती थी और उम्र में कई दशकों के फासले के बावजूद वो ज़िंदादिल फलवाला हर बार उतनी ही जोश के साथ, बच्चों की चंचलता के साथ हँसता हुआ सुना डालता था. आज भी जी चाहता है कि वापस उन दिनों में वापस चला जाऊं और उस फलवाले से फरमाइश कर दूँ. अगर किसी को आज भी याद हो तो वो नाज़नीन वाला शेर सुना दो यार …
जहां आभाव है वहीं विकल्प भी पनपते हैं. इस क्रम में, हर समस्याओं का निदान के रास्ते बनते चले गए और ४ साल कैसे पार हो गए हमें पता भी नहीं चला. हॉस्टल के खाने की समस्या का निदान को, तीन सतहों पर समझना पड़ेगा -
- टेस्ट मैच की तरह दोपहर और रात के भोजन के लिए जिस तरह भारत अनेक आवश्यक वस्तुओं के लिए आयात पर निर्भर करता है, उसी तर्ज़ पर हम कैंपस के बाहर के ढाबे पर आश्रित होते थे.
- वन डे की तरह खेले जाने वाले चाय और नाश्ते पर हम काफी हद तक आत्म-निर्भर थे और हमारे कैंपस के अंदर ही कैंटीन, कामेश्वर का ढाबा और बी जोन में गेट नं-१६ के बिलकुल सामने रोड को पार करते ही नंदू का ढाबा था.
- परन्तु टी 20 की तरह कभी भी जरूरत हो या न हो पर अनायास ही भूख जग जाने या मीटिंग मे सबों को बोलते देख अंदर से वक्ता जैसी भावना से ग्रसित मन, उन दिनों भी किसी को खाते देख "बहुत भूख लगी है", जैसी समस्या से अचानक ही घिर जाती थी. ऐसे समस्या के निदान के लिए दिन भर कोई न कोई फेरीवाला हॉस्टल में चक्कर लगते रहते थे- कभी मूंगफली वाला, कभी मिठाई वाला, कभी कोई बेकरी वाला और इन सबों में सबसे स्वस्थ विकल्प देता, एक फल वाला भी आता था.
अनुभवी विक्रेता होने के कारण इधर उधर घूमते रहने की बजाय जब भी कोई उस से खरीदता था, वह बड़े प्यार से अपने सिर पर से टोकरी को उतार कर जमीन पर रख देता था. इसके बाद वह उसी जगह पर स्वयं को काफी देर के लिए स्थापित सा कर लेता था. केला या सेब की काट छाँट करते करते लोगो को अपने बातों में उलझाये रखने की कला उसमे भरपूर थी. इसका फायदा यह होता था कि जो लोग उनके साथ बातों में उलझते थे, उनकी हंसी और खिलखिलाहट से हॉस्टल के बाकी लोग भी उधर ही खींचते चले आते थे. फलों को पूरी तरह से काट छाँट कर देने के बाद बहुत ही रोचक अंदाज़ से उसके उपर नमक और मसाला का छिड़काव करते हुए कुछ हद तक अपने origami के हुनर का परिचय देता वह अखबार के एक टुकड़े से ही चम्मच बना देता था जो खाने के काम आ सकता था.
शायद फलवाला गया या औरंगाबाद का रहने वाला था और उसकी उर्दू उम्दा दर्ज़े की थी. इधर वह हर थोड़ी देर पर "अर्ज़ किया है… " का सिलसिला चलाता और उधर लोग फरमाइश और दाद के साथ साथ खरीदते भी चले जाते थे.
खास बात यह थी की बेचते तो ये veg सामान थे पर अगर "खुल" के बात करें तो बहुत ही प्यारी non veg शेरो शायरी का दौर भी चलता था....यानी आज के टीवी चैनल लाइन अप की तरह उसके पास आस्था या संस्कारी चैनेल से लेकर वो सभी भी थे जिसे देखने की हॉस्टल में हर कोई तमन्ना रखता था..!
अनेक शेरों में से कोई एक कोई "नाज़नीन...." वाला शेर हुआ करता था जो हरेक बार फरमाइश की जाती थी और उम्र में कई दशकों के फासले के बावजूद वो ज़िंदादिल फलवाला हर बार उतनी ही जोश के साथ, बच्चों की चंचलता के साथ हँसता हुआ सुना डालता था. आज भी जी चाहता है कि वापस उन दिनों में वापस चला जाऊं और उस फलवाले से फरमाइश कर दूँ. अगर किसी को आज भी याद हो तो वो नाज़नीन वाला शेर सुना दो यार …
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