एक बहुत ही रोचक पात्र का रामायण में वर्णन आता है जो निस्स्वार्थ भाव से सेवा करते हुए स्वयं को धन्य समझता है, जिसने प्रभु को नदी पार कराने के पारिश्रमिक के रूप में उनके चरणो को धोने का काम ही माँगा था । जब मैंने पहली बार इस पात्र के बारे में पढ़ा, तो स्वयं से प्रश्न किया कि क्या केवट सिर्फ एक काल्पनिक पात्र था या वास्तविक जीवन में भी कोई ऐसा होता होगा जो अपने काम के प्रति इतना समर्पित होता हो।
BIT के हॉस्टलों में रहते हुए हम कई मायनों में वार्ड सर्वेंट्स पर लगभग आश्रित से हो गए थे। आम तौर पर हमें सुबह उठते ही चिल्ला कर उन्हें बुलाने की या डाँटने की लगभग आदत सी हो गयी थी। वार्ड सर्वेन्ट्स भी बाबुओं की कमज़ोरी जानते थे और उन्हें पता था कि उनकी सबसे ज्यादा जरुरत सुबह होती थी, जब लोगों को पीने का पानी, कमरे में झाड़ू लगाना और बाकी दिन भर के कुछ और काम बताने की जरुरत होती थी।
वार्ड सर्वेन्ट्स भी डार्विन के "theory of natural selection" के हिसाब से, "बाबुओं" के झुण्ड में से जो सबसे ज्यादा चिड़चिड़े या चीखने चिल्लाने वाले होते थे, उनका काम करते हुए "ध्वनि प्रदुषण" के रोकथाम में मदद करते थे… और बाकियों को -"आ रहा हूँ", "बस एक मिनट बाबू" और कुछ ऐसे वैसे डायलॉग बोलते हुए समय निकाल देते थे...…! जैसे ही क्लास को जाने का समय हो जाता था, लोग चीखते चिल्लाते वार्ड सर्वेंट को कोसते हुए, कॉलेज निकल जाते।
कई "बाबू" तो देर से सो कर ही उठते थे, और "जो जागत है सो पावत है, जो सोवत है सो खोवत है" को सचमुच में साकार होते हुए देखते थे , क्योकि तब तक उनके बाकी साथी क्लास में ज्ञान की गंगा में स्कूबा डाइव लगा कर ज्ञान के कितने सारे मोती पा चुके होते थे , और इधर अपने तन के मैल को हटाने और रात के हैंगओवर को खतम करने के लिए वे नहाने की तैयारी में होते थे। किश्तों में सो सो कर वे end term तक अपनी नींद को पूरा कर लेते थे, जहाँ पूरे तीन घंटे गर्दन को जिराफ की तरह सीधा ताने और बगुले की तरह नज़रों का ध्यान लगा कर उन्हें चौकन्ना रहना पड़ता था।
आम तौर पर हॉस्टल में देर से उठने वाले को निम्नलिखित फायदे मिलते थे :
- "सबकी मंज़िल एक" वाले स्थान में जहाँ तीन में से सिर्फ एक ही "functional" रहता था, और जो सुबह सुबह "नरक में भी मारा मारी" का जीता प्रमाण होता था, वहाँ जितनी मर्ज़ी उतनी देर तक बैठ कर "टेस्ट मैच" खेलने का मौका मिलता था
- सबो के कमरे के आगे रखे बाल्टी के पानी को लेकर इत्मीनान से नहाने को मिल जाता था
- मेस में "कड़कड़ा के पराठे बना के लाने" जैसा फरमान दे कर, अकेले में जितनी देर मर्ज़ी उतनी देर तक इत्मीनान से खाने का आनंद मिलता था
- झूमते झामते हुए सिगरेट के हरेक कश को इत्मीनान से पीते हुए क्लास पहुँचने का भी अद्भुत आनंद मिलता था!
- सड़क पूरी खाली होती थी और किसी धीरे चलने वाले या झुण्ड बना कर चलने वाले को "ओवरटेक" नहीं करना पड़ता था
- आधे रास्ते में कोई लौटता हुआ आते मिल जाए तो ये भी पता चल जाता था कि शायद कोई क्लास कैंसिल हो गया हो, तो वही से तुरंत वापस हॉस्टल
बहरहाल वार्ड सर्वेन्ट्स का बाबुओं के साथ सामंजस्य स्थापित हो जाता था मतलब जैसा "बाबू" वैसा ही काम का तरीका। चूँकि वार्ड सर्वेन्ट्स आम तौर पर अस्थायी कर्मचारी के तौर पर काम करते थे और हॉस्टल के आमदनी पर ही आश्रित तो नहीं रह सकते थे, लाज़मी था कि वे आय के स्त्रोत के लिए कोई और रास्ता भी निकालते। इसलिए मौका मिलते ही बाबुओं से कन्नी काट कर उनका आँखों से ओझल हो जाना एक सामान्य सी बात थी।
अंतिम साल जब मैं हॉस्टल ३ में आया तो अनायास ही एक वार्ड सर्वेंट ने बरबस मुझे अपने व्यक्तित्व की ओर आकर्षित कर लिया। सौम्य स्वाभाव का, अपने काम को बड़ी लगन के साथ करता और साथ ही सबों से बड़े अदब और प्यार से बातें करता वह लगभग मेरे लिए अलार्म क्लॉक जैसा था, सुबह उसके दरवाजे खटखटाने से ही मेरी नींद खुलती थी.
सुदामा अपने युवावस्था में था और बहुत ही फुर्तीला था. सुबह भागता भागता सभी के कमरे को जितनी जल्दी हो सके झाड़ू लगा देता, बाल्टी में पानी भी भर देता और साथ ही दिन भर के कोई और भी काम हो, उसे भी समझता हुआ वह एक कोने से दूसरे कोने भागता ही सा नज़र अाता था। सबों को प्रसन्न रखना मानो उसकी फितरत थी। छुट्टियों के दिन तो वह और भी जोश के साथ झाड़ू लिए कमरे को साफ़ करने आ जाता था, साथ ही कभी कभी हॉस्टल के दीवारों में लगे मकड़े के जालों को साफ़ करता दिख जाता। कमरे के अंदर भी हमें किताबों को ठीक से रखने में, पुराने बक्सों को साफ़ करने में, या और कोई भी रोजमर्रा के कामों की जरूरत हो- दरजी से कपडे की या मोची से जूते की मरम्मत हो या कोई और काम.…… हर काम करने के लिए सुदामा हमेशा तत्पर रहता था। मुझे बड़ा ताज़्ज़ुब होता था कि आम तौर पर तो वार्ड सर्वेन्ट्स मौका मिलते ही गायब हो जाते थे या किसी तरह से उन्हें बुलाने पर ही वो नज़र आते थे, परन्तु सुदामा तो खुद ही किसी भी काम के लिए हाज़िर रहता था। सबसे अच्छी बात थी कि वह हर काम को बिना किसी के याद दिलाये या शिकायत किये, खुद ही करता रहता था।
अक्सर शाम को सुदामा शहरपुरा से लोगों के लिए सामान लेकर लौटता दिख जाता, एक हाथ से साइकल चलाता और दुसरे हाथ में कुछ "विशेष पार्सल" लिए, इस भय से कि कही साइकल के हैंडल से टकरा कर बोतल टूट न जाए, बड़ी करतब दिखाता आते दिख जाता था। विशेष पार्सल जायसवाल के मंदिर का प्रसाद - सोमरस होता था । पूरी दांतों को दिखाते हुए हँसता और शर्माता हुआ जो बख्शीश मिल जाए उसे खुशी खुशी लेता हुआ सुदामा शाम को अपने घर चला जाता था। शायद ही ऐसा कोई हो जो उसके काम से प्रसन्न न हो, हर कोई उसके काम से बहुत ही प्रभावित रहता था और वह सबों का दिल जीतने का फ़न जानता था।
हॉस्टल में दो वार्ड सर्वेन्ट्स थे और सुदामा के अलावा एक संजय भी हुआ करता था। संजय अक्सर हॉस्टल के जितना काम हो सकता था कर के जल्दी चला जाता था, और कई लेट लतीफ़ उठने वाले लोगों का कोपभाजक होता था। परन्तु सुदामा को जैसे ही संजय के अधूरे काम का पता चलता , बिना कोई और शिकायत का मौका दिए उसके हिस्सा का काम भी फ़ौरन कर देता था। ये बात हमें बाद में समझ में आया कि संजय काम के बाद पढ़ने जाता था, बाद में हमें पता चला कि संजय ने मैट्रिक की परीक्षा पास कर ली।
एक बार मैंने उसके इतने लगन से काम करने के कारण जानने की कोशिश की, संक्षेप में ये पता लगा की वह अपने काम को बहुत ही गंभीरता से लेता था, और निष्ठापूर्वक काम करके किसी से शिकायत न मिले तो वह बहुत संतुष्ट रहता था। उसने आगे जो कहा उस से उसके व्यक्तित्व की गहराई का पता चला - "आप सब लोग भी तो इतना मेहनत और लगन से अपना काम करते हैं, कल को जब आप लोग बड़ा साहेब बनेंगे तो हमें भी तो अच्छा लगेगा न बाबू!!"
पहली बार कॉलेज में मुझे ऐसा एहसास हुआ कि कोई ऐसा भी था, जिसे दूसरों की सफलता में अपनापन दिखता था या जो सबों को अपना समझ कर सबकी खुशियों में ही अपनी भी देखता था. जो गीता में बताये "कर्म किये जा फल की चिंता न कर", को सच्चे रूप से अपने जीवन में ढाला था। कोई तो ऐसा था, जो खुशियों के बीज को लगा कर, उसे सींच कर चारों तरफ जैसे खुशियों की बयार चला देता था!
सुदामा बड़ा ही छोटे ओहदे का इंसान था जो शायद बिलकुल कम पढ़ा लिखा था, पर उसके सोच और विचार बहुत उच्च कोटि के थे! उसने मुझे ये सीखा दिया था कि जीवन में बड़ा बनने के लिए सिर्फ ऊँचे पद पर या धनी होने की आवश्यकता नहीं है, बल्कि जो काम मिले उसे निष्ठापूर्वक करते हुए सबो को खुश देखने से ही सच्चा सुख मिलता है।
अपने २००६ के सिंदरी के कैंपस के दौरे पर मैं सुदामा से फिर मिला, वैसा ही था जैसा कई सालों पहले दिखता था और उतना ही खुशमिज़ाज और जीवन से संतुष्ट!
मेरे लिए सुदामा यथार्थ का "केवट" है , जिसने कितने सारे "बाबुओं" को विद्यार्थी जीवन की नदी को पार कराने में सहयोग दिया है और उनके सेवा को ही अपना पारिश्रमिक माना। कोई तो शायद लौट के आ के उसे बताता कि "देख सुदामा, तेरे मेहनत से मैं आज एक सक्षम इंसान बन गया हूँ", सच उसे कितनी प्रसनता मिलती क्योंकि हम माने या न माने वह हमारे सफलता में अपना भी हक़ समझता था!
BIT के हॉस्टलों में रहते हुए हम कई मायनों में वार्ड सर्वेंट्स पर लगभग आश्रित से हो गए थे। आम तौर पर हमें सुबह उठते ही चिल्ला कर उन्हें बुलाने की या डाँटने की लगभग आदत सी हो गयी थी। वार्ड सर्वेन्ट्स भी बाबुओं की कमज़ोरी जानते थे और उन्हें पता था कि उनकी सबसे ज्यादा जरुरत सुबह होती थी, जब लोगों को पीने का पानी, कमरे में झाड़ू लगाना और बाकी दिन भर के कुछ और काम बताने की जरुरत होती थी।
वार्ड सर्वेन्ट्स भी डार्विन के "theory of natural selection" के हिसाब से, "बाबुओं" के झुण्ड में से जो सबसे ज्यादा चिड़चिड़े या चीखने चिल्लाने वाले होते थे, उनका काम करते हुए "ध्वनि प्रदुषण" के रोकथाम में मदद करते थे… और बाकियों को -"आ रहा हूँ", "बस एक मिनट बाबू" और कुछ ऐसे वैसे डायलॉग बोलते हुए समय निकाल देते थे...…! जैसे ही क्लास को जाने का समय हो जाता था, लोग चीखते चिल्लाते वार्ड सर्वेंट को कोसते हुए, कॉलेज निकल जाते।
कई "बाबू" तो देर से सो कर ही उठते थे, और "जो जागत है सो पावत है, जो सोवत है सो खोवत है" को सचमुच में साकार होते हुए देखते थे , क्योकि तब तक उनके बाकी साथी क्लास में ज्ञान की गंगा में स्कूबा डाइव लगा कर ज्ञान के कितने सारे मोती पा चुके होते थे , और इधर अपने तन के मैल को हटाने और रात के हैंगओवर को खतम करने के लिए वे नहाने की तैयारी में होते थे। किश्तों में सो सो कर वे end term तक अपनी नींद को पूरा कर लेते थे, जहाँ पूरे तीन घंटे गर्दन को जिराफ की तरह सीधा ताने और बगुले की तरह नज़रों का ध्यान लगा कर उन्हें चौकन्ना रहना पड़ता था।
आम तौर पर हॉस्टल में देर से उठने वाले को निम्नलिखित फायदे मिलते थे :
- "सबकी मंज़िल एक" वाले स्थान में जहाँ तीन में से सिर्फ एक ही "functional" रहता था, और जो सुबह सुबह "नरक में भी मारा मारी" का जीता प्रमाण होता था, वहाँ जितनी मर्ज़ी उतनी देर तक बैठ कर "टेस्ट मैच" खेलने का मौका मिलता था
- सबो के कमरे के आगे रखे बाल्टी के पानी को लेकर इत्मीनान से नहाने को मिल जाता था
- मेस में "कड़कड़ा के पराठे बना के लाने" जैसा फरमान दे कर, अकेले में जितनी देर मर्ज़ी उतनी देर तक इत्मीनान से खाने का आनंद मिलता था
- झूमते झामते हुए सिगरेट के हरेक कश को इत्मीनान से पीते हुए क्लास पहुँचने का भी अद्भुत आनंद मिलता था!
- सड़क पूरी खाली होती थी और किसी धीरे चलने वाले या झुण्ड बना कर चलने वाले को "ओवरटेक" नहीं करना पड़ता था
- आधे रास्ते में कोई लौटता हुआ आते मिल जाए तो ये भी पता चल जाता था कि शायद कोई क्लास कैंसिल हो गया हो, तो वही से तुरंत वापस हॉस्टल
बहरहाल वार्ड सर्वेन्ट्स का बाबुओं के साथ सामंजस्य स्थापित हो जाता था मतलब जैसा "बाबू" वैसा ही काम का तरीका। चूँकि वार्ड सर्वेन्ट्स आम तौर पर अस्थायी कर्मचारी के तौर पर काम करते थे और हॉस्टल के आमदनी पर ही आश्रित तो नहीं रह सकते थे, लाज़मी था कि वे आय के स्त्रोत के लिए कोई और रास्ता भी निकालते। इसलिए मौका मिलते ही बाबुओं से कन्नी काट कर उनका आँखों से ओझल हो जाना एक सामान्य सी बात थी।
अंतिम साल जब मैं हॉस्टल ३ में आया तो अनायास ही एक वार्ड सर्वेंट ने बरबस मुझे अपने व्यक्तित्व की ओर आकर्षित कर लिया। सौम्य स्वाभाव का, अपने काम को बड़ी लगन के साथ करता और साथ ही सबों से बड़े अदब और प्यार से बातें करता वह लगभग मेरे लिए अलार्म क्लॉक जैसा था, सुबह उसके दरवाजे खटखटाने से ही मेरी नींद खुलती थी.
सुदामा अपने युवावस्था में था और बहुत ही फुर्तीला था. सुबह भागता भागता सभी के कमरे को जितनी जल्दी हो सके झाड़ू लगा देता, बाल्टी में पानी भी भर देता और साथ ही दिन भर के कोई और भी काम हो, उसे भी समझता हुआ वह एक कोने से दूसरे कोने भागता ही सा नज़र अाता था। सबों को प्रसन्न रखना मानो उसकी फितरत थी। छुट्टियों के दिन तो वह और भी जोश के साथ झाड़ू लिए कमरे को साफ़ करने आ जाता था, साथ ही कभी कभी हॉस्टल के दीवारों में लगे मकड़े के जालों को साफ़ करता दिख जाता। कमरे के अंदर भी हमें किताबों को ठीक से रखने में, पुराने बक्सों को साफ़ करने में, या और कोई भी रोजमर्रा के कामों की जरूरत हो- दरजी से कपडे की या मोची से जूते की मरम्मत हो या कोई और काम.…… हर काम करने के लिए सुदामा हमेशा तत्पर रहता था। मुझे बड़ा ताज़्ज़ुब होता था कि आम तौर पर तो वार्ड सर्वेन्ट्स मौका मिलते ही गायब हो जाते थे या किसी तरह से उन्हें बुलाने पर ही वो नज़र आते थे, परन्तु सुदामा तो खुद ही किसी भी काम के लिए हाज़िर रहता था। सबसे अच्छी बात थी कि वह हर काम को बिना किसी के याद दिलाये या शिकायत किये, खुद ही करता रहता था।
अक्सर शाम को सुदामा शहरपुरा से लोगों के लिए सामान लेकर लौटता दिख जाता, एक हाथ से साइकल चलाता और दुसरे हाथ में कुछ "विशेष पार्सल" लिए, इस भय से कि कही साइकल के हैंडल से टकरा कर बोतल टूट न जाए, बड़ी करतब दिखाता आते दिख जाता था। विशेष पार्सल जायसवाल के मंदिर का प्रसाद - सोमरस होता था । पूरी दांतों को दिखाते हुए हँसता और शर्माता हुआ जो बख्शीश मिल जाए उसे खुशी खुशी लेता हुआ सुदामा शाम को अपने घर चला जाता था। शायद ही ऐसा कोई हो जो उसके काम से प्रसन्न न हो, हर कोई उसके काम से बहुत ही प्रभावित रहता था और वह सबों का दिल जीतने का फ़न जानता था।
हॉस्टल में दो वार्ड सर्वेन्ट्स थे और सुदामा के अलावा एक संजय भी हुआ करता था। संजय अक्सर हॉस्टल के जितना काम हो सकता था कर के जल्दी चला जाता था, और कई लेट लतीफ़ उठने वाले लोगों का कोपभाजक होता था। परन्तु सुदामा को जैसे ही संजय के अधूरे काम का पता चलता , बिना कोई और शिकायत का मौका दिए उसके हिस्सा का काम भी फ़ौरन कर देता था। ये बात हमें बाद में समझ में आया कि संजय काम के बाद पढ़ने जाता था, बाद में हमें पता चला कि संजय ने मैट्रिक की परीक्षा पास कर ली।
एक बार मैंने उसके इतने लगन से काम करने के कारण जानने की कोशिश की, संक्षेप में ये पता लगा की वह अपने काम को बहुत ही गंभीरता से लेता था, और निष्ठापूर्वक काम करके किसी से शिकायत न मिले तो वह बहुत संतुष्ट रहता था। उसने आगे जो कहा उस से उसके व्यक्तित्व की गहराई का पता चला - "आप सब लोग भी तो इतना मेहनत और लगन से अपना काम करते हैं, कल को जब आप लोग बड़ा साहेब बनेंगे तो हमें भी तो अच्छा लगेगा न बाबू!!"
पहली बार कॉलेज में मुझे ऐसा एहसास हुआ कि कोई ऐसा भी था, जिसे दूसरों की सफलता में अपनापन दिखता था या जो सबों को अपना समझ कर सबकी खुशियों में ही अपनी भी देखता था. जो गीता में बताये "कर्म किये जा फल की चिंता न कर", को सच्चे रूप से अपने जीवन में ढाला था। कोई तो ऐसा था, जो खुशियों के बीज को लगा कर, उसे सींच कर चारों तरफ जैसे खुशियों की बयार चला देता था!
सुदामा बड़ा ही छोटे ओहदे का इंसान था जो शायद बिलकुल कम पढ़ा लिखा था, पर उसके सोच और विचार बहुत उच्च कोटि के थे! उसने मुझे ये सीखा दिया था कि जीवन में बड़ा बनने के लिए सिर्फ ऊँचे पद पर या धनी होने की आवश्यकता नहीं है, बल्कि जो काम मिले उसे निष्ठापूर्वक करते हुए सबो को खुश देखने से ही सच्चा सुख मिलता है।
अपने २००६ के सिंदरी के कैंपस के दौरे पर मैं सुदामा से फिर मिला, वैसा ही था जैसा कई सालों पहले दिखता था और उतना ही खुशमिज़ाज और जीवन से संतुष्ट!
मेरे लिए सुदामा यथार्थ का "केवट" है , जिसने कितने सारे "बाबुओं" को विद्यार्थी जीवन की नदी को पार कराने में सहयोग दिया है और उनके सेवा को ही अपना पारिश्रमिक माना। कोई तो शायद लौट के आ के उसे बताता कि "देख सुदामा, तेरे मेहनत से मैं आज एक सक्षम इंसान बन गया हूँ", सच उसे कितनी प्रसनता मिलती क्योंकि हम माने या न माने वह हमारे सफलता में अपना भी हक़ समझता था!

संजय बाबू बहुत बढ़िया विवरण है। मेरी याददाश्त का तो ये आलम है कि मुझे ना तो सुदामा याद है ना ही संजय। हाँ अवधिया दरबान और और एक वार्ड सर्वेंट जिसे कीर्ति के नाम से जाना जाता था वह जरूर याद है। दिवंगत दीपू अक्सर उसे पचास पैसे देता और कहता कि "जाओ ऐश करो कीर्ति" . दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे में अमरीश पुरी का एक डायलाग "जा जी ले अपनी ज़िन्दगी सिमरन" ये तो बाद में आया। दीपू ने तक़रीबन वैसा ही डायलाग एक दशक पहले ही दे डाला था। एक बात और याद आ गयी लिखते लिखते. अविनाश और बिनोद सिंह अक्सर अपनी बुद्धि को प्रकाशमय करने के लिए "कीर्ति" का सहारा लिया करते थे। कीर्ति मुस्कराकर अपने दोनों हाथों का कला कौशल दिखाते हुए बुद्धिवर्धक चूर्ण किसी वैद्य की तरह तैयार करता और अपने रहनुमाओं को सुपुर्द करता। दोनों ही कीर्ति से गाहे बगाहे उस पदार्थ जिसे खैनी के नाम से जाना जाता है की मांग करते । कीर्ति को देख कर ऐसा प्रतीत होता जैसे कि प्रभु ने आज प्रसाद चढाने को खुद ही कह दिया हो। एक दफे अविनाश भाई ने बातचीत के दौरान खैनी और साम्यवाद के घनिष्ठ सम्बन्ध को अपने नायाब लहजे में समझा डाला। खैनी की वजह से वे कम्युनिस्ट हो गए थे क्यूंकि ये ही वह पदार्थ है जो गरीबों को अमीरों से सहजता से जोड़ता है । "तनी एक चुटकी हमको भी दीजियेगा" ये गुहार अमीर भी ग़रीब तबके के व्यक्ति से बेझिझक करता है। अविनाश भाई कहा करते थे आप सिगरेट नहीं माँगते अनजान लोगों से पर खैनी माँगने में कभी संकोच नहीं करते। खैनी में वो ताकत है जो वर्गों के बीच की दूरी को कुछ देर लिए ही सही मिटाता अवश्य है। ये अलग बात है बिहार में खैनी के जबरदस्त प्रचलन बावजूद न तो साम्यवाद ही पनपा और न ही समुदायों के बीच सौहार्द ही बढ़ा।
ReplyDeleteबहरहाल मित्रों की कोशिश से साम्यवाद भले ही ना आया हो पर इस दौरान कई लोगों ने कोशिश में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। मसलन मेस के कुक से मांग कर बीड़ी का सेवन या देशपाण्डे सभागार में पीछे की सीट पर बैठ कर "५०२ पताका बीड़ी" के कश लगाना। महीने के अंतिम चरण में धन के आभाव में और चारा भी नहीं होता था। पता नहीं आप इन साम्यवादियों की जमात में शामिल थे या नहीं। पैसे ख़त्म हो जाने की अवस्था में कई दक्षिणपंथियों को भी साम्यवादी बनने में परहेज नहीं था। अलबत्ता प्रिंस हेनरी तम्बाकू को कागज में रोल कर पीना भी अनुभव था। दीपांकर हॉस्टल प्रथा के प्रणेता थे। हालाँकि सुविधा मैंने भी काफी उठाया है।
फिलहाल इतना ही। अरसे बाद इतनी सारी हिंदी लिख कर अच्छा लग रहा है।