बचपन में आचार्य विनोबा की लिखी एक निबंध -"जीवन और शिक्षण" पढ़ा था। उन दिनों तो इस तरह के निबंध, सिर्फ और सिर्फ परीक्षा में अच्छे नंबर, लाने के लिए पढ़ा जाता था। परन्तु उस उपक्रम में अंदर ले लिये गए इस तरह के ज्ञान के बीज, अब अंदर ही अंदर गहरी पैठ बना चुकी हैं। इतने दिनों बाद, जब उन तथ्यों को आत्मसात कर रहा हूँ, तो लेख की कुछ पंक्तियों बरबस याद आ जाते हैं। इतने साल के अनुभव के साथ आज वे ज्यादा तर्कसंगत लगते हैं।

संम्पूर्ण गैरजिम्मेदारी से संम्पूर्ण जिम्मेदारी में कूदना तो एक हनुमान-कूद ही हुई । ऐसी हनुमान-कूद की कोशिश में हाथ-पैर टूट जाय तो क्या अचरज? - विनोबा भावे

बचपन में पढ़े हुए निबंध या कहानियों में, अपने विचारों को प्रकट करने के लिए जिन शब्दों और मुहावरों को प्रयोग होता था, वे बहुत सटीक और तर्कसंगत होते थे । "हनुमान कूद"- जब पहली बार पढ़ा था, उसी क्षण शब्दों के इस अनूठे अभिव्यक्ति ने मन में एक गुदगुदी सी कर दी थी, और आज भी यह मुहावरा उतना ही ताज़ा और रोचक लगता है। विनोबाजी ने, उन दिनों के शिक्षण पद्धिति पर टिप्पणी करते हुए, अपने विचारों को व्यक्त करने के लिए बहुत ही सटीक मुहावरा का उपयोग किया था।



भारतीय शिक्षा प्रणाली - बरसों से- वास्तविकता से कोसो दूर थी। आज भी है। और भविष्य में भी स्थिति यथावत ही रहेगा। विनोबा जी ने यह लेख शायद १९५२ में लिखा था। मैं १९८३ के आस पास इस लेख को पढ़ा था। तदोपरांत, १९८९-९० में - फाइनल ईयर इंजीनियरिंग में - पढाई के अधूरेपन को महसूस किया था। आज अभी जब यह ब्लॉग लिख रहा हूँ, तब भी भारतीय शिक्षा प्रणाली बद से बदतर वाले स्थिति में है- "सिर्फ पढाई के लिए पढाई"- उनका मूल मंत्र है ।

एक सामान्य भारतीय विद्यार्थी के पढाई पूरी करने के पश्चात, उसकी अकर्मण्यता वाली स्थिति पर कटाक्ष करते हुए, आचार्य विनोबा ने लिखा था कि - यथार्थ के जीवन में आना - एक हनुमान कूद के सामानांतर था। विनोबा जी ने, विद्यार्थी जीवन और यथार्थ के बीच बने गहरे खाई और उसको पाटने के प्रयास पर कटाक्ष करते हुए, उस परिपेक्ष्य में "हनुमान-कूद" कहा था।

अचरज की बात है कि जिस शिक्षण पद्धिति को कोसते हुए उन्होंने ये प्रवचन दिया था- जो एक लेख के रूप में हमारे पुस्तक में आ गयी थी - सर्वथा उसी सड़ी-गली शिक्षा पद्दति के बोझ के तले दब कर सिसकियाँ लेती रह गई । और इस तरह से विनोबा जी के इसी लेख का सन्देश  - पढाई से ज्यादा आवश्यक व्यवहारिक ज्ञान का होना है - सिर्फ परीक्षा में अच्छे अंक लाने तक में ही सिमट कर रह गई।

व्यवहारिकता का शिक्षा में समावेश - सिर्फ एक कोरी कल्पना सी है। जिस खाई की चर्चा विनोबा जी ने १९५२ में की थी, निरंतर वह बढ़ती चली गयी और आज दिल्ली विश्वविद्यालय के आवेदन के लिए - 100 % cut-off अगर हमारे शिक्षा-विद् के लिए eye-opener नहीं है तो शायद आगे और कुछ नहीं बचा है… !

बहरहाल, कुछ इसी तरह के माहौल में हम भी इंजीनियरिंग के अंतिम वर्ष के आस पास आ गए थे। अब तक, न हम हनुमान बन पाये, न ही हम कभी कूदे थे - बस पढाई के बोझ के तले गधे बन कर, आगे आने वाले समय को सोच कर - किंकर्तव्यविमूढ़ वाली स्थिति में थे ।  "तत किं? तत किं? तत किं?" अर्थात - "आगे क्या?" - के प्रश्न करते- करते तीन साल गुजर गए थे। अब तक तो सामूहिक "चरैवेति चरैवेति " (चलते रहो, चलते रहो) था पर इसके आगे "एकला चलो रे" का दौर का शुरू होने का दस्तक, हमारे मानस पटल के बंद दरवाजे पर, पड़ चुका था।

उन दिनों के हिसाब से, मेडिकल या इंजीनियरिंग की पढाई कर लेना - पढाई का चरमोत्कर्ष था।  संक्षेप में, पढाई यही तक की जाती थी। इसके बाद  M. Tech. की पढाई - कुछ न करने की मज़बूरी की भावना से प्रेरित हो कर की जाती थी। MBA की तैयारी हिम्मत वालों के लिए सुरक्षित था। UPSC - जिसे ज्यादातर लोग आईएएस की तैयारी कहते थे - वह एक लम्बे समय तक वन डे में सिर्फ विकेट पर जमे रह कर घर जैसे "पैवेलियन" में न रह कर, मोहल्ले के बाण से चलते हुए प्रश्नों के तीरों के वार से बचने का, उपक्रम सा होता था।

आईएएस के तैयारी लगभग पंच-वर्षीय योजना सा होता था। किसी भी तरह के टीका टिप्पणी, या - "इंजीनियरिंग की पढ़ाई तो अब हो गयी होगी, आजकल आप क्या कर रहे है?" - जैसे प्रश्नों से निक्षुण्ण करने का अच्छा निदान होता था। "आजकल आईएएस की तैयारी करने के लिए दिल्ली रहता हूँ "- जैसे संकल्प लेकर दिया वक्तव्य, बिहारीलाल के दोहे की तरह सारगर्भित - "गागर में सागर"- लिए हुए सा होता था। अनेको प्रश्नों और शंका समाधान के उत्तर, स्पष्टीकरण और उन सब के ऊपर, आईएएस बन जाने की उम्मीद की कलई लगाया हुआ, यह चमचम मिठाई की तरह हर किसी के ज़ायके और स्वास्थ्य के लिए उपयुक्त कथन सा होता था । इस दौरान गावस्कर के 174 balls पर एक चौके से बनाई 36 रन वाली पारी तो सबों को याद ही होगा! UPSC के लम्बे दौर तक परीक्षा के तैयारी के बारे में एक फब्ती मशहूर था कि - "One young man went for an IAS Interview."

शिक्षा के अंतिम चरण में आकर, जीवन अपने संध्या बेला की ओर तीव्रता से अग्रसारित थी। अंधकार में डूबे - "योऽअर्थशुचि, स हि शुचि" -अर्थात जो आर्थिक दृष्टि से पवित्र है, वही पवित्र है- इस भावना के  दीपक को जलाने का समय आ गया था। पर हम में से किसी को भी, वास्तविक जीवन में "आर्थिक-लाभ" अर्थात "धन-अर्जन" करने का, कोई अनुभव नहीं था।

दिमाग पर बहुत जोर डालने से याद आया कि - बचपन में, एकाध बार "व्यापार - monopoly" खेल कर कुछ इस तरह का उपक्रम किये थे। पर उस से आगे, अब तक कभी पैसे कमाने की जरुरत ही नहीं पड़ा था। अब तक हॉस्टल में रहते हुए, घर से जो भी रकम आ जाते थे, उनको सिर्फ व्यय करना जानते थे। हमें धन-अर्जन करने के कोई गुर नहीं मालूम थे। कुल मिला कर जमशेदपुर की भाषा में - "बाप के होटल" में गुज़ारा चल रहा था।

मुझे स्मरण हो गया कि इंजीनियरिंग के फर्स्ट ईयर में किसी से जो सुना था, और आने वाले सालों में वैसा ही अनुभव भी किया था,  कि - "फर्स्ट ईयर में चीफ इंजीनियर, सेकंड ईयर में सुपेरेंटिंडेंट इंजीनियर, थर्ड ईयर में सिर्फ इंजीनियर और फाइनल ईयर तक आते आते- ये इंजीनियर क्या होता है- कोई सा भी जॉब मिल जाए, बस वही बहुत होगा !"

फाइनल ईयर का समय आ चुका था, Carbon-Cycle के तर्ज़ पर - "इंजीनियर के भावना-चक्र" से हम सभी गुज़र चुके थे।  ४ साल पहले जब BIT में इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने आये थे , उस वक़्त भी - "हम कुछ नहीं थे"-  चार वसंत देखने के बाद भी शाखों पर एक भी पत्ते सही सलामत से नहीं थे-
वो शाख़ शाख़ नीले पीले लाल रंग क्या हुए,
तमाम दश्त के परिंद ज़ाग बन के रह गए। - आलम खुर्शीद
(शाख- पेड़, दश्त - जंगल, परिंद- पक्षी, ज़ाग - कौवा )