BIT कैंपस कुल मिला कर गाँव की पुरानी उपेक्षित महिला की तरह थी, जो सालों पहले नयी नवेली दुल्हन की तरह सज धज कर बनारसी साड़ी में होती थी - पर वक़्त बीतने के बाद - चूल्हा फूंकते और घर का काम करते करते, मदर इंडिया की नर्गिस जैसी बेरौनक, बेगाना, वीराना, हक़ीक़त के धूप में मुरझाई और चिंता की चिता में जलती सी बन कर रह गयी थी!

इसमें कोई शक नहीं था कि एक समय इसे देश के श्रेष्ठतम इंजीनियरिंग कॉलेज में शुमार करने के ख्वाब से बनाया गया था - और किवदंती यह है कि खड़गपुर और सिंदरी के बीच IIT और FCI का टॉस, क्रिकेट में बैटिंग या फील्डिंग के निर्णय के तर्ज़ पर, हुआ था- जिसमे अंपायर देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित नेहरू, और सिंदरी के कप्तान - बिहार के प्रथम मुख्यमंत्री - श्रीकृष्ण सिन्हा और खड़गपुर का प्रतिनिधित्व बंगाल के प्रथम मुख्यमंत्री डॉ बी सी रॉय, बहुत भावुकता से किये थे। आगे ऐसा कहा जाता है कि श्रीकृष्ण बाबू इसे IIT का दर्ज़ा नहीं देने पर इतना आहत हुए थे कि उन्होंने इसे IIT से भी बेहतर बनाने का सपना देख कर शायद उसे सपने का क्रमशः भाग में ही छोड़ गए..... महेन्द्र कपूर के गाये एक गाने को आज भी सभी BITians गुनगुनाते रहते हैं - "जिसके सपने हमें रोज़ आते रहे, दिल लुभाते रहे, ये बता दो, कहीं तुम वही तो नहीं"

कैंपस में जितने छात्र थे लगभग उसी तादाद में गाय, भैंस, कुत्ते, सूअर और सियार पाये जाते थे। कैंपस के हर मैदान या वैसे भाग जहाँ से अगर सूअर और कुत्ते जा सकते थे, और जहाँ पाइथागोरस के सिद्धांत को लगाया जा सकता था - विधवा औरत के सिर पर बंजर बालों के बीच में पड़े मांग की तरह - वहां से कच्ची पगडंडियां, सड़को को चिढ़ाती सी, गुजरती थी।


कैंपस के बीचो बीच एक विशाल भवन था जिसे -एडमिनिस्ट्रेटिव ब्लॉक- कहा जाता था। इस का एक छोर कैंटीन से शुरू होता था और दूसरा छोर लगभग देशपांडे सभाभवन और असैनिक - सिविल- बिल्डिंग के आस पास ख़त्म होती थी। मेन गेट से अंदर आने के लिए एक घुमावदार रास्ता बना था, जिस में एक तरफ से गाड़ी आ कर दूसरी ओर से निकल सकता था। इसके मुख्यद्वार के पास, एक छोटा सा बगीचा बना हुआ था, जो आमतौर पर काफी हरा भरा रहता था। इस बगीचे के बीच में - संस्थान के गौरवशाली इतिहास के प्रमाण के तौर पर - जीर्ण अवस्था में एक पानी के फव्वारे का अस्तित्व मिलता था - जो शायद ठीक करने पर, कभी कभी थोड़े दिनों के लिए लड़खड़ाते क़दमों से चालू होकर अपना वज़ूद बता देता था- और शायद एकाध कर्मचारियों के वेतन का सबब भी बना रहता था।

इस भवन के मुख्य द्वार से अंदर घुसते ही एक लकड़ी का गोल सा बना हुआ स्वागत डेस्क था। इस डेस्क के पीछे बैठा मनुष्य- गरीबी के थपेड़े से मार खाया हुआ, दयनीय - लाचार सा चेहरा लिए, सामान्य भारतीय के परिभाषा का सटीक जीवंत उदाहरण बने  - रिटायरमेंट की प्रतीक्षा करता- कोई बूढा सा चपरासी मिल जाता था। डेस्क के पीछे 'स्वागत' का जिम्मा जिन मज़बूत कन्धों पर रखा गया था, उस व्यक्ति से सिर्फ दो बातें पता किया जा सकता था - डायरेक्टर साहेब हैं या नहीं और दूसरा समय कितना हुआ है- क्योंकि हर दो मिनट पर, वह समय काट कर ५ बजने के इंतज़ार में समय को चेक करते हुए, घड़ी जरूर देखता रहता था। आगे बढ़ने पर डाइरेक्टर के कमरे के बाहर एक दुःखी सी औरत एक स्टूल पर बैठी मिल जाती थी, जो - भारत के बहुउद्देशीय योजना की तरह - सर्वथा साहेब के लिए चाय, पानी, कागज को लेकर आने जाने के अलावा किसी को बुला कर लाने जैसे अनेकानेक कामों के उपयोग में आने के हेतु, हाज़िरी देती मिल जाती थीं।

डायरेक्टर के ऑफिस के पास का भाग, पूरे बिल्डिंग का सबसे विशेष जगह होता था, जहाँ से ऊपर के तल पर जाने के लिए दो तरफ से सीढ़ियां बनी हुई हैं। सीढ़ियों के पीछे के दीवार पर सारे दिमाग और शरीर से मज़बूत विजेताओं - स्पोर्ट्समैन ऑफ़ ईयर और हरेक ब्रांच के टॉपर के नाम को लिख कर वहां लटका दिया जाता था - इतने सालों में भारत की जनसंख्या की तरह शायद उन टॉपर्स की संख्या में भी विस्फोटक वृद्धि हुई होगी और इस कारण मुझे इसका संज्ञान नहीं है कि पुराने टॉपर्स के नामों को, कही उनके उम्र का लिहाज़ करते हुए, कहीं और तो नहीं खिसका दिया जा रहा होगा - वहां के दीवार पर उन दिनों ही काफी ट्रैफिक जाम वाली स्थिति थी।

ठीक उसके सामने कॉलेज का नोटिस बोर्ड होता था जहाँ कई बार जो भी नोटिस आने वाला होता था उसका हमें पूर्व ज्ञान हॉस्टल में ही हो जाता था - कारण था कि भविष्य में होने वाले समाचार के निर्माण करने वाले कई घटनाएँ को घटित करने में कई छात्रों का ही हाथ होता था। वैसे रिजल्ट निकलने के बाद उस नोटिस बोर्ड पर देखने वाले की भीड़ होती थी। कुछ कलात्मक विद्यार्थी विशेष प्रकार से,  नोटिस बोर्ड के सामने के बने तार के जाल के बीच से, पेन को घुसा कर नोटिस के कुछ अक्षरों का हेरा फेरी करने जैसा हरकत करके - उन दिनों के वेबसइट के हैकिंग का - बोध कराते थे। बाद में हैकर्स के - संस्कृत प्रेम का प्रमाण देखने के बाद - शीशे के दरवाज़ा वाला नोटिस बोर्ड को लगाया गया था जिसे पत्थर से तोड़ने जैसा - brute force hacking का प्रमाण उन दिनों में भी मिलता था।

दोनों सीढ़ियों के बगल - भारत के सरकारी कार्यालय का जीता जागता प्रमाण था। बहुत दूर तक विस्तृत इन कार्यालयों में अनेक प्रकार के रिकॉर्ड कक्ष थे। ये इलाका कर्मचारियों के ऑफिस और इसी तरह के अन्य गैर-तकनीकी या गैर-शिक्षण कर्मचारियों का था। किसी किसी क्लब में रहने वाले को कभी कभी इधर नोटिस आदि को  "साइक्लोस्टाइल" करने के लिए आना पड़ता था - जो log table या  NMCT के क्लास में हाथ से लिखे  कंप्यूटर प्रोग्राम के श्रेणी की प्राचीन विधा जैसी थी।ज्यादातर लोग पूरे चार सालों में शायद मेरी तरह, सिर्फ एक या दो बार इन कक्षों के अंदर घुसे होंगे- कैंपस से निकलने के पूर्व शायद नो ड्यूस निकालने के लिए इन देवालयों के सभी गैर पारम्परिक देवी देवताओं के दर्शन और जल चढाने की प्रथा सी थी।

कैंटीन की तरफ बढ़ते रहने से एक भाग आता था जहाँ पर एक और सीढ़ी बनी थी जिस से बाहर निकला जा सकता था और सीधा धातुकर्मी व रसायन के बिल्डिंग की ओर जा सकते थे। यहाँ से  C -zone होते हुए हॉस्टल की ओर जाने का रास्ता जो सीधा गेट १६ के पास ले जाता था।

इसके आगे सेक्शन A का क्लासरूम, केमिकल का लैब और अंत में B व C सेक्शन के क्लासरूम मिलते थे। वापस अगर डायरेक्टर के ऑफिस की और आ जाये तो वह से सीधा मेन गेट मिलता था जिसे गोशाला कहा जाता था और उन दिनों एक जंग लगा लोहे के ढांचा पर कॉलेज का नाम हिंदी एवं अंग्रेज़ी में लिखा मिलता था।

कैम्पस का आगे का वृतांत फिर कभी ---