A nebula is a cloud of gas (hydrogen) and dust in space. Nebulae are the birthplaces of stars.
बिहार के संयुक्त प्रवेश परीक्षा के आवेदन पत्र को भरना काफी गहन कार्यक्रम सा था। इस काम में बहुत धैर्य की जरूरत थी और आवेदन पत्र के सारे निर्देशों को अनेकों बार ध्यान पूर्वक पढ़ने के बावजूद एक-दो ऐसे भाग थे जिनका हमारे जैसे सामान्य बौद्धिक स्तर वाले इंसान को कुछ भनक नही लग पाया था।

उन दिनों तक समाज एक जीवित संस्थान ही था और समाज के परिभाषा के अनुरूप - "संस्थात्मक प्रतिमान (पैटर्न) में मानव समूह, जिसके सदस्य एक दूसरे से अंतःसंबंध के कारण संपर्क में आते हैं" - लोग आपस में बातें करते थे और आस पास के लोगों से संपर्क कायम रखते थे।


उन दिनों समाज में बहुतायत में ऐसे लोग होते थे, जिन्हे इस तरह के तथा बाकी भी अन्य तरह के परीक्षाओं के अनेकानेक फॉर्म भरने का बरसों का अनुभव होता था।  M. Sc. के इम्तिहान देते देते साथ में प्रति वर्ष इंजीनियरिंग में भी हाथ आज़माने वाले - रिटायरमेंट के कगार पर बैठे किसी रणजी के पुराने खिलाड़ी की तरह -संत सरीखे लोग, फल की चिंता किये बगैर निष्काम भाव एवं स्वेच्छा से किसी भी प्रकार के सलाह या परामर्श की निशुल्क सेवा देने के लिए सदैव उपलब्ध होते थे।

फॉर्म भरने के उपक्रम में, इस बात का पूर्ण एहसास हो जाता था- या फार्म बनाने वाले "जीनियस" के द्वारा लोगो को करवाया जाता था - कि हम किस दर्जे के अहमक थे। इस अनुभव के पश्चात हमें सम्पूर्ण विश्वास हो गया था कि - हमारी खुद की कुछ भी औकात नहीं थी। मतलब उम्र के उस दराज़ पर, जब हमनें अपने गालों पर दाढ़ी और मूंछों के कितने फसलें काट चुके थे, बावजूद उसके हम अभी तक स्वावलम्बी नहीं हो पाये थे। विडम्बना ये थी कि फॉर्म को पूरी तरह से भरने के क्र्म में अपने ही बारे पूछे सारे विवरण के स्पष्टीकरण के लिए हमें दूसरों की सहायता लेनी पड़ती थी।

ऐसा प्रतीत होता था कि पुलिस के द्वारा अपराधी के केस फाइल को दर्ज़ करने के उपयोग में आने वाले फॉर्म को ही इंजीनियरिंग के आवेदन पत्र के काम में भी लगा दिया गया था।  फॉर्म में माता पिता के नाम, पता, जन्म तिथि, शैक्षणिक विवरण के साथ साथ और भी अनेक सारी जानकारियाँ ली जाती थी। यह एक शोध का विषय हो सकता था कि परीक्षार्थी अगर परीक्षा देकर या देने के दौरान भाग जाए तो क्या फॉर्म में दिए गए विवरण के आधार पर उसे खोज निकला जाता?

कुल मिला कर मेरे जैसे सामान्य लोगो को समझ में नहीं आता था कि, आवेदन पत्र के लिए ली गए इतनी सारी जानकारियों का, उस परीक्षा से क्या सरोकार था? अपितु परीक्षा के आयोजकों के द्वारा- किसी पूजा के समापन में अनेकों "- की जय" में समाहित होने की तरह- मैंने फॉर्म में मांगे गए हर जानकारी को समर्पण भाव से भर दिया था।

आवेदन पत्र में एक पासपोर्ट साइज फोटो की भी आवश्यकता होती थी। जितना उन दिनों हम और हमारे मित्रगण अपने फोटो को खीचवाने और अपने हस्ताक्षर को ठीक करने में समय देते थे, उसका एक अंश भी पढाई में दिए होते तो "बहुत कुछ" हो सकता था।

ऐसा मेरा विश्वास है कि परीक्षा के आयोजकों को इस बात की जानकारी होती थी कि आवेदन पत्र में लगाये फोटो में दिखने वाले की शकल और वास्तविकता में काफी फर्क होता था। चूँकि परीक्षा भवन में सही परीक्षार्थी की शिनाख्त का जरिया फोटो ही होने वाला था, अतः फोटो एवं फॉर्म को सत्यंकित एवं प्रमाणित करवाने की प्रक्रिया को अनिवार्य बनाया गया था।

प्रमाणित करने के अधिकार कुछ विशेष तबके के सरकारी अधिकारी के कार्यक्षेत्र का हिस्सा था - जो वैसे तो ज्यादा समय घर पर ही पाये जाते थे, परन्तु इन सब कामों के लिए जल्दी उपलब्ध नहीं होते थे। ऐसे सरकारी मुलाज़िमों के पास हर दिन सरकारी दफ्तर में दो चार काम को लटकाने और अपने कार्यालय के इर्द गिर्द के पान और चाय-नाश्ते के दूकान को व्यवसाय दिलाने के अलावा समाज में कोई और ख़ास उपयोगिता नहीं थी, पर किसी के आवेदन पत्र और फोटो को अटेस्ट करने जैसे काम को सुनते ही ये बहुत व्यस्त हो जाते थे और - "अगले मंगल को ३ से ४ के बीच घर पर मिलेंगे" - जैसी कुछ भूमिका बाँध कर समाज के प्रति अपने दायित्व और सरकारी काम के महत्त्व जैसे विचारों को लोगों के मन में पुनः स्थापित कर लेते थे।

इंजीनियरिंग के आवेदन पत्र को भरने की औपचारिकता को पूरी करने के क्रम में यह एक ऐसा मोड़ होता था जब "विनम्रता" पूर्वक सरकारी अधिकारी के मुखातिब होने का मौका मिलता था और उनके "हस्ताक्षर" और एक विशेष प्रकार के मुहर लगा देने के बाद ही "फॉर्म की नाव" आगे के लहरों में तैरने के लिए तैयार हो पाता था।

आवेदन पत्र के साथ साथ परीक्षा के फीस की रकम के लिए बैंक से ड्राफ्ट बनवाना होता था- जो किसी ख़ास बैंक के कुछेक ब्रांच में ही बनते थे । किसी वीडियो गेम की तरह इतने पड़ाव को पार करने के बाद अंतिम दौर होता था - सभी दस्तावेजों को इकठ्ठा करने का - जिनमे फॉर्म, बैंक ड्राफ्ट और बहुत सारे सर्टिफिकेट के फोटोकॉपी। इन सब को इकठ्ठा करके एक बड़े लिफ़ाफ़े में डाल कर कर इन्हे रजिस्टर्ड पोस्ट से भेजने का कठिन कार्य भी करना पड़ता था।

सावन के कांवड़ियों की तरह - जो सुल्तानपुर से जल को लेकर पूरी लम्बी सफर को तय करने के पश्चात- अंतिम चरण में भोले महाराज के मंदिर के चौखट तक पहुँचने के लिए धक्कामुक्की वाले कतार में लगते थे - उसी तरह अंत में भेजने के लिए डाक घर में चींटियों के झुण्ड में शामिल होना भी एक बहुत ही धार्मिक और समर्पण की भावना से ओत-प्रोत सा कार्यक्रम होता था। कतार में लगे - भविष्य में इंजीनियर बनने का सपना संजोये लोगों की होड़ देख कर- कई बार दिल बैठ जाता था कि इन सैकड़े लोगो में से चंद को ही सफलता मिलने वाला था और विह्वल मन से अगले दौर की ओर बुझे बुझे कदम से अग्रसारित हो गए थे।