Red Dwarf is very cool, faint and small star, approximately one tenth the mass and diameter of the Sun and burn very slowly...इंजीनियरिंग की प्रवेश परीक्षा में - पहले दिन physics, chemistry और अगले दिन mathematics की परीक्षा होती थी।आम तौर पर आयोजक सभी परीक्षार्थियों के परीक्षा केंद्र शहर से बाहर कही दूर वाले शहर में नियत करते थे। इस कारण हर किसी को कम से कम दो दिनों के लिए - अनजाने से शहर में रहना पड़ता था।
मैं अपने साथियों के साथ परीक्षा केंद्र वाले शहर में एक दिन पहले ही पहुँच गया था। जिसे जैसा समझ में आया उसने अपने लिए वैसा रहने का इंतज़ाम कर लिया था।
मेरे घर वालों ने जमशेदपुर के अपने एक परिचित से बात करके उनके एक दूर के रिश्तेदार, जो इस शहर में रहते थे, उनके घर पर रुकने की व्यवस्था करवा दिए थे। उन दिनों न फ़ोन होता था और न ही इ-मेल की सुविधा थी, अतः हमें पुरातन काल की तरह - उनके एक परिचित के द्वारा लिखित पत्र को - उनके रिश्तेदार के हाथों सुपुर्द करने को कहा गया था।
रेलवे स्टेशन से, जैसा मुझे निर्देश दिया गया था, मैंने एक रिक्शा को ठीक कर लिया। रिक्शेवाले को मैंने मोटी मोटी दिशा-निर्देश कुछ इस तरह से देने की कोशिश की, ताकि उसे मेरे बाहरी होने का बोध न हो- और मुझे बेवकूफ बना कर "लूट" न ले । थोड़ी देर बाद उसने मुझे गंतव्य स्थान पर सही सही पहुंचा दिया।
ऐसा लग रहा था मानो आम तौर पर लोग अपने घरों के बाहर, घर का नंबर लिखना या नेम प्लेट लगाने जैसे काम को, अपनी बेइज़्ज़ती समझते होंगे, क्योंकि उन्हें ऐसा लगता होगा कि उनके बारे में मोहल्ले के लोग क्या सोचेंगे? अगर लगा देने से अजनबी को मदद मिलने जैसी गलती हो जायेगा, तो बदले में मानहानि के तहत, उन्हें ऐसा बोध होगा कि क्या उस मोहल्ले में लोगों को उनके बारे में पता नहीं था?
इस तरह के व्यवस्था से दो तरह के फायदे होते हैं -पहला तो यह कि नुक्कड़ के पान दूकान पर खड़े पूर्ण रूप से बेरोज़गार लोगों को - जिनके पास अखबार पढ़ कर, पुरानी बातों को याद करके और भविष्य के बारे में खयाली पुलाव बनाने के अलावा और कुछ ख़ास काम नहीं होता था - मोहल्ले में रहने वाले के घर का पता बताने जैसा कोई परोपकार का काम करने का आनंद मिलता था। दूसरा फायदा यह था कि बाहर से आने वाला कौन हो सकता है, किस प्रयोजन से आया होगा - इस गुत्थी को सुलझाने में उस जत्थे को अगले एकाध घंटे का समय काट लेने का जुगाड़ मिल जाता था। इस हिसाब से आंशिक रूप से वे मोहल्ले की निगरानी में भी सक्रिय रोल अदा कर रहे थे।
नुक्कड़ का पान दूकान प्रजातान्त्रिक व्यवस्था पर चलाया जा रहा था। प्रजातंत्र के मूल सिद्धांत - हमसे, हमारे द्वारा और हमारे लिए का पालन करते हुए- किसी निखट्टू ने खुद की दूकान खोल ली थी, फिर अपने ही साथी की मदद से उस दूकान को चला रहा था - अर्थात दिन भर वे उस दूकान पर खड़े टंडेली मारते हुए - शोले के बसन्ती के डायलॉग - "जब तक जी चाहा काम किया और जब मर्ज़ी हुयी बीड़ी पी ली" - के सिद्धांत पर - उन्ही से पैसे लेते हुए, और उन्ही को सामान बेचते हुए - भारत के Public Sector के सिद्धांत पर चल रहा था ।
रिक्शावाला अब तक उड़न छू हो चूका था। सामान को ढोते हुए मुझे उस नुक्कड़ के पान दूकान पर आना पड़ा। अक्सर नुक्कड़ वाले जिस तरीके से किसी के बारे में छूटते ही बताते हैं- उनकी प्रसद्धि का ऐसा बोध होता है कि उस हिसाब से उन्हें चुनाव में टिकट ले लेना चाहिए!
सही घर में पहुँच जाने के बाद मैंने हिम्मत करते हुए लोहे के एक फाटक को खोलते हुए अंदर जाकर कॉल बेल दबाई। थोड़े देर में ही एक व्यक्ति घर के अंदर के बालकनी में आया और उसके पीछे घर के सारे लोग इस कदर खड़े हो गए थे मानो सीमा पर लड़ने का आह्वान हो चुका था। मैंने अपना परिचय, आने का उद्देश्य, कब निकल जाऊंगा बताने के क्रम में ही उनके रिश्तेदार के द्वारा लिखा पत्र सौंप दी। मामले में - कर्फ्यू में ढील की तरह से - धीरे धीरे राहत आने लगी थी और मैं अब अंदर बैठ कर शीतल जल हलक के नीचे उतार रहा था।
जब लगने लगा कि मामला का आकाश साफ़ हो गया था, भाई साहब भावुक हो गए और प्रश्नों की मूसलाधार कर दिए, जिसके बाद अचानक से जिज्ञासा की बाढ़ आ गयी।
काफी समय इसी बात को समझाने में लग गया था कि मैं उनके दूर के रिश्तेदार - सच्चिदानंद बाबू को कैसे जानता था।
उसके बाद "उनका स्वास्थ कैसा था", "उनके बेटे का क्या हुआ", "उनका घर अभी तक बना था या नहीं" इत्यादि जैसे अनेकों प्रश्नों और अनवरत जिज्ञासाओं की क्षुधापूर्ति के लिए - "नहीं पता" या "सब ठीक है"- इन दोनों को बारी बारी से बदल कर मैं अपना काम चला रहा था।
शाम को अगले दिन के परीक्षा के लिए कुछ रीविजन करने की सोच कर बैठा था कि अचानक से बिजली गुल हो गयी - और जैसा कि हरेक घरवाले बाहर से आये लोगों को ऐसे मौके पर कहते है- उसी के अनुरूप उन्होंने भी बताया-
-"इधर कई महीने से बिजली जाती ही नहीं थी"
-"किसी और कारण से बिजली चली गयी होगी"
-"बस अभी कुछ ही देर में आ जाएगी"
अंतिम वाक्य को जिस तन्मयता और आत्मीयता से उन्होंने कहा था उस से ऐसा ज्ञात हो रहा था मानो बिजली उनका बहुत ही आज्ञाकारी सी थी और उनसे अनुमति ले कर कहीं संध्या भ्रमण पर गई थी और बस थोड़ी देर में ही आने वाली थी !
और फिर घंटों बातें करते रहने के बाद, हम मानसिक रूप से बातों में और आँखों के सामने अँधेरे में, डूब चुके थे। उनकी पत्नी उस से बहुत ज्यादा समझदार थी और मुझे एक लालटेन लेकर दे दी और जाते जाते ये भी पूछ गयी कि - खाना बन गया था और मैं खा लूँ तो जल्दी सोकर सुबह परीक्षा के लिए ताज़ा हो कर जा पाउँगा।
लालटेन की रोशनी में कुछ देर पढ़ने के क्रम में ही था कि तभी- मच्छरों ने -
"शायद उन्हें पता था के "खातिर" है अज़नबी,
लोगो ने उस को लूट लिया तेरे शहर में"
- वाले हिसाब से जम कर मुझ पर आक्रमण कर दिया।
तत्पश्चात मैं विनम्रता से सोने की इच्छा प्रकट कर दिया, और अगले दिन के बारे में सोचता हुआ सो गया था।
घर से करीब १०० कदम दूर पर एक रिक्शा स्टैंड था। अगले दिन सुबह सुबह मैंने एक रिक्शे वाले से बात कर ली और अगले दो दिनों के लिए परीक्षा केंद्र तक आने जाने का जुगाड़ लगा लिया था।
परीक्षा केंद्र पर चींटी के बिल से निकले जैसे वाला माहौल था- हर कमरे में भीड़ सी लगी हुयी थी - अपने क्रमांक के हिसाब से कमरे को खोजते हुए हम अंदर अपने क्रमांक वाले बेंच पर आसीन हो गए और अगले दो घंटे तक स्वयं के अंदर आइंस्टीन, न्यूटन, सी वी रमण और बाकी वैज्ञानिकों के आत्मा को बुलाने की चेष्टा करते रहे। समस्या यह थी कि जितना आता था उसे हल करने के बाद आगे कुछ करने को नहीं था, क्योंकि उतने कम समय में मैं कोई नयी सोच पैदा कर प्रस्तुत नहीं कर सकता था- अंततः कमरे के बाकी लोगो को तन्मयता से हल करते देख अपनी हालात और मुफलिसी पर बस मातम सा मना रहे थे। बार बार अपने उन सभी मित्रों को कोस रहा था, जो तैयारी करने के दिनों, हर वक़्त आकर कभी सिनेमा तो कभी कहीं घूमने जाने का प्रलोभन देकर मुझे पढाई से दूर रखते थे - "माँ हमेशा कहती थी कि अच्छे बच्चे के साथ दोस्ती करनी चाहिए"- नहीं सुना और परिणाम सामने था।
पहले पहर के परीक्षा के पश्चात, ब्रेक में, वहां कुछ खाने के लिए कोई ख़ास प्रबंध नहीं था। प्रांगण के भीतर ही एक कोने में झुण्ड सा लगा हुआ था - सामने जा कर देखने से पता चला कि समोसे और आलू चौप बिक रहे थे और देखते ही समझ में आ गया था कि, बेचने वाला जिस तेज़ी से बेच रहा था, उस से बहुत जल्द ही आपूर्ति की संकट आने वाला था -बावजूद इसके सभी इस सकारात्मक उम्मीद में खड़े थे कि जब उनको मिल जाएगा, उसके बाद ही उसका स्टॉक ख़त्म होगा। मैं न पॉकेट में पैसे निकालने के लिए हाथ डाला, न ही याचना की- और तब तक सब खेल ख़त्म भी हो गया। बेचने वाले ने दया याचक- "कि इसमें मेरा क्या कसूर है?" - वाला चेहरा दिखाते हुए अपने टोकरे को सम्हालता, फिर अपने लुंगी पर पड़े कुछ टूटे हुए समोसे के परतों को झाड़ते हुए और फिर बुशर्ट के ऊपर वाले पॉकेट में भरे हुए रुपयों को निकाल कर गिनने जैसे उपक्रम में लग गया- जिसका व्यवहारिक अर्थ था कि - "बेटा तू अब यहाँ से कट ले" । फिर भी कुछ नादान से अबोधी, अब भी इस आस में वही खड़े थे कि शायद वह कुछ कही किसी और टोकरी में छुपा रखा था या पी सी सरकार के जादुई ढंग से कुछ पैदा कर लेगा।
प्रांगण के बाहर निकलने पर किसी ने बताया की थोड़े दूर पर एक होटल है, पर मुझे आने जाने के क्रम में अगले परीक्षा में देर हो जाने का भय था, इसलिए सामने के एक पान के दूकान से पारले जी के बिस्किट को खरीद ली और उसे ही खाकर अपनी क्षुधा पूर्ति कर लिया।
अगले परीक्षा में भी अपनी औकात के हिसाब से, जितना समझ में आया, उतना कर लिया और फिर बंगले झांकते गहन सोच में डूब गए कि -"जीवन क्या है, सब व्यर्थ है, कितना भी प्रयास कर लो जितना तुम्हारे लिए है उतना ही मिलेगा - तात्पर्य तत्काल चल रहे परीक्षा के marks से था, फिर - भगवान जिनको जो देना चाहते हैं, जो योग्य है, उसे ही मिलता है- जिसमे दिमाग और पढ़ने का लगन भी शामिल होता है" - इस तरह के अनेकों विचारों से अपने अंतर्मन को सींच डाला और फिर एक लम्बी जम्हाई ले कर घड़ी देखने लगा।
घर पर आने के बाद फिर से -"सच्चिदानंद बाबू का स्वास्थ- उनकी पत्नी का स्वास्थ - उनकी बेटी का विवाह- जमशेदपुर खूबसूरत शहर है - टाटा बहुत बड़ी कंपनी है- देश क्या-"शायद" विश्व की भी सबसे बड़ी कंपनी है - मैं बहुत अच्छा हूँ, मेरे संस्कार अच्छे हैं - मेरे जैसा ही उनका एक भतीजा भी है जो बैंक में काम करता है - मैं इतना जल्दी न जाऊं और कल रुक कर परसों जाऊं" - यहाँ पर मैं जरा सा झेंप गया और उसके अभिव्यक्ति के लिए -"अरे नही" का दो-तीन बार उच्चारण करके उनके क्रम को रोक पर एक नादान सा मिट्टी का बाँध को बनाने की कोशिश की - पर उनके वेग से आते बाढ़ को रोकने में वह सफल नहीं हो पाया … और फिर से आगे "सच्चिदानंदजी और उनके पिताजी गाँव के दिनों से एक साथ खेत जाते थे …।"- ऑटो रिवर्स कैसेट प्लेयर की तरह यह घंटों चलता रहा - सारांश में वह व्यक्ति बहुत सारी बाते बहुत कम समय में करना चाह रहा था और बातों के - सीमा पर होते unprovoked फायरिंग- के दौरान मैं सिर्फ शरीर से उसके साथ था पर मेरी आत्मा कही और थी....
मैं भोजन कर के जितनी जल्दी हो सका मच्छरदानी के अंदर घुस गया और सारी रात किसी तरह से सोने का अथक प्रयास करता रहा और इसी क्रम में सुप्रभात आने के दस्तक देता मोहल्ले के कुत्तों ने भौंकना शुरू कर दिया, आज मैंने उन कुत्तों को भौंकने के क्रम को बिलकुल शुरूआत से सुना जो राग आरोह पर आश्रित होता है- नीचे का "सा" पहले लगता है और बाद में बिलकुल ऊपर का "नी" ।
अगले दिन की परीक्षा mathematics की थी और मैं आशातीत अच्छा कर रहा था और शायद शतक सा जड़ने जा रहा था, ऐसा लग रहा था कि मैं बैटिंग कर रहा था और बाकी कमरे में फील्डिंग में लगे हुए थे- खुशी के साथ एहसास हुआ कि अब सेकंड इनिंग में अच्छे बैटिंग करके जीतने की उम्मीद कम थी क्योकि कल के दोनों पर्चे में इस कमरे के कई लोगों ने भी इसी तन्मयता से बैटिंग की थी और इस कारण मैं पिछली पारी के रनों में इनसे काफी पीछे था ..... बहरहाल मैं "कल क्या होगा किसने जाना, अभी जिंदगी का ले लो मज़ा" गाते हुए निकल पड़ा।
मच्छर, गंदगी, बिजली का गुल हो जाना और कुल मिला कर अनेक सारे प्रतिकूल परिस्थितयों के बीच, दोनों दिनों के परीक्षा को स्वस्थ होकर दे देना भी एक उपलब्धि सी थी।
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