Red Giant is a large bright star with a cool surface. It is formed during the later stages of the evolution of a star like the Sun, as it runs out of hydrogen fuel at its center.
एडमिट कार्ड के मिल जाने के पश्चात परीक्षा की आधिकारिक तौर पर तैयारी शुरू हो जाती थी और इसके बाद के दिन से लेकर परीक्षा के दिनों के बीच का दौर बहुत ही उबाऊ और चिंतादायक होता था।

साथ के तैयारी में लगे कुछ इस तरह के जीव भी होते थे, जो तैयारी के अंतिम नाज़ुक क्षणों में कुछेक ऐसे प्रश्नो को लेकर आ जाते थे, जिसे हल नहीं कर पाने के बाद हमारे जैसे पहले से दुखी इंसान - जो एकाध जीवन-दान मिलने के बाद पिच पर बल्ले को घुमाने भर का प्रयास कर रहे होते थे- ऐसे प्रश्नों के बाउंसर से ज़ख़्मी होकर, हतोत्साहित हो जाते थे। इस तरह के आक्रमण से, प्रसिद्द चल-चित्र "गैंग्स ऑफ़ वसैपुर" के संवाद- "तुमसे न हो पायेगा" - जैसे दुर्विचार मन में काले बादल की तरह, घुमड़ घुमड़ कर आने लगते थे। और हम इस धर्मसंकट में पड़ जाते थे कि क्या वाकई एक हारी हुई बाजी को खेलने का कोई प्रयोजन भी था?


टी-20 में एक ओवर और परीक्षा के तैयारी में एक-दो दिन हमेशा कम पड़ जाते हैं, पर जयशंकर प्रसाद के लिखी पंक्तियाँ -"समय और नदी में बहती जल की धारा किसी के लिए न रुकी है और न ही रुकेगी" और इसी तरह से परीक्षा के दिन आ ही गए। मेरे साथ जाने वाले सभी मित्र मंडली, जिनको परीक्षा देने के लिए एक ही स्थान जाना था , वे सभी एक दिन पहले ही सफर की तैयारी में जुट गए थे। मैं भी अपने साथ ले जाने वाले किताबो और नोट्स को- जिसे अभी तक पढ़ना बाकी ही था, और जो अब तक नहीं कर पाये थे उस असंभव कार्य को यात्रा के दौरान या परीक्षा से एक रात पहले मुकम्मल करने जैसे उम्मीद से- उन्हें बैग में रखते हुए शहर से दूर परीक्षा केंद्र वाले शहर तक पहुँचने की तैयारी में लग गए। टाटा के रेलवे स्टेशन पर पहुँचते ही, सैकड़ो या तकरीबन हज़ार की संख्या में परीक्षार्थी और उनके अभिभावक को देख कर, मुझे बहुत ताज़्ज़ुब हुआ और आगे के सफर के बारे में सोच कर ही रोंगटे खड़े होने लगे थे। परीक्षाओं के "मौसम" में ट्रेन में रिजर्वेशन कराना - बरसात में नहाने - जैसी बुद्धिमानी वाला काम था, अलबत्ता बहते पानी में हाथ धोना ज्यादा उपयुक्त होता था।

अंग्रेजों ने भारत के हर कोने को रेल से जोड़ने का काम अनेकों कारण से किए थे। परन्तु रेल के लाइन बिछाते वक़्त अंग्रेज़ों को इस बात का कतई इल्म नहीं रहा होगा, कि एक समय ऐसा भी आएगा, जब ट्रेन परीक्षार्थियों के भी काम आने वाला था। अंग्रेजो से गांधी जी ने जो आज़ादी दिलाई थी, उस आज़ादी के मूल्यों को स्वतंत्र भारत के विद्यार्थियों ने सही मायने में समझा था। उसी आजादी के तहत, संविधान में बिना किसी बिल पास कराये ही, छात्रों और परीक्षार्थियों ने निशुल्क सफर करने का अधिकार लागू करवा लिया था।

आजाद भारत ने खूब जम के जनसंख्या बढ़ायी। देश के हर कोने में बहुत सारे बेरोज़गार भी बनाये। फिर हर महीने एक दो बैंक के क्लर्क की या किसी और सरकारी परीक्षा का इंतज़ाम कराया। और उन परीक्षाओं के आयोजक रही सही कसर - आम लोगो को तथा परीक्षार्थियों को कष्ट देने के विचार से - किसी दूर के शहर में परीक्षा केंद्र बना कर पूरा कर दिया करते थे। इन कारणों से भारत में ट्रेन, माल से ज्यादा मुफ्त में परीक्षार्थियों को ढोते हुए, अपनी उपयोगिता को सार्थक करने जैसा महत्वपूर्ण काम कर रहे हैं ।

ऊपर के व्याख्यान से यह तो स्पष्ट हो गया था कि - सबकी पसंद निरमा- की तरह हर परीक्षार्थी की पहली पसंद ट्रेन ही थी - क्योकि बाकी किसी और विकल्प में पैसे भी लगते थे। हम धरती पर आकर कुछ बाकियों से अलग तो किये नहीं थे, इस लिए हमारी इंजिनीयरिंग परीक्षा के लिए भी, वही विकल्प सबसे उपयुक्त था जो बाकि के लिए भी था - मतलब ट्रेन।

ट्रेन परीक्षार्थियों से लबालब था। लंगूरों के झुण्ड की तरह सभी परीक्षार्थी किसी भी डिब्बे में - जिसे जहाँ जगह मिला- वहां बैठ गए थे। भीड़ में बहुत शक्ति होती है - ख़ास कर जब कुछ मुफ्त में करने को मिले। ट्रेन के TTE और रेलवे पुलिस इस कदर लोगो से नज़रे झुकाये भाग रहे थे, मानो वो ये बताना चाह रहे थे कि वे उस ट्रेन के थे ही नहीं।

ट्रेन अपने रफ़्तार से चल रही थी और रिजर्वेशन किये यात्री - क्षमायाचना वाली सूरत बनाये - बीच बीच में अपने पैर को फ़ैलाने की इज़ाज़त मांग लेने की ज़ुर्रत भर कर रहे थे।

कुछ परीक्षार्थी अपने किताबों को पढ़ने में व्यस्त थे, कुछ दरवाज़े के पास झुण्ड बना कर खड़े थे और सिगरेट पीने की तरह तरह के करतब दिखा रहे थे। सिगरेट के कश लगा कर धुँआ को पचा जाना - यानि बाहर नहीं आने देना, नाक से धुँआ को निकालना, जब कभी ट्रेन रुक जाती तो- धुंए का छल्ले बना कर दिखाना, और भी अनेक प्रकार के करतब प्रसिद्द हुए थे। सिगरेट के करतबों में आँखों से धुँआ निकाल कर दिखाने वाला करतब बहुत मशहूर हुआ था - इस करतब में आँख से धुँआ निकलने के क्रम में शिकार को अपनी आँखों पर केंद्रित कराये- उसके हाथ में जलती सिगरेट का स्पर्श और उसके बाद ठहाके और गालियों के शोर से,  ट्रेन भी अपने लय में बद्ध करतल ध्वनि को भूल सी जा रही थी।

साथ चलने वाले किसी परीक्षार्थी ने बताया कि पिछले साल इसी ट्रेन से परीक्षा देने गए धुरंधरों ने, आगे आने वाले कुछेक स्टेशनों पर, खाने के सामानों को लूट खसोट करने या सामान लेकर बिना पैसा दिए ट्रेन में भाग जाने जैसे अत्यधिक रोचक और क्रियात्मक काम किये थे। साल भर बाद, उनके द्वारा किये गए वृक्ष रोपण जैसे कार्यक्रम में लगाये गए पेड़ अब बड़े हो चुके थे, और अब फल देने के लिए बिलकुल तैयार थे - कहना नहीं होगा कि आने वाले स्टेशन के खोमचे वाले और हॉकर से हमारी पिटाई की पूरी गुंजाईश थी।

अगली स्टेशन आयी। स्टेशन पर खड़े हॉकर और अन्य सामान बेचने वाले सतर्क से थे।  कुछेक डंडे या रॉड वगैरह ले कर चौकन्ने से खड़े थे। परन्तु एकाध झड़प के बाद ज्यादातर परीक्षार्थी डर गए। ज्यादातर अपने अपने कोने कोने पकडे हुए थे। डरे हुए शेर की तरह सिर्फ गुर्राने और मौका मिलते ही पीछेे हटने में अपनी बुद्धिमानी का परिचय देते हुए, किसी तरह से उन स्टेशनों को पार कर लिए। ट्रेन आगे बढ़ गयी और हमने राहत की सांस ली।

भारत की तरह, हमारे ट्रेन में भी बाहरी समस्याओं से निपट जाने के बाद, छिट पुट दंगे और हिंसे के तौर पर, अंदरुनी समस्याएं खड़ी हो गयी थी। कुछ तो आपसी झड़प तो कुछ इधर ट्रेन में सफर करने वाले अन्य यात्रियों से झड़प - विशेष कर वैसे जिनके साथ कोई सुकन्या या उस परिभाषा में शामिल होने की योग्यता रखने वाली कोई और विषय वस्तु थे ।

किसी तरह से बिना पिटे या और किसी तरह के हादसे के होने से बचते हुए, आखिरकार हमारा परीक्षा केंद्र तक सही सलामत पहुँच जाना, एक उपलब्धि की तरह था।