White Dwarf is very small, hot star, the last stage in the life cycle of a star.
बिहार इंजीनियरिंग प्रवेश परीक्षा के पिंड दान कर लौटते समय, ट्रेन में साथ गए छात्रों की तुलना में काफी कम ही साथ थे। मनुष्य एक "खोजी" जीव है- इसके प्रमाण के तौर पर कइयों ने घर लौटने के अलग अलग जरिये खोज लिए थे। वापसी के दौरान कोई रोमांच या लुत्फ़ उठाने जैसा माहौल नहीं था क्योंकि लौटने के तुरंत बाद कई और इंजीनियरिंग कॉलेज के प्रवेश परीक्षाओं का सिलसिला कतार लगाये खड़े थे। इस लिए आने वाले दिन कोई सुस्ताने या आराम करने का समय नहीं था - IIT, रुड़की, BIT मेसरा, ISM जैसे और भी कई सारे परीक्षाओं के दंगल में शामिल होने के लिए हम फिर से वर्जिश करने की सोच कर लौट रहे थे।


वापस लौटने के दौरान ट्रेन पर समय काटने - और शायद अपनी छवि परिवर्तन या उसे और सुदृढ़ करने के उद्देश्य से - भूले भटके बहुत सारे गंभीर किस्म के दिग्गज मुझसे मिलने आये थे। उनसे मिलने के बाद - "ये भी गलत हो गया, पर वो वाला सही हो गया" - ऐसे तर्क और कुतर्क से अपने को दिलासा देने जैसा कुछ कर लिए। परन्तु उनके जाते ही मेरे आत्मविश्वास का शेयर मार्किट में तेजी से गिरावट होते देख मैं "स्टॉप ट्रेडिंग" के ढर्रे पर इस निष्कर्ष पर पहुँच गया था कि रिजल्ट के आने तक इस तरह के परिचर्चाओं में शामिल होना मेरे मानसिक स्वास्थ के लिए ठीक नहीं था।

LIFO सिद्धांत के अनुसार जो परीक्षाये सबसे अंत में हुई थी, उनके रिजल्ट भी सबसे पहले आते गए।

"देखी ज़माने की यारी, बिछड़े सभी बारी बारी" -  एक एक कर सभी रिजल्ट खाली कारतूस की तरह, हमें अकेला छोड़ कर आगे चले गए थे। अमूमन जैसा क्रिकेट मैच में भारत की स्थिति होती है, वैसे ही जब तक समझ पाते, शीर्ष के सभी विकेट गिर चुके थे और - अंतिम विकेट -बिहार इन्जिनीयरिंग के प्रवेश परीक्षा के सकारात्मक परिणाम के ऊपर ही अपने जीवन के मैच को जीताने का दारोमदार था।

अगर ईमानदारी से इस बात को कहूँ, तो सच ये था कि मैं बाकी परीक्षाओं में सफल होने की उम्मीद उसी तरह से लगा रखा था- जैसे हर भारतीय को सचिन से लेकर लक्ष्मण तक से होता था। मुझे इन्जीनीयरिंग के परीक्षा तैयारी के शुरुआती दिनों में ऐसा लगता था कि शायद इस परीक्षा के रिजल्ट तक मुझे इंतज़ार ही न करना पड़े। पर इतने सारे विफलताओं के "चेरापूँजी" वाले मूसलाधार के बाद, मैं स्वयं को बाढ़ के पानी के बीचो बीच देख रहा था। अब जिस टीले पर मैं खड़ा था- जीवन की रक्षा का यही एकमात्र उम्मीद था- एक सफलता के मिलते ही ऊपर आसमान में उड़ते हुए हेलीकॉप्टर शायद मुझे एयर लिफ्ट कर ले!

इंतज़ार - और बिना किसी दायरे या मियाद के!

कभी कभी इंसान काफी देर भूखा रह जाए तो उसकी भूख मर सी जाती है। बिहार इंजीनियरिंग परीक्षा के परिणाम का अब तक काफी लंबा इंतज़ार हो चुका था और मेरे साथ तैयारी करने वाले बहुत सारे साथी, बाकी परीक्षाओं में सफल होने के बाद, अपने अपने इंजीनियरिंग कॉलेज में जाकर पढाई शुरू कर चुके थे। पर इधर तो मैं अब भी अधर में ही लटका था। Life is unfair in many ways- इधर मैं इंजीनिरिंग की पढ़ाई की शुरुआत करने को व्याकुल, सिर्फ एक सफलता के इंतज़ार में बैठा था, और उधर मेरे कई दोस्तों को एक के बाद एक, अलग अलग इन्जीनीरिंग कॉलेज के प्रवेश परीक्षाओं में सफलता मिलती जा रही थी- अति और अनावृष्टि का इतना स्पष्ट अनुभव, इस से पहले कभी जीवन में नही हुआ था।

कुली फिल्म के गाने की तरह - "सारी दुनिया का बोझ हम उठाते है, लोग आते हैं और चले जाते हैं, हम वही खड़े रह जाते हैं"- अब तक कई साथियों के सफलता की मिठाइयां और खुशियों में शामिल होते होते, अंदर से मन खिन्न और परेशान सा हो चुका था।

"शिद्दत से जब कुछ चाहो तो कायनात भी मिलाने में साथ देता है" - इसके विपरीत बशीर बद्र की पंक्तियाँ - "सर झुकाओगे तो पत्थर देवता हो जायेगा, इतना मत चाहो उसे वो बे-वफ़ा हो जायेगा",  इन दोनों भावों के ज्वार-भाटा ने मेरे मन के किनारे को ठोकर मार मार कर बहुत क्षीण कर दिया था, और - "इतना टूटा हूँ कि छूने से बिखर जाऊँगा, अब अगर और दुआ दोगे तो मर जाऊंगा" - वाली स्थिति में, कुछ अजीबोगरीब स्थिति में फंसे से थे - कोर्ट ने जैसे मुझे अपराधी घोषित कर दिया था और अब सजा का फैसला सुनाना बाकी था- इस तरह के भावनाओं में मन गोते लगता बहुत अधीर सा हो गया था।

कई बार ये भी संशय बना रहता था, कि किसी कारण से परीक्षा cancel न हो जाए और re -exam के सूरत में, इस पूरे प्रकरण से फिर से गुज़रना पड़ सकता था! एक समय ऐसा भी लगने लगा था कि इस परीक्षा के बारे में भूल कर, आगे ग्रेजुएशन की पढाई पर ध्यान लगाना ज्यादा श्रेयस्कर था।

आम तौर पर बिहार इंजीनियरिंग का परिणाम, पटना से प्रकाशित होने वाले किसी दैनिक अख़बार- संभवतः "द इंडियन नेशन" - में निकलता था। उन दिनों तक दूरदर्शन का बोलबाला हो चुका था और अखबार पढ़ने वाले बहुत कम हो चुके थे। ज्यादातर अख़बार मरणासन्न वाले स्थिति में थे। सरकारी टेंडर, सरकारी रोज़गार के विज्ञप्तियां और इस तरह के परीक्षा के नतीजे - इन अख़बारों को जिन्दा रखने के लिए ग्लूकोज़ वाटर, ऑक्सीजन और जीवनरक्षक दवाओं की तरह - काम करते थे। यह अख़बार बस के द्वारा पटना से जमशेदपुर आता था। बस स्टैंड के पास एक मैगज़ीन स्टैंड पर सबसे पहले इस अखबार की बिक्री होती थी। परन्तु रोज़ रोज़ अपने घर से इस मैगज़ीन स्टैंड तक आना संभव नहीं था।  इस लिए किसी के द्वारा बताये जाने पर ही इस परीक्षा के नतीजे के बारे में खबर मिल सकती थी।

ऐसे माहौल में जैसे जैसे और दिन गुजरते गए, अफवाहों का बाजार भी काफी गर्म होता चला गया था और हर रोज़ कोई आकर बता जाता था कि अमुक दिन रिजल्ट निकलने वाला है। ऐसा लगने लगा था मानो बिहार इंजीनियरिंग परीक्षा के आयोजक अगले साल के परीक्षा की तैयारी में व्यस्त हो गए थे, और १९८६ के परीक्षाफल को प्रकाशित करना शायद भूल गए थे।

इस परिपेक्ष्य में अचानक से २५ जुलाई, १९८६ को सुबह करीब ११ बजे किसी ने आकर बताया कि रिजल्ट निकल चुका था। उस मित्र के निश्छल भातृप्रेम की भावना में ओत-प्रोत होकर आकर इस तरह का उद्धव-सन्देश ने मुझे बहुत अचंभित कर दिया था।  अविश्वास की अपील मेरे मन के अम्पायर को खटका रहा था - परन्तु DRS की तरह - एक बार उस मैगज़ीन स्टैंड का चक्कर लगा कर आने में कोई दिक्कत नज़र नहीं आ रही थी। साथ में मैंने अपने एक और मित्र को भी ले लिया जो मेरी तरह इस परीक्षाफल का इंतज़ार कर रहा था।

बस स्टैंड के पास के सभी अखबार के दुकानों पर पर बहुत सारे अखबार लटके हुए थे, पर जिस अखबार की तलाश थी वह सभी जगह से नदारद था। अलबत्ता "द इंडियन नेशन" अखबार का हर जगह से गायब हो जाना, इस बात की पुष्टि जरूर कर रहा था कि रिजल्ट वाकई निकल गया था।

अख़बार खोजने के क्रम में पान के दुकान पर एक जागरूक से मनुष्य से हमारी अनायास ही मुलाकात हो गई। उस भले मानुस की शकल ही बता रहा था कि वह अंदर से मदद करने की भावना से भरा हुआ था। पर समस्या यह थी कि उसका मुंह भी भरा हुआ था, अतः वह कुछ बोलने का असफल प्रयास कर रहा था पर कुछ भी व्यक्त कर पाने में पूरी तरह से असमर्थ था। अंत में बेमन होकर - हम कही भाग न जाए, इस लिए हाथ से रुकने का आदेश देते- वह पान की पीक को फेंक कर धरती के कैनवास पर एम ऍफ़ हुसैन के कलाकृति की तरह लाल रंग से रंग दिया और पास के कीड़े मकौड़े के जीने के मकसद की पूर्ति करने के बाद , अनेकों शब्दों में जो कुछ बताया उसका सार यह था कि हमें बसंत सिनेमा हाल के पास के एक दुकान पर जाना था जहाँ से सारे शहर में अखबारों का वितरण होता था।        

पवन वेग की रफ़्तार से हम उस दुकान पर पहुँच चुके थे। वहां के माहौल को देखा कर ऐसा महसूस हुआ मानो हम पीने के गिलास में बर्फ को लेने के लिए एवेरेस्ट पर पहुँच गए थे। दुकान पर अखबारों के गट्ठरों का ढेर लगे हुए थे और उन ढेरों के चारों ओर कुछ लोग यज्ञ का अनुष्ठान करने की मुद्रा में बैठे गट्ठरों को खोल कर अखबारों के वितरण करने की प्रक्रिया में लगे हुए थे - और हमारे अखबार के जिज्ञासा के सिग्नल को वहां काम पर लगे किसी इंसान के रेडिओ ने कैच नहीं किया था। भिक्षुक की तरह हमें खड़े देख कर एक बड़े से गट्ठर के बने हवन-कुण्ड के बगल बैठे श्रेष्ठ पुरुष ने अपने एक पात्र को आदेश दिया कि हमें एक अखबार की प्रति दे दी जाए। खुदरे पैसे को वापस करते समय उन सभी के भाव भंगिमा से ऐसा प्रतीत हो रहा था कि हमें इस तरह से काम में विध्न डालने जैसी हरकत नहीं करनी चाहिए थी।

आस पास कहीं भी खड़े होने तक का जगह नहीं दिख रहा था। सामने एक ठेला दिखा जिस पर शाम को समोसा-चाट  बेचा जाता था - पर अभी वह खाली वीरान सा पड़ा हुआ था। उस ठेले पर अखबार के रिजल्ट वाले पेज को फैला कर सरसरी निगाहों से हम दोनों ने अपने रोल नंबर को ढूँढना शुरु कर दिया।

रिजल्ट को मेरिट रैंक के हिसाब से सौ -सौ के ब्लॉक में छापा गया था - अतः रोल नंबर क्रमवत नहीं था। इस तरीके से मैच का अंतिम समय तक रोमांचकारी बने रहने का पूरा जुगाड़ था। मैं सकारात्मक और नकारात्मक विचारों के बीच झूलते, यह निर्णय नहीं ले पा रहा था कि - रिजल्ट को नीचे से देखा जाए या ऊपर से - ऊपर से देखने का मतलब था कि मैं स्वयं को टॉपर बनते देखने के ख्वाब को साकार होते देखना चाह रहा था और अगर नीचे से ऊपर की ओर कूच करें तो खुद को बहुत काम आंक रहे थे। बहरहाल इस उहापोह की स्थिति में ऊपर से नीचे की ओर आने का प्रवाह की जीत हुई और दो पैराग्राफ के पार होते होते मेरे साथी को अपना रोल नंबर दिख गया और उसने बताया कि वह कहीं नीचे के पैराग्राफ पर बैठा मुस्करा रहा था।

मनुष्य के प्रगति में प्रतिस्पर्धा का बहुत बड़ा हाथ है पर स्वार्थ कभी कभी उस पर हावी हो जाता है और मैं उस स्थिति में उसे बधाई तक नहीं दे पाया था। अचानक से मुझे मेरा साथी - इंजीनियर बनता दिख रहा था और मैं अभी भी भटकता सा- क्षण भर में सारा माज़रा बदल गया था! यह समय था अपने अरमानों की बलि देकर अस्तित्व के रक्षा करने का - मैच के आख़री दौर में यह फर्क नहीं पड़ता है कि रन कैसे आ रहे हैं - चाहे वह क्लासिक शॉट हो या मिस्क्यूड - इस वक़्त स्थिति यह थी कि अपना रोल नंबर -किसी भी-पैराग्राफ में मिल जाये।

रामवृक्ष बेनीपुरी के निबंध - "गेंहू और ग़ुलाब" के तर्ज़ पर पहले गेंहू चाहिये, बाद में ग़ुलाब। इसलिए अपने "नकारात्मक और सकारात्मक सोच वाले" विचारों की तिलांजलि देते हुए, मैं भी अपने रोल नंबर को नीचे के पैराग्राफ से देखना शुरू कर दिया पर काफी ऊपर तक आ जाने के बाद भी - कुम्भ के मेले में खोये- की तरह मुझे अपना क्रमांक नहीं मिल पा रहा था।

फूलती साँसें, डूबता मन और टूटता मनोबल - हरेक ख़त्म होते पैराग्राफ अरमानों के शिकंजे को कसते जा रहा था। तभी अचानक से तीसरे पैराग्राफ में - अपना सा लगने वाला - रोल नंबर को देख कर बहुत प्रसन्नता हुई और एक बहुत बड़ी राहत सा महसूस हुआ। पहले तो यकीन नहीं हुआ इस लिए दो तीन बार आँखे मल कर देखने के बाद फिर गौर से देखा और अपने साथी को भी एक बार और देखने के लिए निवेदन किया - ये एक बहुत बड़ी राहत थी।

थोड़ी देर बाद सोचा तो याद आया कि मैंने शुरू में अगर एक और पैराग्राफ आगे बढ़ जाता तो शायद इतने देर तक के उतार चढाव से बच जाते।


मेरे निकटतम साथियों को जब मेरे उत्तीर्ण हो जाने का खबर मिला तो उन सबों ने तुरंत मिठाई खिलाने को कहा परन्तु मैं अब भी - अखबार में misprint की त्रुटि न हो - इस कारण से अपने पूरे उल्लास को रोक कर रखा था।