Supernova is the explosive death of a star, and often results in the star obtaining the brightness of 100 million suns for a short time.
२६ जुलाई १९८६ के अखबार के हिसाब से मैं बिहार इंजीनियरिंग प्रवेश परीक्षा के सफल परीक्षार्थियों में था। इस बात की पुष्टि के लिए मेरे पास अब तक कोई सरकारी दस्तावेज नहीं था।

इस सुखद घटना को हुए दो-चार दिन हो गए थे। एक दिन सुबह सुबह डाकिया डाक लाया और उसके चेहरे पर किसी टूथ-पेस्ट के विज्ञापन वाली मुस्कान थी। डाकिये ने पुरानी कहावत- "खत के लिफ़ाफ़े से मज़मून को समझ जाते है" - के हिसाब से, इस पत्र को देते देते मुझसे बख्शीश की मांग कर डाली।

डाकिये का हिसाब किताब कर देने के बाद, मोटे कागज़ से बने बादामी रंग के लिफाफे के अंदर, अनेक सारे सरकारी दस्तावेजों की तरह,  कुछ कागज़ों का पुलिंदा मिला। पहले से छपे हुए कागज़ों में, अनेक प्रकार के निर्देश और विवरण थे। हालाँकि पहले पेज पर, कुछ रिक्त स्थानों में हाथ से लिखे हुए विवरण में, मुझे अपना नाम, क्रमांक, और पता देख कर तसल्ली हो गयी थी कि यह मेरे लिए ही आया था। गौर से पूरी क्लिष्ट हिंदी में लिखे पत्र को पढ़ने से, मुझे अपने  मेधा क्रमांक -अर्थात रैंक-  का पता चला। चयन-पत्र के अनुसार   ५ अगस्त, १९८६ को सुबह ९ बजे, MIT, मुजफ्फरपुर में मुझे साक्षात्कार के लिए उपस्थित होना था।

साक्षात्कार के दौरान - "प्रत्येक अभ्यर्थी को उनके मेधाक्रम पर उपलब्ध संस्थान / पाठ्यक्रम में से स्वेच्छानुसार किसी एक संस्थान / पाठ्यक्रम के चयन का अवसर दिया जायेगा।" इसका सामान्य भाषा में अर्थ यह निकलता था कि अपने पसंद के इन्जिनीयरिंग कॉलेज और ब्रांच को चुनने का मुझे मौका मिलने वाला था।



आने वाले साक्षात्कार के लिए जो निर्देश भेजे गए थे, उनका उद्देश्य हमें तैयार करना था, परन्तु उस उद्देश्य में यह सर्वथा विफल हो गया था। बिहारीलाल के दोहे की तरह हर शब्दों का अलग अलग अर्थ निकलता था। यह एक शोध का विषय हो सकता था कि इस तरह के भाषा के प्रयोग का, पंचवर्षीय योजना के विफल होने में, कितना योगदान था।

यदा कदा कुछ खोजी किस्म के लोग मुझसे मिलने आ जाते थे। उनके आने का मकसद यह था कि, वे भी उसी नाव पर सवार थे, जिस पर मैं था। उनके आने का तात्पर्य - मुजफ्फरपुर में होने वाले counselling के बारे में जानकारी का आदान प्रदान- जैसे गंभीर विषय से था ।

अपने रैंक के बारे में पता लग जाने के पश्चात, मैं पिछले साल इसी परीक्षा में उत्तीर्ण हुए -"भूतपूर्व सैनिकों"- की खोज में निकल पड़ा।  इस प्रजाति के ज्यादातर लोग शहर से बाहर, अपने-अपने कॉलेज में पढाई कर रहे थे। अतःहमारे शंका समाधान के लिए उनकी सेवा उपलब्ध नहीं थी। टार्च ले कर ढूँढने से पता चला कि पिछले साल इसी परीक्षा में, अपने आस पास के मोहल्ले के कुछ छात्र, उत्तीर्ण हुए थे और फिलहाल स्थानीय RIT कॉलेज में पढ़ रहे थे। उन सबों से परामर्श, विचार-विमर्श और सलाह लेने के बाद, हमें अपने रैंक का असली कीमत का ज्ञान हो पाया। उनके पिछले साल के अनुभव के आधार पर, एक अवधारणा बन गया कि हमें अपने रैंक और पसंद के हिसाब से कौन सा कॉलेज और कौन से ब्रांच मिलने की गुंजाईश थी।

इस तरह के नेट प्रैक्टिस कर लेने के बाद मैं अब मुजफ्फरपुर टेस्ट मैच के लिए बिलकुल तैयार था।