हर युग में धरा पर किसी न किसी युगपुरुष का आगमन होता है । हर बैच में भी कुछ ऐसे छात्र होते थे, जो इनके समकक्ष से होते थे। जिस प्रकार शांति का नोबेल पुरस्कार अक्सर किसी संस्था को दिए जाने का प्रचलन होता है - उसी तर्ज़ पर कैंपस में भी जो झुण्ड में इस तरह के महापुरुष इकट्ठे मिल जाते थे, उन्हें भी एकत्रित रूप से हमारे लिए युग-निर्माण करने का श्रेय मिलना चाहिए। वैसे, हमारे बैच में इस तरह के अवतारों का चेरापूंजी सरीखे मूसलाधार हुआ था।

कैंपस की याद आते ही, इन महानुभावों का व्यक्तित्व, और उनकी गतिविधियाँ - जो उन दिनों भी मेरे मस्तिष्क के सभी तंतुओं को झंकृत कर दिया करता था - और आज इतने बरसों बाद भी जब पुराने साथियों के व्हाट्सप्प ग्रुप पर पुराने दिनों की चर्चा होती है, इन सबों का शब्दों से सचित्र वर्णन होना अनिवार्य सा है। मेरे स्मरण में अपने बैच के वैसे सभी विशेष व्यक्तित्वों का,  डॉक्यूमेंटरी सा बना हुआ है, जिनका इन - ब्लॉग के माध्यम से -  'प्रीमियर शो' करने का प्रयास कर रहा हूँ।

आज की कथा समर्पित है - ओशो * को -



ओशो अर्थात बौद्धों के महानतम संन्यासी - जो एक ही समयकाल में रहते हुए सामान्य जीवन से बहुत आगे को देख चुके होते हैं, और अनुभव करने के पश्चात बताते हैं कि - "भविष्य के कारण वर्तमान हो रहा है" और इसी लिए - "समय दुःख के कारण प्रतीत होता है"। वैचारिक स्वतंत्रता और तर्कों के ऊँचे नीले गगन में अपने विचारों के चील को उड़ाते हुए जब कभी वे धरती को देखते थे, तो उन्हें यह दुनिया कुछ और नज़र आता था, और संभवतः कुछ ऐसे वक्तव्य देते थे जो समझ के परे होता था। हमारे कैंपस में भी, इनके समानांतर कुछ लोग ऐसे थे, जो उच्च विचारों के साथ संसार को देखने का एक अलग सा नजरिया रखते थे।
 
इस तरह के विचारों से हमारे जैसे साधारण किस्म के नीरीह प्राणियों का काम बढ़ जाता था - हमें सोचने जैसी प्रक्रिया को काफी तेज़ी से चलानी पड़ती थी। कई बार इनकी बातें सुन कर, पहले तो कानों को यकीन नहीं होता था, और बाद में जब मस्तिष्क के अंदर के कोशिकाओं तक बातें पहुँचती थीं - तब ऐसे महापुरुषों के प्रति "चेहरे में भी कई चेहरे छुपा है या आईने के जितने टुकड़े करो एक बिम्ब के अनेको प्रतिबिम्ब मिलेंगे" - वाली भावना जाग जाते थे।

(* -इस ब्लॉग का ओशो रजनीश से कोई ताल्लुक नहीं है,  हमारे युग के हॉस्टल के ओशो का मानना था कि - "कृपया इस दुनिया में और ज्ञान न बांटे, यहाँ पहले से ही परम ज्ञानी बैठे हैं" - उम्मीद है, और स्पस्टीकरण की आवश्यकता नहीं है)

बहरहाल BIT आश्रम के 'ओशो' के महिमा और व्यक्तित्व को समर्पित -
ख़ुदा-परस्त मिले और न बुत-परस्त मिले,
मिले जो लोग वो अपने नशे में मस्त मिले।
आमतौर पर हॉस्टल में ज्यादातर लोग पढाई लिखाई करते थे, गप्प -शप्प करते थे, गाने सुनते थे, मिल जुल के ताश भी खेलते थे। कुछ लोग इन क्रियाकलापों से ऊपर उठ गए थे और आंशिक या पूर्ण रूप से प्रेम-रोग जैसे महत्वपूर्ण कार्य में भी हाथ डाले हुए थे। पर इन सांसारिक गतिविधियों से काफी हट करराग-द्वेष रहित हो कर, कुछ विशेष प्रजाति के छात्र भी हॉस्टल में पाये जाते थे। ऐसे देवदूत सरीखे महापुरुष, हर स्थिति में समता के भाव में रहते थे। जैसे सागर में नदियां गिरती हैं, पर वह चलायमान नहीं होता - उसी तरह से शराब के अंदर जाते ही - इस तरह के महापुरुष अपने कमरे में ही स्थिर पाये जाते थे। 

ऐसे महापुरुष कभी कभी आम लोगों में भी उपस्थित हो कर, उन्हें अपना दर्शन-लाभ करा देते थे। ऐसे ही एक बार हॉस्टल के शौचालय से निवृत होकर लौटने के क्रम में उन्होंने देखा कि एक कमरे के बाहर कुछ छात्र खड़े थे और मौसम, देश, समाज, आदि जैसे हल्के विषयों पर बाते कर रहे थे। इस पर उद्विग्न होकर वे विह्वलता पूर्वक बोल उठे- 

"बॉस लोगतुमलोग अपनी जिंदगी को इतना नीरस बना कर क्यों रखे हो? कभी सोचे हो कि ज़िंदगी फिक्स्ड टाइम के लिए ही मिला है.... देखो मेरा तो उपरवाला से एक डील हुआ है - तुम अगर मेरे को लिमिटेड समय दिए हो,  तो हम मस्ती को मल्टीप्लाई कर के अनलिमिटेड एन्जॉय करेंगे - अपने को शोले का विजय बनना है ठाकुर नहीं "

इस वक्तव्य को सुनने के बाद, जंगल में मदमस्त मतवाले हाथी को देख कर हिरणों के झुण्ड में आये हड़कम्प वाली स्थिति आ गई थी। बचपन में "स्टैच्यू" कहने के बाद वाले स्थिति में, सभी बिलकुल निस्तब्ध, खामोश और अवाक् हो गए और फिर उसके बाद जिन्हें इस महापुरुष का पूर्वज्ञान नहीं था- उनके अंदर अब 3000  वाट के ज्ञान का बल्ब जल चुका था और वे अपने तुच्छ जीवन पर मातम मनाने वाले स्थिति में आ चुके थे।   

अनेकों ऐसे अनुभवों का तकाज़ा था कि लोगों को लगने लगा था कि - 'जहाँ हमारी सोच ख़त्म होती है, उनकी शुरू होती थी' । अतः ऐसे विचारों का निर्वाह करने वाले - जो  हॉस्टल के लिए 'लिमिटेड एडिशन' में सप्लाई किये गए थे  - वैसे उच्च श्रेणी के संतों को, "ओशो" - या भगवान के समकक्ष का दर्ज़ा दे दिया गया था।

एक ओशो सरीखे के कमरे में, अंदर दीवार पर हाथों से लिखा पाया गया था - "Life with no derivation.  Only apply definite integration - where the function of happiness has limit tending to infinite."  इस तरह से calculus और जिंदगी के समीकरण बनाने की अभूतपूर्व "out of syllabus" ज्ञान को देख कर, हॉस्टल की प्रजा को जितने झटके आये होंगे, उसे अगर वीडियो कैमरा से रिकॉर्ड कर लिया जाता, तो मिथुन के 'डिस्को -डांसर' में किये ब्रेक-डांस भी फीका पड़ जाता।

आम लोगों ने ओशो के साथ अपने व्यक्तिगत अनुभव और किवदंती की तरह फ़ैल चुके उनके ख्याति के पश्चात, यह निष्कर्ष निकाला कि "ओशो" से दूर रहना ही उनके मानसिक स्वास्थ्य के लिए उचित था।

हॉस्टल के ज्यादातर छात्र भारतीय किसानों के ढर्रा में ज़िंदगी जी रहे थे - पौ फटते ही हॉस्टल से निकल कर, दिन भर क्लास के खेतों में दिमाग का हल चला कर ज्ञान की खेती का श्रम-दान करने के पश्चात, गोधूलि बेला में वापस अपने अपने कमरे में आ जाते थे। लोगों के इस सामान्य जीवन शैली से ओशो बहुत निराश रहते थे, साथ ही अपने उत्तम श्रेणी के विचारों के प्रति झुकाव नहीं देखने से, "ओशो" नाराज हो गए और हॉस्टल के मुख्यधारा से विमुख हो कर अपने हिसाब से जीने लगे थे।

ओशो का जीवन के प्रति भावना इस सिद्धांत से प्रेरित था कि - "हम भी रात को रात कहने लगे, हम भी गोया ख़राब होने लगे हैं"। फलस्वरूप इनके जीवन में रात और दिन का कोई अंतर नहीं होता था। आखिरकार ईश्वर के ही बनाये २४ घंटे के दो रूप - रात और दिन थे, अतः वे दोनों को एकसमान भाव से जीते थे।  जिसका मतलब यह था कि कभी कभी  २-३ बजे रात को भी ओशो हॉस्टल में विचरण करते नज़र आते थे- कइयों को लगा कि यह सपने में चलने की बीमारी के वज़ह से था, पर जल्द ही लोगों को समझ में आने लगा था कि ओशो देर रात, किसी दुसरे हॉस्टल से लौट कर आ रहे होते थे।

शुरुआत में मुझे लगा कि ओशो अपने ज्ञान का वितरण, छिटपुट घटनाओं के दौरान अकस्मात् कर दिया करते होंगे। परन्तु ४ साल के अध्ययन के पश्चात, उनके लडखडाती जीवन के सिद्धांतों की बैसाखी का पता चला, जिस के सहारे वे चल रहे थे।

ओशो, आम समय में भी जिस सतह पर विचरण करते रहते थे, वह सामान्य लोगो के समझ के परे होता था -
एक बार मेस में किसी क्रिकेट मैच की चर्चा में लोग बड़े चाव से भाग ले रहे थे और अचानक से ओशो उवाच-
"अबे यार, वो उधर 'पइसा' बना रहा है और इधर तुम लोग बकवास कर रहे हो… "

इसी तरह से एक बार कोई परीक्षा दे कर आने के बाद अपने एक प्रश्न के गलत होने का गम मना रहा था, पुनः ओशो उवाच -
"यार, 65% मार्क्स के ऊपर जो भी लाओगे उसका क्या अचार डालोगे? जितना जरुरत है उतना ही मार्क्स बटोरो, बाकी छोड़ दो प्रोफेसर के लिए "

ओशो के इस परिचय के बाद, उनके उपर विस्तार से कभी और चर्चा करूँगा -अभी के लिए इतना ही।