BIT के मेस को उसके शाब्दिक अर्थ के रूप में ही लेना चाहिए थे - अतः उनकी अवस्था वाकई messy ही होता था। अलग अलग हॉस्टल में मेस के आकार और प्रकार में थोड़ा बहुत फेर बदल होता था, पर मूल रूप से इनका मकसद, हॉस्टल में रहने वाले निवासियों के खाद्य आपूर्ति से सम्बन्धित होता था। परन्तु साथ ही मेस का भू-खंड, मेस सर्वेन्ट्स के रहने के लिए भी प्रयोग में आता था। इस कारण वहां दोपहर या रात के समय रेलवे प्लेटफार्म वाली स्थिति होती थी - जब धरती के समतल होने के प्रमाण स्वरूप एवं स्वयं को जमीन से जोड़े रखने वाले कहावत की, जमीनी हकीकत के तौर पर - सभी मेस के कर्मचारी वहां सोये नज़र आते थे। थोड़ी दूर पर मनुष्य का सदियों से बना साथी- कुत्ते- भी साथ देते हुए, फ्री-स्टाइल में सोते नज़र आते थे। रात की सिगरेट ख़त्म हो जाने के बाद, कई बार इनके पास जाकर बीड़ी मांग कर पीने के दौरान, इनके सोने के अंदाज़ का दिव्य ज्ञान प्राप्त हुआ था।

आज़ाद भारत के प्रशासन व्यवस्था के तर्ज़ पर, हमारे कॉलेज में भी फर्स्ट ईयर के दौरान मेस की व्यवस्था का बागडोर -'वॉयसराय' वार्डन- के हाथों था और सेकंड ईयर से हम स्वावलम्बी हो गए थे। अंग्रेज़ों से मिले भारत में, भाषा के आधार पर बने राज्यों की तरह, हॉस्टल में रहने वाले अलग अलग ब्रांच ने मेस के रूप में - अपनी सार्वभौमिकता प्राप्ति के उद्देश्य को पूर्ण कर लिया था। कई होस्टल में ब्रांच के आधार पर विभाजन जैसे विचारों से ऊपर उठ कर, शाकाहारी एवं मांसाहारी भोजन के मौलिक भिन्नता के आधार पर भी, अलग मेस चलाने का प्रचलन था।


मेस के अंदर का हाल, किसी पुराने सरकारी दफ्तर जैसा होता था। सदियों से पुताई न होने की वजह से काले पड़े दीवार, धूल और गंदगी से जमकर काले पड़ चुके फर्श, ऊपर छत से झूलते बिजली के तारों पर - "hanged by the neck till death" - के अंदाज़ में लटके बल्ब - जो अपनी पूरी ताकत झोंक कर जलने के बाद भी - इतनी ही रोशनी कर पा रहे होते थे कि लोगों को खाते समय, मेज पर अपना प्लेट दिख जाता था और इस तरह से वे अपने ही प्लेट का खाना खाते थे।

मेस के हॉल में खिड़कियां भी होती थी - जो हावड़ा ब्रिज के अंतिम बार खुलने के समय से बंद पड़ा था। अब उन खिड़कियों के सामने - देश के अनेक अलगाववादी संस्थाओं की तरह- घने मज़बूत झाड़ियों और छोटे बड़े अनेक सारे पेड़-पौधे तन कर खड़े हो गए थे। आदि काल में, उन खिड़कियों के पटों में शीशा लगाया गया था - जिनमे से ज्यादातर अब तक टूट चुके थे। बाकी बचे शीशों के साथ-साथ - उनसे रोशनी आने देने के विचार - दोनों को, खिड़की के साथ-साथ पेंट कर के, बंद कर दिया गया था। खिड़कियों के आँखों के सामने, पौधे से पनपते हुए इन झाड़-जंगलो के विकराल रूप ले लेने के कारण, अब खिड़कियों को खोलना लगभग असंभव सा हो गया था।  घने झाड़-जंगल, खिड़की से अंदर आने वाली रोशनी पर, हावी हो गए थे।

उधर छत पर, देश के टैक्स-पेयर्स की तरह, पंखों को हमेशा चलते रहने की सज़ा दे दी गयी थी, और उन से लोगों को ठण्ड पहुंचाने के क्रम में, जो बन पा रहा था- वो कर रहे थे।

मेस के हॉल में दो तरफ से अन्दर आने का दरवाजा बना होता था। चारों कोने पर खाने के मेज़ लगे होते थे, जो सरकारी व्यवस्था की तरह बहुत लचर होती थी, और जिधर ज्यादा भार पड़ती थी - उधर झुक जाती थी। मेज़ के दोनों और बैठने के लिए  बेंच होता था।

बेंच - मानव सभ्यता में बैठने के लिए बनाये गए सरलतम इज़ाद रही होगी, जिसमे कोई कलात्मकता की गुंजाईश नहीं है। शायद विश्वकर्माजी ने - 'बैठने योग्य फर्नीचर' - बनाने की जो प्रतिस्पर्धा की होगी, उसमे सबसे आलसी बढ़ई की बनाई कृति रही होगी - बेंच । यह वैल्यू -इंजीनियरिंग का उत्कृष्टतम उदाहरण है जो सिर्फ बैठने के उद्देश्य से कम से कम लकड़ी के इस्तेमाल करते हुए, कम से कम समय में बनाया जाता है और इस तरह से उपयोगिता और गुणवत्ता में काफी ऊपर आता है।  साथ ही बेंच टिकाऊ भी होता है। कई बार बेंच के एक पैर के टूट जाने पर, ईंट आदि लगा कर इसे स्थित करने जैसा -'जुगाड़' व्यवस्था - अक्सर आस पास के ढाबे में देखने को मिल जाता था। कभी कभी मेस के बेंच के पटरों का, बैठने वाले से नाराज़ होकर बहुत जोर की चिकोटी काटने जैसा - चुटीला अनुभव भी सामान्य बात थी - जिसके बाद, अपने इंजीनियरिंग का परिचय देकर, किसी पत्थर या ईंट जैसे ठोस वस्तु से ढीले पड़ चुके कील को ठोंकने जैसा कार्यक्रम भी चलता था।

मेस में बेंच पर खाली जगह होने पर, लोग आकर बैठ जाते थे वरना प्रतीक्षा के लिए लोग मेस के बाहर बने बरामदे में खड़े होते थे। 'आप क़तार में हैं, कृपया प्रतीक्षा करें' - जैसे लोग, समय काटने के लिए जो भी उस समय के कॉलेज का सामयिक विषय होता था- उस पर परिचर्चा करते थे। आम तौर पर किसी अमुक का, किसी अमुक के साथ - हँसते हुए बात करने का, साथ साथ कही घूमने जाने की, किसी का कामेश्वर ढाबा, पुष्टि, शहरपुरा, कैंटीन आदि जैसे जगहों में दिख जाने की या इनसे मिलती जुलती किसी भी 'रिकॉर्डिंग' को स्लो मोशन में चला कर लोग विस्तृत समीक्षा करते थे - कहना नहीं होगा की उन दिनों के गर्ल्स - हॉस्टल# ११ के इर्द गिर्द की चर्चा सुर्ख़ियों पर होता था।

मेज के दोनों ओर बेंच पर भोजन के प्रतीक्षा में बैठे लोगों को देख कर ऐसा प्रतीत होता था,  जैसे प्रधानमंत्री के विदेश दौरे के दौरान दो देशों के राजनयिक दल समझौता करने के लिए बैठे हों। आमतौर पर मेज के ऊपर एक दुखी सा दिखने वाला, टूटी फूटी तश्तरी - जो बाहर फेंके जाने से पहले मिल गए जीवन दान को धन्यवाद देती - टेबल पर नमक और मिर्च को धारण करने के काम में लगी होती थी।  मेज़ पर रखे - नमक और मिर्च - हर परीक्षा में आये कुछेक ऐसे प्रश्नों की तरह होता था, जो ऐसे चैप्टर से होता था जो पढ़ने योग्य नही होता था और लोग मान कर चलते थे कि ऐसे कुछ प्रश्न जरूर आएंगे, पर खाने के दौरान, उन्हें कोई-कोई ही प्रयास करता था ।

बेंच पर लोगों के बैठने का स्टाइल भी अलग अलग किस्म का होता था। कुछ लोग रॉकेट में दम साध कर कर स्पेस में जाने के मुद्रा में, कुछ आर्मी के जवान के सावधान मुद्रा में, कुछ परचून के दुकान के सेठ की तरह - शरीर को अपने पसंद के "पॉइंट ऑफ़ स्टेबिलिटी" खोजने की छूट दिए, कुछ लोग लुंगी पहन कर इसी लिए आते थे कि एक पैर को धरती मैया से दूर बेंच के ऊपर रखा जा सके, कुछ तो धरती के प्रति सम्पूर्ण श्रद्धा और - 'भोजन करना ईश्वर को धन्यवाद देना है', इस भावना से - दोनों पैरों को ऊपर कर पालथी मार कर - आहुति देने के मुद्रा में भी बैठते थे।

अंतिम दोनों अवस्था में भोजन ग्रहण करने वाले 'भक्षक' - टेस्ट मैच के ओपनिंग बैट्समेन की तरह होते थे। इत्मीनान से लम्बी इनिंग खेलने के उद्देश्य से, मैच शुरू होने के पहले से ही आकर पिच का मुआयना करते हुए, गार्ड वगेरह लेकर - रसोई के तरफ से सबसे नज़दीक वाले स्थान- पर बैठ जाते थे। मेडेन ओवर की तरह खेलते हुए, कई बार अगर ऐसे बल्लेबाज अगर एक छोर को सम्हाल लेते थे, तो फिर बाकियों को खेलने के लिए कोई अवसर ही नहीं मिल पाता था। खास कर अगर पूरियां बनती थी तो - इन दिग्गजों के कारण पूरियों को हमारे तक पहुँचने का मौका ही नहीं मिलता था और वे पहुँच से बाहर ही रह जाते थे।सीनियर बच्चन की मधुशाला की पंक्तियाँ याद आ गई -‘ऊपर-ऊपर पी जाते हैं जो पीने वाले हैं’

बैठने का मुद्रा जो भी हो मकसद एक ही होता था - खाना को खा लेना - जो किसी परिश्रम से कम नही होता था। मेस के रसोइयों को लाख समझाने के बाद भी खाने के स्तर में कोई फर्क नहीं आता था और अंत में प्लेट में जो आता था, उसे खा लेना - 'भोजन जीवन का आधार है' - के भावना से प्रेरित होता था। दरअसल मेस की व्यवस्था - गांव के बने कच्चे पुल सा होता था -काफी लचर सा और बरसात में अक्सर टूट जाने का भय भी रहता था। दोनों अर्थ-व्यवस्था की उपेक्षा के शिकार थे - गाँव का पुल सरकारी तंत्रो के जाल में बंधा और मेस का हाल, हॉस्टल के 'बाबुओं' के -'कल दे देंगे, मनी आर्डर आते ही दे देंगे, अगले महीने दे देंगे' - इत्यादि जैसे आश्वासन, के कारण था।

मेस को चलाने की जिम्मेवारी हर महीने, किसी एक के मत्थे जड़ दिया जाता था। जो अगले काफी दिनों तक, कइयों का कोपभाजक होता था और वह 'भिखारियों' की तरह याचक दृष्टि से लोगों को देखता, तगादा करता और मेस में किस दिन क्या बनेगा, इस उधेड़ बुन में लगा रहता था। हर रोज़ के बने खाने के ख़राब स्वाद, मुर्गे का टांग - लेग पीस- नही मिल पाने की नाराज़गी, घट गए परांठे या रोटी का मलाल और इस तरह के अनेकानेक शिकायतों का टोकरा - कमरे के कोने में, धोबी के ले जाने वाले गंदे कपड़ों के ढेर सा - मेस मैनेजर के लिए इंतज़ार करता रहता था। परीक्षा के समय, मेस को चलाने का काम और भी कठिन हो जाता था।

मेस के ज्यादातर रसोइये सिंदरी से थोड़े दूरी पर बहने वाली दामोदर नदी के पार के बंगाल के गांवों से आये होते थे। आईपीएल की तरह हरेक रसोइया धोनी की तरह एक मेस का बागडोर सम्हाल लेता और उसके साथ खुद ब खुद - रैना और जडेजा की तरह - बाकी प्लेयर उसकी टीम से जुड़ जाते थे। रसोइया और उसके साथियों को महीने का पारिश्रमिक अनुबंधित राशि की तरह मिल जाता था और साथ में भोजन और रहने की व्यवस्था भी। मेस के पीछे की ओर रसोईघर और रहने के कमरे होते थे और उस संकरी सी गलियारे से आगे निकलने पर जूठे खाने और रसोई के कचरे को फेंकने की व्यवस्था होती थी जो सदियों से जमा हो कर एक टीले के रूप में गाय, सूअर, कुत्ते, कौवे और अन्य जीव जंतुओं के तीर्थाटन के केंद्र बन गए थे। आम तौर पर मेस में रविवार के दिन चिकेन बनने की प्रथा थी और मेस के पीछे साइकल पर टोकरे को लाद कर चिकेन के सौदा होते देखा जा सकता था। खाने के सामान के खरीद फरोख्त का जिम्मा भी मेस के रसोइये का ही होता था जो अपने साइकल से कभी शहरपुरा तो कभी कही और से चावल, दाल और बाकी किराना के सामान को खरीद कर ले आया करता था।

ईश्वर ने सभी को एक जैसा नहीं बनाया है, इसका प्रमाण मेस मैनेजर से अच्छा, कोई नहीं जानता होगा। सभी लोग एक समय पर पैसा नहीं देते थे जिस कारण बाजार से किराना का सामान नही आ पाता था। बाकी के पैसे नहीं देने के कारण, महीने के शुरू में दिए पैसे के घटने से स्मरण हो जाता था, प्रेमचंद का 'नमक का दरोगा' का कथन - "मासिक वेतन तो पूर्णमासी का चाँद है, जो एक दिन दिखाई देता है और घटते-घटते लुप्त हो जाता है।" फलस्वरूप, पहले तो भोजन के स्तर में गिरावट, फिर वैकल्पिक व्यवस्था बनाकर- खिचड़ी, और अंत में मेज़ पर खाने के संकट के काले बादल मंडराते हुए मेस के बंद होने के मूसलाधार सा हो जाया करता था। खाने के स्तर को समझने का मापदंड खाने में आलू की मात्रा से करने की प्रथा थी। सब्जी में आलू लोगों के पेट भरने का सबसे बड़ा सहारा था। जितनी आलू की खपत BIT के मेस में होता था - उसे गिनेस बुक ऑफ़ रिकॉर्ड में दर्ज़ की जा सकती थी। आये दिन मेस बंद होने की सूरत में - कैंपस के हर दिशा में पनपे हुए ढाबे या उसी प्रकार के अन्य व्यवस्था से, भोजन की आपूर्ति की जाती थी।

BIT के मेस की कुछ अनसूझी पहेलियाँ या दर्शन-शास्त्र के कुछ विचार बिन्दुएँ -
  • अगर हमारे ज़माने में भी मुर्गे के दो टांग ही हुआ करते थे, तो हर किसी को लेग पीस कैसे मिल सकता था? लेग पीस -एक शाश्वत शिकायत या मांग होता था। शायद ही कोई समय ऐसा होता था, जब लोग चिकेन के पीस मिलने से, प्रसन्न होकर उसे ग्रहण कर लेते थे, वरना - "अरे यार, ये मेरे को कौन सा पीस दे रहे हो यार, दूसरा पीस ले के आओ!"
  • जब मेस के बंद होने के बाद, लोग बाहर ढाबे में जा कर खाना खा सकते थे, तो फिर मेस का पैसा क्यों नहीं भर पाते थे? पैसे नहीं मिलने के कारण आये दिन मेस बंद हो जाया करता था।   
  • "दाल में से दाल निकल कर दो" - इस में छिपा सत्य - 'पानी रे पानी तेरा रंग कैसा' - के तर्ज़ पर दाल में पानी के ज्यादा योगदान से होता था।
  • मेस के रोटी को कई बार फेंक देने के बाद कुत्तों के द्वारा भी मुंह फेर देने के बाद - मेस के रसोइये का आत्मविश्वास कि हमलोग उसे खा सकते थे - किस तरह से आता था? 
  • और एक गंभीर विषय - हमारे मेस के बंद होने के कारण, मेस में आश्रित रसोइये और उनकी टीम के घर का चूल्हा भी बंद हो जाता था। उन दिनों इस विषय पर कभी भी हमारा ध्यान नहीं गया होगा- अब याद आता है तो अफ़सोस होता है!  
कुल मिला कर BIT में बिताये हमारे जीवन के चार साल के दौरान हमारे शरीर को ईंधन देकर दौड़ने की शक्ति देने में - मेस का आंशिक रूप से ही योगदान था -बाकी का भार - कैंपस के चारों और बिखरे ढाबे पर था- जो समय से काफी आगे, outsourcing का एक उदाहरण था।