BIT के कैंपस के उत्तरी दिशा में 'जिम'- अर्थात व्यायामशाला है। कैंपस के ज्यादातर भवनों की तरह, इसका निर्माण भी काफी महत्वाकांक्षी लगता था परन्तु रख रखाव के आभाव में उसकी व्यवस्था देख कर लगता था कि - "हाथी चला गया, हथिसार चला गया - फिर भी हम हाथ में सीकड़ लिये हुए हैं, कि हमारे दरवाजे पर कभी हाथी था।"

ज्यादातर समय जिम बंद ही रहता था। टूटे फूटे दरवाज़ों में लगे शीशे से अंदर देखने पर, निर्जीव अवस्था में, कुछ व्यायाम के अस्त्र शस्त्र पड़े दिख जाते थे। सामने बरामदे के रेलिंग पर बैठ कर, पैर झूलाते हुए साथ में सिगरेट पीने का आनंद अद्भुत था। बरामदे से विहंगम दृश्य को देखते हुए सामने मैदान के आगे एक बहुत बड़ा खाली हिस्सा दीखता था। रावण दहन के समय खड़े किये पुतले की तरह - बिजली के बड़े बड़े खम्भे, एक दुसरे से बराबर दूरी बनाये, क्षितिज के खालीपन को कम करने की जिम्मेदारी उठाये हुए थे। रेलवे के ट्रेक से लगे हुए बहुत सारे ताड़ के वृक्ष मैदान के सरहद को निर्धारित करती से दिखते थे। सामने सिंदरी फ़र्टिलाइज़र का बहुत ऊँचा चिमनी दीखता था जहाँ से अक्सर गहरा गाढ़ा धुँआ निकलता रहता था।
बिल्डिंग काफी विस्तृत था और इसमें बड़े-छोटे को मिला कर करीब ५-६ कमरे थे। उन कमरों में से एक में, कुछ दिनों के लिए एक हेयर कटिंग सैलून भी खुला था। उस के ठीक बगल में एक नया कैंटीन भी खुला था, जो ठीक-ठाक चलने लगा था। पर कुछ दिनों बाद - केशकर्तन एवं जलपान गृह - दोनों के दरवाजे बंद हो गए।
जिम के आगे एक बहुत विशाल मैदान है। इस मैदान में कॉलेज के ज्यादातर खेल खेले जाते थे। मैदान में अनेकों की संख्या में बकरियां, गायें और भैंसों को देख कर ऐसा प्रतीत होता था मानो मवेशियों और कॉलेज के लड़कों के बीच उस मैंदान के अधिकार पर कई सालों से जंग छिड़ी हुयी थी। हालत यह थी कि कभी-कभी क्रिकेट खेलते समय गाय या भैंस भी फील्डिंग कर दिया करती थी।
'मनुष्य एक सामाजिक जीव है' - अच्छी बात है, सबको पता है। परन्तु इसका प्रमाण मैदान में दीखता था, जब लोग गाय या भैस को मैदान से दूर भगाने के क्रम में अपने अंदर के जानवर को जगाते थे और अति रोचक एवं "क्रियात्मक" शैली में -"हई, हऊ, हट्ट ट्ट" इत्यादि - जैसे बचपन से पढ़ते आ रहे वर्णवाली के सारे शब्दों के योग को करके उन्हें -'उनकी' भाषा में समझाने का प्रयत्न करते थे। आश्चर्य यह था कि कई बार इस तरह के भाषा में दिए गए आदेश को समझ कर, जानवर उसका पालन भी कर देते थे, और बाउंड्री से बाहर चले जाते थे!
जिम के ठीक बगल में एक टेनिस कोर्ट बना हुआ था, जिसे हमारे बैच के कुछ जीवट लोगों ने हिम्मत करके चालू करने की कोशिश की थी। मैकेनिकल को गैस डायनामिक्स पढ़ाने वाले प्रो. एस पी गुप्ता, अक्सर टेनिस खेलने के लिए आया करते थे। वैसे हमारे समय खेल के प्रभारी - प्रो. पी चाँद होते थे - जो शायद Physics पढ़ाते थे।
ज्यादातर लोगो के लिए टेनिस एक अप्राकृतिक सा खेल था - जिसमे बैडमिंटन और क्रिकेट की तरह शॉट मार देने से बॉल काफी ऊंचाइयां लेते हुए मैदान के बीचो-बीच बने क्रिकेट के पिच के आस पास पहुँच जाती थी, और टेनिस खेलने के बताये तरीके से मारने पर - सामने घनी झाड़ियों में छुपने चली जाती थी।
बचपन से इस तरह की बॉल के गुम हो जाने की घटनाओं से प्राप्त अनुभव का निचोड़ था कि - जब कभी बॉल झाड़ियों की ओर या कहीं दूर चली गयी हो, तो टप्पा खाने की जगह और उसके बाद बॉल किस दिशा में गई थी, इन दोनों को अपने नज़रों पर टिकाये हुए, गेंद को तुरंत ले आने में बुद्धिमानी होती थी - वरना गेंद का नज़रों से ओझल होने का डर रहता था।
धीरे धीरे हर किसी को इस बात का ज्ञान होने लगा कि उनका टेनिस खेलने से ज्यादा, बॉल को पकड़ कर लाने में समय व्यतीत होता था। और इस तरह से हमारे बैच में, १०८ डिग्री पर चढ़े बोरिस बेकर के नक़्शे कदम पर चलने का 'टेनिस-बुखार', धीरे धीरे उतरता गया।
मैदान के मध्य में क्रिकेट का पिच था जिसका एक छोर लगभग हॉस्टल - ९ की तरफ था। क्रिकेट के पिच को समतल करने वाला एक भारी रोलर, हॉस्टल-९ के गेट के करीब मैदान में "पार्क" करके रखा जाता था - जिस पर बैठ कर सिगरेट पीने का आनंद भी काफी सुखदायी होता था।
दोनों छोर पर, मैदान के दो कानों की तरह - फुटबाल के गोलपोस्ट बने हुए थे। इसी मैदान में हॉकी भी खेला जाता था। साल में एक बार वार्षिक एथेलेटिक्स का भी आयोजन होता था, जिसमे तरह तरह के दौड़, कूद-छलांगे, गोला और भाला-फेंक, और अगर प्रतियोगी मिल जाए तो इस तरह के और भी कई अन्य तरह के स्पर्धाओं को भी संपन्न किया जाता था।
जैसे एक हमारे सीनियर पाण्डे जी बेंच प्रेस या कुछ पावर लिफ्टिंग जैसा कुछ किया करते थे। उस साल के वार्षिक आयोजन में उस स्पर्धा को शामिल करवाने के लिए उन्हें कुछ और प्रतियोगी चाहिए थे। स्वाभाविक है कम से कम दो और तो चाहिए ही थे, जिस से कोई फर्स्ट और सेकंड रनर अप भी हो। इस प्रक्रिया में प्रतियोगियों को तैयार करवाने की जरुरत पडी। सदियों से शबरी बने जिम के कई सारे डम्बेल और डेडलिफ्ट, पाण्डे जी जैसे मर्यादा पुरूषोत्तम के प्रतीक्षा में सर्द पड़े हुए थे - पांडेजी के इस उत्तम पहल से उन सबका उद्धार हो गया था। और इस तरह से पांडेजी उस साल के पॉवेरलिफ्ट चैम्पियन घोषित हुए थे। पानी की कमी के वजह से बहुत सारे स्विमिंग चैम्पियन अपने जौहर को दिखा पाने से वंचित रह गए थे।
वास्तव में खेल के दृष्टिकोण से फुटबॉल और क्रिकेट काफी हद तक 'जिम' के नाम को सार्थक करते थे। शाम को और weekends में अक्सर क्रिकेट खेला जाता था। कभी कॉलेज के branches के बीच तो कभी कॉलेज के batches के बीच प्रतिस्पर्धा होती रहती थी। इन खेलों में, खेलने वाले से काफी ज्यादा जोश, देखने वालों में होता था। इस दौरान एक दुसरे के तरफ से होने वाले नारेबाजी और फब्तियों में नए नए स्लोगन के इज़ाद करने की क्षमता को देख कर - लोगों में व्याप्त raw talents का पता चलता था। कैच छूटने पर - "छेदा है" या "मछली पकड़ लिए क्या?" या "चश्मा पहनना भूल गया क्या?" के साथ-साथ - "पार्टी नर्वस है" काफी मशहूर हुआ था।
हॉस्टल ९ के ठीक सामने, कॉलेज के मेन रोड के 'महापौत्र' की तरह एक नए रोड का प्रादुर्भाव हुआ था - जो FCI से मिले छाई (slag) को बिछा कर बनाया गया था। इस रोड के बनने का मक़सद- कैम्पस से सिंदरी रेलवे स्टेशन जाने के उद्देश्य से रहा होगा।
मैदान के बीचो बीच पाइथागोरस के आत्मा को पुनर्जीवित करने की भावना से, क्रिकेट के पिच को चीरते हुए एक पगडंडी बनी हुई थी। यह पगडंडी हॉस्टल १० और ११ से आते ही मेन रोड को सीधे - कामेश्वर ढाबा से जोड़ता था। अगर गूगल द्वारा प्रदत्त मैप की सुविधा से उस जगह की तस्वीर को गौर से देखा जाये तो वास्तव में सड़कें लगभग ९० डिग्री पर मिलती हैं और मैदान के बीचो बीच बनी पगडंडी hypotenuse बनकर - एक Right Angle त्रिभुज जैसा बनाता है। Pythagoras rocks! उसे बिना किसी satellite view के ही, मनुष्य के short-cut रास्ते बनाने के लक्षण का पता था ।
जिम के ठीक पीछे कैंपस को 'जल ही जीवन' के उपदेश को साकार करने वाली - पानी की टंकी थी। उस टंकी के ठीक नीचे PHED का ऑफिस था। शायद ऑफिस जैसे दिखने के उद्देश्य से और व्यवस्था को गंभीर बनाने के लिए, पानी के टंकी को दीवार से घेर दिया गया था और सामने एक फाटक भी लगा दिया गया था। यहाँ काम करने के भावना से आने वाले कई कर्मचारी भी दिख जाते थे, पर उनके काम करने पर एक प्रश्नचिन्ह लगा था।कैंपस के पूरे ४ सालों में, हॉस्टल के बाथरूम में नहाने का सौभाग्य, शायद ही किसी किसी को मिला होगा। अलबत्ता, इनके हड़ताल के कारण, हमें एक sine die जरूर झेलना पड़ा था। हर हॉस्टल के सामने, हैंड पंप लगा था - जिसके अनुभव पर कभी और विस्तार से लिखूंगा!
शाम के समय जिम के मैदान में अनेकों तरह की गतिविधियाँ होती थी, जिसमे 'खेल' शामिल नहीं होता था।कैम्पस के इस भू-भाग में, कॉलेज के लड़कियों के सिंदरी स्टेशन या कामेश्वर ढाबा से, आने-जाने के दृश्यावलोकन और उस से वांछित फल पाने की मनोकामना सिद्ध करने के उदेश्य से, काफी गहमा-गहमी होती थी। कई लोग अज्ञेय के "हरी घास पर क्षण भर" के धारावाहिक श्रृंखला बना कर - घंटों तक घेरा लगाये इस तरह से बैठ जाते थे - जैसे कोई यज्ञ का अनुष्ठान किया जाने वाला था। इस क्रम में वे, अपने आमने सामने के सारे घास को नोचते रहते थे, पर लड़कियां कुछ घास नहीं डालती थीं। वे तो इन सब व्यवधानों को, ट्रक ड्राइवर की तरह, सीधे सामने नज़र गड़ाए, पार करती हुई आगे निकल जाती थीं। कुछेक 'जरा हट के' किस्म के विशेष लोग - ट्रैक सूट या कुछ उसी तरह के परिधान को पहन कर, आमिर खान के "कयामत से क़यामत तक" के तर्ज़ पर - मैदान का चक्कर लगाते - लम्बी लम्बी पैंग बढ़ाते से दिख जाते थे, जिन पर कभी कभी देवियों का नज़र अनायास पड़ जाने जैसी गलतफमियों का सूत्रपात होने की पूरी गुंजाईश बनी रहती थी।
शाम के ७:३० बजते ही, अँधेरा हो जाता था और गर्ल्स हॉस्टल #११ के लिए - धारा १४४ - के पालन करने का हुक्म जारी हो जाता था, जिस कारण पूरा शो खत्म हो जाता था। 'पैसा हजम, खेल खतम' - सब वापस अपने अपने हॉस्टल की और निकल जाते थे।
फिर से अगले दिन सुबह, वापस उस मैदान पर गाय-बकरियों का साम्राज्य स्थापित हो जाता था।

ज्यादातर समय जिम बंद ही रहता था। टूटे फूटे दरवाज़ों में लगे शीशे से अंदर देखने पर, निर्जीव अवस्था में, कुछ व्यायाम के अस्त्र शस्त्र पड़े दिख जाते थे। सामने बरामदे के रेलिंग पर बैठ कर, पैर झूलाते हुए साथ में सिगरेट पीने का आनंद अद्भुत था। बरामदे से विहंगम दृश्य को देखते हुए सामने मैदान के आगे एक बहुत बड़ा खाली हिस्सा दीखता था। रावण दहन के समय खड़े किये पुतले की तरह - बिजली के बड़े बड़े खम्भे, एक दुसरे से बराबर दूरी बनाये, क्षितिज के खालीपन को कम करने की जिम्मेदारी उठाये हुए थे। रेलवे के ट्रेक से लगे हुए बहुत सारे ताड़ के वृक्ष मैदान के सरहद को निर्धारित करती से दिखते थे। सामने सिंदरी फ़र्टिलाइज़र का बहुत ऊँचा चिमनी दीखता था जहाँ से अक्सर गहरा गाढ़ा धुँआ निकलता रहता था।
बिल्डिंग काफी विस्तृत था और इसमें बड़े-छोटे को मिला कर करीब ५-६ कमरे थे। उन कमरों में से एक में, कुछ दिनों के लिए एक हेयर कटिंग सैलून भी खुला था। उस के ठीक बगल में एक नया कैंटीन भी खुला था, जो ठीक-ठाक चलने लगा था। पर कुछ दिनों बाद - केशकर्तन एवं जलपान गृह - दोनों के दरवाजे बंद हो गए।
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इनके ऊपर मैदान के रख-रखाव की जिम्मेवारी हैं |
'मनुष्य एक सामाजिक जीव है' - अच्छी बात है, सबको पता है। परन्तु इसका प्रमाण मैदान में दीखता था, जब लोग गाय या भैस को मैदान से दूर भगाने के क्रम में अपने अंदर के जानवर को जगाते थे और अति रोचक एवं "क्रियात्मक" शैली में -"हई, हऊ, हट्ट ट्ट" इत्यादि - जैसे बचपन से पढ़ते आ रहे वर्णवाली के सारे शब्दों के योग को करके उन्हें -'उनकी' भाषा में समझाने का प्रयत्न करते थे। आश्चर्य यह था कि कई बार इस तरह के भाषा में दिए गए आदेश को समझ कर, जानवर उसका पालन भी कर देते थे, और बाउंड्री से बाहर चले जाते थे!
जिम के ठीक बगल में एक टेनिस कोर्ट बना हुआ था, जिसे हमारे बैच के कुछ जीवट लोगों ने हिम्मत करके चालू करने की कोशिश की थी। मैकेनिकल को गैस डायनामिक्स पढ़ाने वाले प्रो. एस पी गुप्ता, अक्सर टेनिस खेलने के लिए आया करते थे। वैसे हमारे समय खेल के प्रभारी - प्रो. पी चाँद होते थे - जो शायद Physics पढ़ाते थे।
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२००६ में सिंदरी में 'मित्रों के साथ मिलन' के दौरान ली गई तस्वीर |
बचपन से इस तरह की बॉल के गुम हो जाने की घटनाओं से प्राप्त अनुभव का निचोड़ था कि - जब कभी बॉल झाड़ियों की ओर या कहीं दूर चली गयी हो, तो टप्पा खाने की जगह और उसके बाद बॉल किस दिशा में गई थी, इन दोनों को अपने नज़रों पर टिकाये हुए, गेंद को तुरंत ले आने में बुद्धिमानी होती थी - वरना गेंद का नज़रों से ओझल होने का डर रहता था।
धीरे धीरे हर किसी को इस बात का ज्ञान होने लगा कि उनका टेनिस खेलने से ज्यादा, बॉल को पकड़ कर लाने में समय व्यतीत होता था। और इस तरह से हमारे बैच में, १०८ डिग्री पर चढ़े बोरिस बेकर के नक़्शे कदम पर चलने का 'टेनिस-बुखार', धीरे धीरे उतरता गया।
मैदान के मध्य में क्रिकेट का पिच था जिसका एक छोर लगभग हॉस्टल - ९ की तरफ था। क्रिकेट के पिच को समतल करने वाला एक भारी रोलर, हॉस्टल-९ के गेट के करीब मैदान में "पार्क" करके रखा जाता था - जिस पर बैठ कर सिगरेट पीने का आनंद भी काफी सुखदायी होता था।
दोनों छोर पर, मैदान के दो कानों की तरह - फुटबाल के गोलपोस्ट बने हुए थे। इसी मैदान में हॉकी भी खेला जाता था। साल में एक बार वार्षिक एथेलेटिक्स का भी आयोजन होता था, जिसमे तरह तरह के दौड़, कूद-छलांगे, गोला और भाला-फेंक, और अगर प्रतियोगी मिल जाए तो इस तरह के और भी कई अन्य तरह के स्पर्धाओं को भी संपन्न किया जाता था।
जैसे एक हमारे सीनियर पाण्डे जी बेंच प्रेस या कुछ पावर लिफ्टिंग जैसा कुछ किया करते थे। उस साल के वार्षिक आयोजन में उस स्पर्धा को शामिल करवाने के लिए उन्हें कुछ और प्रतियोगी चाहिए थे। स्वाभाविक है कम से कम दो और तो चाहिए ही थे, जिस से कोई फर्स्ट और सेकंड रनर अप भी हो। इस प्रक्रिया में प्रतियोगियों को तैयार करवाने की जरुरत पडी। सदियों से शबरी बने जिम के कई सारे डम्बेल और डेडलिफ्ट, पाण्डे जी जैसे मर्यादा पुरूषोत्तम के प्रतीक्षा में सर्द पड़े हुए थे - पांडेजी के इस उत्तम पहल से उन सबका उद्धार हो गया था। और इस तरह से पांडेजी उस साल के पॉवेरलिफ्ट चैम्पियन घोषित हुए थे। पानी की कमी के वजह से बहुत सारे स्विमिंग चैम्पियन अपने जौहर को दिखा पाने से वंचित रह गए थे।
वास्तव में खेल के दृष्टिकोण से फुटबॉल और क्रिकेट काफी हद तक 'जिम' के नाम को सार्थक करते थे। शाम को और weekends में अक्सर क्रिकेट खेला जाता था। कभी कॉलेज के branches के बीच तो कभी कॉलेज के batches के बीच प्रतिस्पर्धा होती रहती थी। इन खेलों में, खेलने वाले से काफी ज्यादा जोश, देखने वालों में होता था। इस दौरान एक दुसरे के तरफ से होने वाले नारेबाजी और फब्तियों में नए नए स्लोगन के इज़ाद करने की क्षमता को देख कर - लोगों में व्याप्त raw talents का पता चलता था। कैच छूटने पर - "छेदा है" या "मछली पकड़ लिए क्या?" या "चश्मा पहनना भूल गया क्या?" के साथ-साथ - "पार्टी नर्वस है" काफी मशहूर हुआ था।
हॉस्टल ९ के ठीक सामने, कॉलेज के मेन रोड के 'महापौत्र' की तरह एक नए रोड का प्रादुर्भाव हुआ था - जो FCI से मिले छाई (slag) को बिछा कर बनाया गया था। इस रोड के बनने का मक़सद- कैम्पस से सिंदरी रेलवे स्टेशन जाने के उद्देश्य से रहा होगा।
जिम के ठीक पीछे कैंपस को 'जल ही जीवन' के उपदेश को साकार करने वाली - पानी की टंकी थी। उस टंकी के ठीक नीचे PHED का ऑफिस था। शायद ऑफिस जैसे दिखने के उद्देश्य से और व्यवस्था को गंभीर बनाने के लिए, पानी के टंकी को दीवार से घेर दिया गया था और सामने एक फाटक भी लगा दिया गया था। यहाँ काम करने के भावना से आने वाले कई कर्मचारी भी दिख जाते थे, पर उनके काम करने पर एक प्रश्नचिन्ह लगा था।कैंपस के पूरे ४ सालों में, हॉस्टल के बाथरूम में नहाने का सौभाग्य, शायद ही किसी किसी को मिला होगा। अलबत्ता, इनके हड़ताल के कारण, हमें एक sine die जरूर झेलना पड़ा था। हर हॉस्टल के सामने, हैंड पंप लगा था - जिसके अनुभव पर कभी और विस्तार से लिखूंगा!
शाम के समय जिम के मैदान में अनेकों तरह की गतिविधियाँ होती थी, जिसमे 'खेल' शामिल नहीं होता था।कैम्पस के इस भू-भाग में, कॉलेज के लड़कियों के सिंदरी स्टेशन या कामेश्वर ढाबा से, आने-जाने के दृश्यावलोकन और उस से वांछित फल पाने की मनोकामना सिद्ध करने के उदेश्य से, काफी गहमा-गहमी होती थी। कई लोग अज्ञेय के "हरी घास पर क्षण भर" के धारावाहिक श्रृंखला बना कर - घंटों तक घेरा लगाये इस तरह से बैठ जाते थे - जैसे कोई यज्ञ का अनुष्ठान किया जाने वाला था। इस क्रम में वे, अपने आमने सामने के सारे घास को नोचते रहते थे, पर लड़कियां कुछ घास नहीं डालती थीं। वे तो इन सब व्यवधानों को, ट्रक ड्राइवर की तरह, सीधे सामने नज़र गड़ाए, पार करती हुई आगे निकल जाती थीं। कुछेक 'जरा हट के' किस्म के विशेष लोग - ट्रैक सूट या कुछ उसी तरह के परिधान को पहन कर, आमिर खान के "कयामत से क़यामत तक" के तर्ज़ पर - मैदान का चक्कर लगाते - लम्बी लम्बी पैंग बढ़ाते से दिख जाते थे, जिन पर कभी कभी देवियों का नज़र अनायास पड़ जाने जैसी गलतफमियों का सूत्रपात होने की पूरी गुंजाईश बनी रहती थी।
शाम के ७:३० बजते ही, अँधेरा हो जाता था और गर्ल्स हॉस्टल #११ के लिए - धारा १४४ - के पालन करने का हुक्म जारी हो जाता था, जिस कारण पूरा शो खत्म हो जाता था। 'पैसा हजम, खेल खतम' - सब वापस अपने अपने हॉस्टल की और निकल जाते थे।
फिर से अगले दिन सुबह, वापस उस मैदान पर गाय-बकरियों का साम्राज्य स्थापित हो जाता था।
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