आपको ज्ञात होगा कि कुछ दिनों पहले, मैंने आप सबों का अपने हॉस्टल के ओशो से परिचय कराया था। ओशो के बारे में मेरे एक पुराने मित्र ने याद दिलाया कि जरूर लिखना कि उनका एक प्रसिद्द डायलाग होता था -
ओशो न जन्म लेता है न मरता है, बस अमुक तारिख से अमुक तक इस धरती का सैर करने आता है।
सर्वथा, हमारे ओशो के लिए यह उपयुक्त बैठता था, कैंपस में उनका वजूद सिर्फ महसूस किया जा सकता था -जो आज तक समझ में नहीं आया कि - कब, कैसे और कहाँ से कहाँ तक- बस सिर्फ हो गया, और ४ साल ख़त्म हो गए!

आज मैं ओशो के महात्म्य से आपका परिचय कराता हूँ।



इसमें कोई संदेह नहीं था कि हॉस्टल में, ओशो जीवन के सरलतम और दुनिया से एक अलग दुनिया बनाकर, अपना जीवन यापन कर रहे थे। ओशो के जीवन का सारांश, एक मैथिली भाषा की लोकोक्ति से व्यक्त हो जाता था -
ओझा लेखे गाम बताह, गामक लेखे ओझा बताह…।
- 'बताह' का शाब्दिक अर्थ तो मूढ़, जड़ या मंद  से होता है, आगे अपनी-अपनी विवेचना
एक वाकया याद आया - शायद final year की बात है। उन दिनों हमारे Batch के लोगों के चिंता के दो मुख्य विषय होते थे, और दोनों का तात्पर्य - 'आगे क्या होगा?' - से सम्बंधित था। एक, Material Science के re-exam - जिसका कारण आदि काल में हुए एक walk-out से था। और दूसरा, कॉलेज से निकलने के बाद के भविष्य जैसे विषम विषय से सम्बंधित था।

पहले वाले के मामले में तो लगभग - दवा नहीं दुआ - की जरुरत हो चुकी थी, दुसरे वाले रोग के हल के लिए - 'नौकरी' - के समाधान का प्रचलन था। ऐसी मान्यता थी कि सामान्य ज्ञान और वाद-विवाद के सतत अभ्यास जैसे घरेलू नुस्खे से, नौकरी की प्राप्ति संभव थी। अतः कैंपस में इस नुस्खे की तैयारी - हर समय, हर जगह, हर किसी के बीच - चालू रहता था। मेस में भी उन दिनों के तत्कालीन विषयों के मुताबिक, सोवियत के विघटन और उसके बाद शीत युद्ध के समाप्ति की चर्चा, अपने चरमोत्कर्ष पर था।

ओशो भी मेस में बैठे थे। हमारे चर्चा में बिना शरीक हुए, सब कुछ सुन रहे थे। चर्चा से बेफिक्र,  तन्मयता से खाते समय बीच बीच में मेस सर्वेंट को रोटी, दाल और चावल आदि लाने का आदेश देते हुए, वे खाने के कार्यक्रम को ज्यादा तज़रीह दे रहे थे।

 फिर अचानक से एक डकार लेते हुए उद्घोषणा करने के अंदाज़ में बोले-
भक्क साला, इधर Material Science का re-exam का तुम्हें चिंता ही नही है, और उधर खामखाँ तुमलोग Gorbachev की चिंता में पड़े हो। हमारे कॉलेज में भी perestroika की जरूरत है, साला लाइफ में इतना glasnost ठीक नहीं है.... 
इसके पश्चात, ओशो बिना किसी प्रतिक्रिया का संज्ञान लिए, मेस के बाहर हाथ को धोने चल पड़े, फिर बीड़ी सुलगाई … , और फिर अपने अगले गंतव्य - कामेश्वार का ढाबा की ओर चल पड़े।

ओशो का मानना था कि सिगरेट और बीड़ी दोनों में निकोटिन है तो फिर सिगरेट पर ज्यादा क्यों खर्च करना - साथ ही बीड़ी - मेस सर्वेंट, वार्ड सर्वेंट और अन्य लोगों के सौजन्य से,  'फ्री' में भी तो मिल जाया करता था! 

कई बार तो मुझे ऐसा भी लगता था कि ओशो धरती पर पूर्ण ज्ञान के साथ ही अवतरित हुए थे और वे ज्ञान प्राप्त करने नहीं बल्कि देने आये थे। इसी लिए ऐसा लगता था कि ओशो ज्ञान के स्थायित्व को नहीं मानते थे। कैंपस में बिताये ४ साल के अध्ययन के पश्चात, ओशो के 'लड़खड़ाती' जीवन के, सिद्धांतों की 'बैसाखी' का पता चला।

"कहते हैं ज्ञानी, दुनिया है फानी, पानी में लिखी लिखाई" - अर्थात, जो कल सत्य था उसे लोगों ने आज असत्य सिद्ध कर दिया है - धरती गोल है या समतल, धरती सूरज का परिक्रमा करती या धरती के चक्कर लगाता सूरज…कुछ भी तो हमेशा के लिए नही रहता - जिन खोजा तीन पाइया गहरे पानी डूब- अर्थात गीता के सन्देश के अनुसार ज्ञान भी हर युग में बदलता रहता है, इस लिए जब कुछ भी -"हमेशा के लिए नही है"- तो फिर उसे धारण ही क्यों करना? ओशो के सान्निध्य में रहकर, हमारे मन में यह प्रश्न खड़ा हो गया था कि किसे सही समझा जाए- ज्ञान का अनुभव अथवा अनुभव का ज्ञान?

दरअसल, ओशो के जीवन-रूपी बीकर में समाये तत्वों और मिश्रणों को, जब 'समय' का ताप मिलता था, तो अनेकों प्रकार के रासायनिक प्रतिक्रियाएं से होती थी। जिनके कारण ओशो के विचारों का उत्पादन का कार्यक्रम चलते रहता था। विचारों का 'मूल' तो वही रहता था, परन्तु अलग अलग समय पर, विचारों का स्वरुप बदलते रहते थे। ओशो के सारे विचार - जीवन के बीकर - में ही घुलती रहती थी, और छलक छलक कर बाहर टपकते रहते थे। ओशो के जीवन का बीकर जिस त्रिपाद पर अवस्थित था, उसके तीनों स्तम्भों के आधार के मुख्य आशय निम्न थे-
  1. जीवन स्वयं एक परीक्षा है, हरेक क्षण एक अनिवार्य प्रश्न है… उसके उत्तर को खोजने के लिए अंतर्मन में डुबकी लगाने की आवश्यकता थी, ऐसे में फिर कॉलेज के परीक्षा जैसे तुच्छ उपलब्धियों का क्या मान?
  2. जीवन की शुरुआत और अंत- दोनों शून्य में ही निहित हैं - अतः शून्यवाद का पालन करते हुए, जीवन को अनंत शून्य की और ले जाते हुए - कई बार मिड-टर्म के परीक्षा में 'शून्य' अंक मिलने से भी ये विचलित नहीं होते थे। कारण, ओशो का मानना था कि परीक्षाफल में मिला 'शून्य' तो एक यथार्थ होता था। मार्क शीट में मिला 'शून्य' - 'अस्ति' -विद्यमान है, न कि 'नास्ति' - विद्यमान नहीं है…जीवन के इस तरह के 'तदुभयम्' -अर्थात, एक साथ ही अस्ति नास्ति दोनों - वाले स्थितियों के भव-सागर को पार करने के उद्देश्य से, ओशो दारू के दो-चार पेग लगाने के बाद, स्वयं को- 'नोभयम्' - यानि अस्ति नास्ति दोनों कल्पनाओं का निषेध वाली अवस्था, में पहुंचाना ज्यादा श्रेयस्कर समझते थे। इस तरह से ओशो का शून्यवाद के विचारों को परिलक्षित करने का प्रयास, कैंपस में अन्यों के लिए भी अनुकरणीय हो चुका था, और कैंपस के बाहर के जायसवाल-दारु दुकान के अच्छे बिक्री का कारण भी। 
  3. जीवन एक किताब है, जिसे पढ़ने के लिए एकाग्रता, एकांत और एकचित्त मन की आवश्यकता होती हैं। अतः, दारु पी लेने के बाद, इस कार्य को सम्पादित करने में सहूलियत मिलती थी। फिर इस बात का ख्याल आते ही कि - 'अभी तक अपने ज़िंदगी की किताब के सिर्फ जिल्द को ही पढ़ा हूँ, अंदर के पृष्ठ को तो पलटा तक नहीं! और इधर थर्मोडायनेमिक्स पढ़ कर क्या होगा?' फलस्वरूप, ओशो जीवन के किताब को - 'अभी सांस लेने की फुर्सत नहीं है की तुम मेरी बाँहों में हो' - वाले गाने की भावना से ओत प्रोत हो कर पढ़ने में व्यस्त थे, और फुर्सत मिलने पर ही सिलेबस की किताबों को पढ़ने का विचार रखते थे ।  
संक्षेप में, समय के भूसा को खाने के बाद, ओशो के अंदर जो कुछ भी अंदरुनी कार्यक्रम होता था, उसके कारण सदैव अनेकों प्रकार के 'विचारों के लीद के ढेर' निकलते रहते थे।

ईश्वर के अवतारों को भी धरती पर प्रकट होने के पश्चात धरा के सामान्य जीवन का निर्वाह करना पड़ा था। अतः ओशो को भी परीक्षा को पास करने की आवश्यकता तो पड़ती ही थी। मर्यादा पुरुषोत्तोम ने तो शबरी के जूठे बेर को ग्रहण कर लिया था।ओशो भी, दूसरों के द्वारा बनाये आहार को ग्रहण कर लेने की भावना से - परीक्षा के दौरान, सामने वाले जैसा भी भोजन रूपी आहार को कॉपी में परोसते - उन्हें बिना छुआ-छूत अथवा ऊँच-नींच के भावना से, आँखों के द्वारा ग्रहण कर लेते थे।

"क्या ले के आये थे, क्या ले के जाओगे, खाली हाथ आये थे, खाली हाथ जाओगे।" परीक्षा-हॉल में ओशो के दिखाए निस्स्वार्थ -भावना से, उनके जीवन का दर्शन परिलक्षित होता था।

"तुभ्यं प्राप्तं, तुभ्यं समर्पितं"  - की भावना से ओत-प्रोत होकर, ओशो - ज्ञान के हंस - को स्वयं से मुक्त कर दिया करते थे। लाइब्रेरी से लाये किताब के फाड़े हुए पेज से, अपने पास अस्थायी रूप से 'बंधक' बना के रखे ज्ञान को, परीक्षा के कॉपी में तत्क्षण उतार दिया करते थे। इस प्रकार,  कॉलेज के संसाधन से "उठाये" ज्ञान के सामग्री को, कॉलेज के ही कॉपी में हस्तलिखित करके - "डिलीवर"- कर देने जैसे प्रक्रिया से, यह स्पष्ट हो जाता था कि ओशो बहुत संतोषी थे और स्वयं कुछ भी ग्रहण नहीं करते थे, न ही संगृहीत करते थे  - चाहे वह ज्ञान ही क्यों न हो। वैज्ञानिकों का भी मत है - पदार्थ और ऊर्जा न बनते हैं न समाप्त होते हैं बल्कि वे सिर्फ अपना रूप ही बदलते रहते हैं। ओशो का E =mc 2  के प्रमेय में, ज्ञान के आयाम को भी जोड़ देना, एक उपलब्धि थी!

ओशो यदाकदा तन्द्रा के भाव में, भोजन की प्राप्ति के लिए मेस में आते थे। बिना किसी शिकायत के - "जो मिल गया उसी को मुकद्दर समझ लिया" - के भाव से जो भी मिल जाता था, उसे निर्विकार भाव से खा लेते थे।  ओशो ने एक बार खाने के महत्त्व पर प्रकाश डालते हुए कहा था -
जीने के लिए नहीं खाता हूँ , न ही खाने के लिए जीता हूँ - पीने के बाद खाने के लिए खाता हूँ..... नहीं तो साला, बहुत किक मारता है। 
अब तक साधारण मनुष्यों ने खाने और जीने के क्रम को बदल कर - खाने और जीने के भावों को समझा था - परन्तु ये ओशो का माहात्म्य था, जिसने पहली बार इसमें पीने के भाव को समाहित कर, लोगों को सोचने और मनन करने हेतु एक नया दिशा दिया था।

एक बार ओशो के सामने, प्लेट में सिर्फ रोटियां और प्याज़ के दो फांक रख कर, मेस सर्वेंट अंदर से चिकेन लाने चला गया। ओशो ने अपने 'मन के भाव' से चिकेन की कल्पना कर ली और जब तक रसोई से चिकेन आता, तब तक प्लेट की सारी रोटियों खा चुके थे।  सामने आये चिकेन के प्लेट को देख कर, ओशो संत सरीखे विनम्र वाणी में, निवेदन करते हुए, कह उठे थे -
" अरे, मुझे चिकेन का दूसरा प्लेट किस खुशी में दे रहे हो यार?"

मेस का सर्वेंट गश्त खा कर गिरने ही वाला था कि सामने बैठे एक सामान्य नर-मानव ने - "कोई बात नहीं है, अब दूसरा प्लेट आ ही गया है तो इसे भी खा लो" - ऐसा कह कर स्थिति को सम्हाल लिया।

ओशो को सिर्फ नशे में डूबे असामाजिक, अंतर्मुखी या एकांतप्रेमी समझने की भूल नहीं करनी चाहिए। यदा कदा इनसे जब कभी हमारी मुलाकात होती थी, हम उनके विचारों से अवगत होते थे और वे किसी युगपुरुष के कहे अमृतवाणी से कम नहीं होता था। कोई सामयिक विषय पर चर्चा चल रही होती थी तो चुपचाप सुनते हुए अचानक से एक उक्ति देकर पूरे वार्तालाप के क्रम को बदल देने की क्षमता रखते थे। परीक्षा के तैयारी के दौरान कुछ चिंतित और दुखी छात्रों के सवाल के हल करने के क्रम में हो रहे बातों के बीच ओशो घुस गए और बोले -
यार, तुम लोग परीक्षा के लिए इतना पढाई कर के Exam Hall जाते हो! तुम लोगों को तो पता ही है कि मैं पढ़ता तो हूँ नहीं… पर परीक्षा देने के दौरान जब question को पढता हूँ तो.... पता नहीं कैसे, मेरे दिमाग में बहुत सारे theories  खुद ब खुद आ जाते हैं। मतलब, अपने दिमाग से ही सोच कर, मैं problems को solve कर लेता हूँ.…बाद में रूम में आकर देखता हूँ कि जो theory मैं exam के समय सोचा था उसको पहले से ही किसी ने अपने नाम से लिख कर रख लिया है  - साला, सब सही टाइम में पैदा होने का खेल है वरना दिमाग तो अपना भी.... 
अपने अंदर के जागे आइंस्टीन या न्यूटन के रूप को दिखा देने के बाद ओशो शांत हो गए,  जवाब में नादानों द्वारा -"दिमाग खिसक गया है क्या?" या "अरे यार दिमाग मत ख़राब कर" -जैसे क्रोधित वाक्यों के प्रयोग करने के बाद लोग नतमस्तक होकर ओशो को प्रणाम किये और मुश्किल से मुक्ति पाकर - "हाँ तो, मैं क्या पूछ रहा था ?" - जैसे प्रश्नों में हर कोई उलझ कर रह गए!

ओशो संसार में अब तक हुए मानव के विकास को धत्ता बताते हुए, समाज के सभी मानदंडों पर प्रश्न चिन्ह लगाने में महारत हासिल कर चुके थे। इन कारणों से, किसी हठयोगी की तरह उनकी वेश भूषा सामान्य से जरा कुछ - 'हट के' - जैसा हुआ करता था।

प्रभु के द्वारा प्रदत्त निर्मल काया और स्वच्छ मन- दोनों को कलुषित कर, हमारे बैच में वैसे तो कई एक ऐसे महापुरुष थे, जो एक अद्भुत किस्म के जीवन शैली का निर्वाह कर रहे थे। ओशो इस तरह के लोगो के सिरमौर थे, जिन्होंने सफलतापूर्वक डार्विन के विकासवाद के सिद्धांत को रिवर्स - गियर में डालने का प्रयोग कर दिखाया था - और जेट युग में भी वापस पाषाण युग के रहन सहन के परिपाटी को ला दिखाए थे ।

वेश भूषा के मामले में उपलब्धियां हासिल करने के जो रिकॉर्ड बनाये थे, दुर्भाग्यवश वे सभी गिनेस रिकॉर्ड बुक में दर्ज होने से वंचित रह गए थे। कुछ और विशेष उपलब्धियां -

- दुकान से जीन्स के पतलून को लाने के बाद शरीर पर लगातार - सोते, जागते, खाते, … इत्यादि के दौरान भी धारण करने के क्रम में करीब ४-५ महीने बाद - मच्छर के झुण्ड में भी खलबली मच गयी थी और उनके "आजतक" चैनल में चेतावनी दी जाने लगी थी कि - 'अमुक इंसान से दूर रहो,वर्ना बीमार पड़ जाओगे'।

जींस के पेंट का पतन, मुगल साम्राज्य के पतन के तर्ज़ पर, कई पीढ़ियों के बाद हुई होगी।

- हॉस्टल के सामने बढे हुए झाड़ियों के तरह - सिर के ऊपर बढे बाल और चेहरे को ढंके दाढ़ी में, कई बार एक दो दिन पुराने क्या खाए थे, उसका प्रमाण - मेघाच्छादित चन्द्रमा की तरह - दाढ़ी में फंसे अवशेषों के प्रकट हो जाने से मिल जाते थे।

- जल क्या होता है? - निर्जल जीवन का जीता प्रमाण - दारु, चाय और "ड्राई -क्लीनिंग" जैसे प्राकृतिक हल के द्वारा जल के बिना भी जीने का जो अनूठा उदाहरण ओशो ने दिया था - वे कालांतर में एक शोध का विषय अवश्य बनना चाहिए।

ओशो की एक और विशेष प्रतिभा थी कि किसी भी प्रश्न का प्रत्युत्तर वे यथासंभव - प्रश्न से ही देते थे, यथा -
प्रश्न - क्या टाइम हुआ है ?
उत्तर - टाइम जान के क्या करोगे?
प्रश्न - उधर चलोगे?
उत्तर - अगर मुझे जाना होगा तो क्या किसी के बोलने से जायेंगे?
प्रश्न - खा लिए?
उत्तर - तो क्या भूखे मर जाते?
प्रश्न - बाबू, बहुत दिन का पैसा बकाया है, कब दीजियेगा?
उत्तर - दे देंगे न, हम कही भाग रहे हैं, क्या? 
कैंटीन और उसके पास के पान के दुकान वाले से उधार के खाते को न चुकाने के स्थिति में, तगादा कर थक जाने के बाद, उन दुकान वालों के द्वारा बकाये को  - 'समझ लो, दान कर दिया' - जैसी प्रवृत्ति का उद्भव कराने का श्रेय, ओशो को ही जाता था। कालांतर में ओशो का कइयों ने अनुकरण किया और अंततः या तो दुकान बंद हो गया या खाता में लिख कर उधार में सामान देने का सिलसिला। इस तरह से ओशो के लाए सामाजिक क्रांति का, सामयिक एवं भविष्य में भी प्रभाव बना रहा। 

पैसे की कमी से ओशो का कॉलेज-जीवन बहुत प्रभावित हुआ करता था। अत्यधिक उधार हो जाने के कारण ओशो जिधर जाते, तगादा होता। इस कारण उन्हें कैंपस से काफी दूर के दुकानों में जाना पड़ता था - फलस्वरूप, कैंपस और आस पास के दुकानदार - ख़ास कर ढाबा, कैंटीन, पान दुकान वाले - महाप्रभु के दर्शन लाभ से वंचित होने लगे थे।

दारु के पैसे के अभाव में - आवश्यकता ही अविष्कार की जननी है - इसका प्रमाण एक बार तब मिला, जब वाकई शरीर के बाहर और गले के अंदर - दोनों का सम्पूर्ण "dry days" हफ्ते को पार कर गया था। अर्थात, कई महीने तक बिना नहाये और बिना दारु के हो गए थे।

ऐसी ही परिस्थिति में, ओशो एक बार कामेश्वर के ढाबा में बैठे थे। ढाबे के सामने के ताड़ वृक्ष का उन्होंने ऊपर से नीचे मुआयना किया और तभी एक "eureka" क्षण हुआ।  वैसे तो ओशो, किसी कुशल बल्लेबाज की तरह, कैंपस में देखने योग्य हर वस्तुओं को, जैसे ही -"साइड स्क्रीन पर हलचल होती- उनका नख से शीर तक का अवलोकन कर लिया करते थे। परन्तु उनके सामने बेगानी सूरत लिए जो ताड़ वृक्षों का एक झुण्ड खड़ा था, उन पर उन्होंने कभी उसी अंदाज़ से ऊपर से नीचे तक देखने के जैसा कोई कार्यक्रम नहीं किया था। आज अनायास ही उन्होंने जब एक ताड़ के वृक्ष को, नीचे से ऊपर तक देखा, तो उनके साथ बैठे एक और संत सरीखे साथी के साथ हुए वार्तालाप का क्रम कुछ यूँ था -
- अबे! वो ऊपर क्या लटका हुआ है?
- अरे यार, ये तो एक मिट्टी का बना हुआ हंडी है.…
- अरे, यार ये तो सभी ताड़ के पेड़ों पर लटका है! कुछ तो बात है!
- अबे कामेश्वर, इधर आ तो बे, बता तो ये क्या है?
- बाबू, ई तो ताड़ी निकालने के लिए लगा है.… (होंठों में खैनी दबाये, बड़ी मुश्किल से बोल पाया था )
- अर्र रे स्स्साला, दारू पीये तो कई दिन हो गए हैं बे.…
-"  " (निशब्द आँखों से ओशो और संतो की क्षण भर में गयी समर्थन भरी बातें)
-"  "
- तो फिर सोच क्या रहा है, बे?
सरपट ताड़ के वृक्ष का आरोहण के द्वारा प्राप्त अमृतपान के इस स्वर्णिम क्षण के बाद से, कैंपस में - प्रकृति के द्वारा प्रदत्त सबसे सरल रूप से उपलब्ध "ताड़ी" के सेवन की प्रथा - ओशो और बाकी संतों के मध्य शुरू हो गया था।

ओशो सरीखे संतों के संख्या में, पहले से अंतिम साल तक क्रमवत बढ़ोत्तरी होती गयी थी। किसी नदी के उद्गम स्त्रोत से आगे बढ़ने पर, कई और बड़ी नदियों में विलन होने के तर्ज़ पर, कैंपस में पहले से ही विराजमान अनेकानेक विकट और उच्च कोटि के संतों के आश्रम और उनके साथ सत्संग का सुअवसर मिला था - जिसके बारे में कभी और चर्चा करूँगा… अभी के लिए बस इतना सा सुविचार - "ओशो सिर्फ एक भावना है, इति!"
The roses bloom so beautifully because they are not trying to become lotuses. All effort is futile. You have to be just yourself. ~ Osho- the Original