अब तक आपने हमारे Mechanical '८६ के आधे लोगो के बारे में यहाँ पढ़ा था और अगर आप इसे पढ़ रहे हैं तो जाहिर है बाकी के बारे में भी जान ने को काफी उत्सुक होंगे, तो बिना किसी और रूकावट के इधर हाज़िर है - दूसरा भाग -
३६. प्रदीप कुमार चौधरी - दीपू , अब इस दुनिया में नहीं रहे! यह अत्यधिक दिल को दुखाने वाला अनुभव है। आज भी मैं जब उसे याद करा रहा हूँ तो ऐसा लगता है कि वो अब भी यही कही अगल बगल है! यकीन ही नहीं होता की अब वो कभी नहीं मिलेगा! दीपू बहुत ही संवेदनशील और कम बोलने वाले लोगो में से था। दीपू अनजाने में भी किसी का अहित नहीं कर सकता था! काम बोलता था मगर जब भी कुछ बोलता था - उसमे हंसी के इतने पुट होते थे कि आज तक उसकी बातों पर हंसी आती है! हमेशा मुस्कराता से, पर कही खोया और अकेला सा रहता था। कॉलेज के दिनों में पढाई में ज़रा पिछड़ जाने के बाद इसने अदम्य साहस का परिचय दिया और इतनी पढाई की कि बाद में यह प्रोफेसर ही बन गया था!३७. प्रदीप कुमार तोदी - कॉलेज के दिनों में ही पता था कि तोदी कॉलेज से निकलते ही CEO बनेगा! ऐसा इसलिए कि वह कॉलेज सिर्फ पढ़ने के लिए ही आया था - पढाई के बाद डिग्री को बिकाऊ बनाने नहीं! बहुत ही समृद्ध परिवार से आता था और दिमाग का इतना तेज़ था की चंद घंटों में ही इतनी पढ़ाई कर लेता थे कि बाकियों को हफ्ते और महीने लग जाया करते थे! शतरंज और ब्रिज जैसे दिमागी खेलों में खुद को काफी व्यस्त रखता था। इन सब क्रिया कलापों के लिए समय को बचे, इस लिए एक मोटर सायकल भी रखा था। बाद में जब मैं एक किताब 'Rich Dad Poor Dad' by Robert Kiyosaki पढ़ा तो समझ में आया की - एक ही क्लास में कुछ लोग employee तो कुछ उनके employer बनने आते हैं!
३८. प्रकाश कुमार तिवारी - 'बनारसी बाबू' - Mechanical '86 के अल्पसंख्यक वर्ग में आते थे, जो हॉस्टल में - बहुत शालीन, साफ़ सुथरे और सलीके से रहते थे! क्रिकेट के भयानक शौक़ीन - ट्रांज़िस्टर रेडियो में कमेंट्री को बहुत चाव से सुनते थे, और खेल के बारीकी पर होने वाले चर्चाओं में बहुत जोश दिखाते थे। साथ ही, ये वैसे लिमिटेड कंपनी के सदस्य हैं जो आज भी वैसे ही दीखते हैं जैसे ३० साल पहले कॉलेज में!
३९. प्रतीक घोष - बगल के ही शहर - धनबाद से पढ़ने आया प्रतीक, बहुत ही शांत और हमेशा अच्छे कपड़ों में पाया जाता था। आम तौर पर लोग लुंगी, पायजामा, हाफ पेंट - यहाँ तक कि एक बार किसी को मैं तौलिया लपेट कर भी मेस में आते देखा था! मुझे याद नहीं कि मैंने इसे मेस या ढाबे में कभी यूँ ही किसी भी अजीब से कपडे पहने देखा हो। फाइनल ईयर में आकर जब हमें यह पता चला कि इसकी शादी हमारे कॉलेज के टॉपर से होने वाली है तो ऐसा लगा जैसे कि बिजली का कोई करेंट लगा हो! इतना बड़ा - 'छुपा रुस्तम' - किसी जो कानों कान खबर तक नहीं लगी ! बहरहाल इस 'merger' के बाद बाजार में हल्ला यह था कि अब दोनों के शेयर आराम से 'D' - यानी Distinction पर listed हो सकता था! जब में १९९७ में अपने PDC निकलवाने कैंपस गया था, तो पता चला कि देबजानी प्रोफ़ेसर बन चुकी थी और प्रोफसर कॉलोनी में ही रहती थी! अपने बैच के साथ प्रोफेसर क्वार्टर में मिलने का अनुभव बड़ा अनूठा सा था!
४०. प्रेम प्रकाश - 'प्रेम रतन धन पायो'- की तरह बहुत साफ़ सुथरी और पढाई के मूल्यों पर आश्रित ४ साल !
४१. राजीव कुमार सिंह - 'लंगट' पास के ही शहर - कुमारधुबी - से आते थे। बहुत हंसमुख और शांत स्वाभाव के मृदुभाषी और पढाई में काफी underrated टॉपर के गुण वाले Mech '86 के छात्र। इनके सवालों से जूझने के लगन को देख कर - लंगट - होने का प्रमाण मिलता था। कई बार ये TOM के किसी problem solve करने में - पुलिस मुठभेड़ की तरह - 'जब तक सफाया न हो जाए' - खाना पीना छोड़ कर लगे रहते थे।
४३. रास बिहार मंडल- मुस्कराता सा चेहरा- जो दिन भर के क्लास और नोट्स का revision और problems solve कर लेने के बाद थके पर आत्म संतोष लिए भाव के साथ - एक काफी बड़े साइज का रेडियो ट्रांज़िस्टर में गाना सुनते हुए मेस की और जाते या आते - ऐसे कल्पना मात्र से आज के नए तकनीक - 'होलोग्राम' - की तरह, रास बिहारी सामने दिखने लगते हैं!
४४. ऋतुराज सिन्हा - पढाई से ज्यादा क्रिकेट के प्रति समर्पित, हमारे कॉलेज टीम के अच्छे बल्लेबाज। हॉस्टल में नहीं रहने के बावजूद ऋतु का सबों के साथ मिलना जुलना और हंसी मज़ाक करते रहने से, कभी एहसास ही नहीं हुआ कि वह कैंपस के बाहर अपने घर पर रहता था।
४५. समीर - First Year से ही कुछ नए तरह के ideas को लेकर कुछ मस्ती करने वाले में से एक - हर समय कैंपस में घूमते रहने के कारण बिलकुल चुस्त दीखता था - सिगरेट पिलाने में काफी दिलदार स्वाभाव का था और पास रहने से कभी मन नहीं करता था। कॉलेज के दिनों में जब कभी कामेश्वर ढाबा पर चाय पीने गया था - वह के बेंच पर अरविन्द के साथ समीर बैठा चाय के साथ सिगरेट के काश लगाते दिख जाता था!
४६. संजय कुमार झा - एक बहुत सौभाग्यशाली व्यक्ति जिसे इतने सारे प्यारे दोस्त मिले और उनके बारे में लिखने का मौका मिल रहा है! अब अपने बारे में इस से ज्यादा या कम लिखते नहीं बन पा रहा है! आपका आभारी - संजय
Update:
संजय सिन्हा उर्फ़ छोटे नवाब कल मेरे बारे में कुछ अच्छी बातें लिख दी जो मैं साभार यहाँ डाल दे रहा हूँ :
संजय झा - एक संक्षिप्त परिचय४७. संजय कुमार - इनके नाम के साथ 'from खुर्दा' या 'ढोर' जोड़ देने से - संजय बोलने की आवश्यकता नहीं पड़ती थी। वैसे भी हमारे ब्रांच में संजय सब्जी मंडी के आलूओ की तरह थी और हर दुसरे दुकान में एक संजय मिल जाता था- इस साथ लगे तस्वीर पर, गौर फरमाये - इस में हरेक संजय हैं! बहरहाल संजय -ढोर के आगे ढोर लगने का कारण बहुत स्वाभाविक सा था - एक बार हॉस्टल के पास एक सांप को देख कर जब सभी घबरा गए और दर कर सांप से यथा संभव दूरी बनाये - बच-बच कर निकल रहे थे तो किसी ने उस सांप को किसी पेड़ के टूटे डाल से उलट पुलट कर छेड़ छाड़ करना शुरू किया और शायद मार दिया या अधमरा सा कर दिया। स्थिति को काबू में आते देख संजय ने अपने को ढाढ़स बंधाते और लोगो के सामने अपने जौहरता का परिचय देते गर्व से कह दिया - "अरे ये तो मामूली ढोरिया सांप है!" जब तक उसकी बात पूरी होती किसी ने सांप को उसके तरफ फेंक दिया- जिस के बाद उन्होंने जितने तेज़ी से भागने का नमूना पेश किया, कालांतर में उनके नाम के आगे - 'ढोर' के जुड़ने को, वह सार्थक करता है। मैं इस घटना का प्रत्यक्षदर्शी नहीं था इसलिए प्रकाश तिवारी - जो वहां मौजूद थे - इस पर ज्यादा प्रकाश डाल सकते हैं!
मैकेनिकल के हिस्से ढेर सारे संजय आये थे। इनमें एक नाम संजय झा भी था ।बिलकुल नारियल सा व्यक्तित्व - बाहर से कठोर और अंदर से नरम । चार बरस इसी उहापोह में निकाल दिए के वह 'केला' थे या 'विशुद्ध आशिक मिज़ाज़ '। वस्तुतः वह हमारे बीच पूर्णतया एक 'गीला प्रसाद ' थे यानी के बहुत ही भावुक और संवेदनशील इन्सान। जिसकी बानगी आप सब उनके ब्लॉग में देखा करते हैं । इंजीनियर तो बस बन गए पर असल में एक कलाकार हैं झाजी । हॉस्टल के दिनों में भी बीच बीच में इनके अंदर का कलाकार यदा कदा बाहर आ जाता था । बहुत कम लोगों को पता होगा की अपने मित्रों की वजह से कान्हा तो नहीं बन पाये पर एकांत में मुरली जरूर बजाया करते थे । अपने मित्रों के चयन का सबसे ज्यादा नुकसान इन्होने ही उठाया है । "लोगवा का कही " का डर इन्हें कन्यायों के सान्निध्य से वंचित रखा । कुल मिला कर उन्हें एक चंचल, मस्त और बहुमुखी प्रतिभा के धनी के रूप में हमलोग जानते हैं ।
४८. संजय शर्मा - कैम्पस के बाहर रहने के बावजूद शर्माजी हॉस्टल के ही लगते थे - इस से साबित होता है कि वे हम सब से कितना प्यार करते थे। शर्माजी के नाम लेते ही मुकेश के गाने का एक लाइन - 'वो कौन सी महफ़िल है जहाँ तू नहीं मौजूद', याद आ जाता है। बांये हाथ से अपने साइकल के हैंडल को पकडे और उसे लुढकाते हुए कैम्पस में इस कोने से उस कोने तक उनको विचरण करते देख कर ऐसा लगता था मानो साइकल इनके शरीर का ही एक अंग था। वर्माजी और शर्माजी की जोड़ी बन्दूक और गोली की तरह था - एक दुसरे के बिना अधूरा! इनके आपस के अनेको किस्से हैं पर सबसे मज़ेदार इन दोनों के जुबानी एक दुसरे के बारे में बताई कहानियां हैं जिसमे तल्खियों के साथ प्यार भी छुपा होता है!
४९. संजय सिन्हा - हमारे बैच में दो संजय सिन्हा हैं - एक हॉस्टल में रहता था और दूसरा भी - पर उसका प्रोफ़ेसर कॉलोनी में घर भी था! दोनों पढ़ने में बहुत तेज़ थे और दोनों के अंदर लोगो को सहायता करने की भावना कूट कूट कर भरी थी! मेरे लिए दोनों का योगदान बहुत महत्वपूर्ण था - एक का कॉलेज के पढाई में पास कराने का तो दुसरे का - उन दोनों होने वाले companies के job related exam में अंग्रेज़ी और analytical को solve करके लोगों तक पहुंचाने में! बहरहाल, चूँकि इनका नाम संजय था और एक साथ इतने संजय के होने के कारण, कोई न कोई अलग नाम होना ही था- अतः किसी ने इनको 'छोटे नवाब' से बुलाना शुरू कर दिया। चूँकि इस नाम से बहुत इज़्ज़त की बदबू आती थी और साथ ही हमारे अच्छे संस्कारों का भी- इस लिए जल्द ही इस नाम का उपयोग बंद हो गया और 'SAD' नाम की उत्पत्ति हो गयी कालांतर में यही नाम से वे जाने जाते हैं। इनकी पुराने हिंदी फ़िल्मी गानो का ज्ञान और साहित्य में रुचि और उस कारण से बीच बीच में उसका overflow - आपको अचंभित कर सकता है! मेरे हॉस्टल के दिनों में बहुत ज्यादा समय इनके साथ गुज़रा है और उसका सबसे बड़ा फायदा यह हुआ कि मुझे अंततः BIT से इन्जीनीयरिंग की डिग्री मिल गयी। इन पर पूरे mechanical ब्रांच के कई और लोग आश्रित थे - बिना toll वाले पुल की तरह लोग इनके कमरे में आ जाते और कतार लगाये - हलवाई के कढ़ाई से गरमागरम निकले समोसे की तरह - इनके द्वारा बनाये, अगले दिन exam में आने वाले प्रश्नो के solution की बिक्री, हाथों हाथ हो जाती थी!
५०. संजय सिन्हा - ऊपर बताये 'संजय rule' के मुताबिक इनके भी एक अलग नाम को खंघालने के प्रक्रिया शुरू हुयी और अंततः इनके बचपन से घर पर बुलाये जाने वाले नाम पर ही लोग शांत हो गए और लोग अपने creativity को विश्राम दे दिए इस कारण इन्हे कोई विशेष उपाधि नहीं दी गई। जैसा पहले वाले संजय सिन्हा के जिक्र में बताया गया है - दोनों का Mechanical '८६ को आज जहाँ सभी हैं, उसमे - भारत के निर्माण में राजेंद्र प्रसाद, नेहरू, पटेल इत्यादि जैसा ही योगदान है! Mech '86 के इतिहास के पन्नों को जब भी पलटा जायेगा - अनेकों के जीवन के पृष्ठों पर इन दोनों का हस्ताक्षर जरूर मिलेगा - पर इतिहास अनेको के लिए बहुत बोरिंग विषय है इसलिए कही किसी कोने में धूल खाती पडी सिसकियाँ ले रही हैं और लोग अपने जीवन के महासंग्राम में वर्तमान के तंदरुस्ती में लगे हुए हैं!
५१. सत्येन्द्र यादव - मुझे इनके बारे में अब बहुत ज्यादा याद नहीं रहा!
५२. शैलेश कुमार सिंह - शैलेश -जी के नाम से ज्यादा मशहूर ! इनके बारे में लिखते डर लग रहा है क्योंकि - 'कलम बड़ा की तलवार' - इस का सबसे बड़ा अपवाद अगर कहीं मिलेगा तो वो यही है! क्षत्रिय धर्म के हिसाब से तलवार के पूजक तो थे ही पर इनकी कलम का धार इतना प्रखर था कि मुझे आज भी ताज़्ज़ुब होता है कि - जीवकोपार्जन के लिए इन्होने साहित्य को क्यों नहीं चुना! पूरे कॉलेज के दिनों में इन्होने कुशलता पूर्वक बहुत ही अच्छी भाषा और व्यवहार का परिचय दिया - और एक आदर्श छात्र का ठप्पा लगाने योग्य! सर्जना के प्रमुख संपादक, गांधी रचनात्मक के पुस्तकालय से लगभग सभी किताबों को दीमक की तरह चाट चुकने के बाद, अपने बैच के सभी लोगो के लिखे व्यक्तिगत रचनाओं को भी इन्होने पढ़ा और हर किसी के अंदर साहित्यकार होने का कीड़ा जगाया - उसी प्रयास का नतीजा है जिसके कारण आप इस ब्लॉग को पढ़ पा रहे है! इनका साहित्य से प्यार का प्रमाण यह है कि अपने इर्द गिर्द जिनमे भी लिखने की 'जरा' सा भी प्रतिभा थी- उनको ये लिखने के लिए प्रेरित करते थे और कई बेहतरीन लिखने वालों को इन्होने उभार कर उनकी रचनों को सर्जना में प्रविष्टि दिलवाई। शैलेशजी minus 'जी' = शैलेश , (हाल में मैं उनसे अनुमति ली कि अब सम्बोधन में 'जी' को विश्राम दे दिया जाये) - quiz गले तक डूबे थे। उन दिनों के Sunday के The Telegraph के साथ आने वाले मैगज़ीन में Derek O'Brien का एक क्विज का पेज होता था, जिसमे पाठको के द्वारा पूछे प्रश्नो में से सिरमौर 11th Question के रूप में कई बार इनका नाम देखा जाता था!
५३. शंकर झा - इन्हें हम 'दुखिया' के नाम से पुकारा करते थे। इसका मूल कारण यह था कि चुटकुला सुनते समय भी इनके चेहरे के भाव से ऐसा लगता था जैसे मदर इंडिया के कोई कारुणिक दृश्य को देख रहे हों! बहुत ही खुशनुमा और कॉलेज के दिनों हर खस्ना किसी भी मौके में साथ देने वाला इंसान! मेरे पूरे कैंपस में बिताये समय में 'दुखिया' के प्यार का शहद काफी घुला हुआ है!
५४. शंकर शरण - इन पर एक पूरी किताब लिखी जा सकती है! गांधी जी के तरह इनमे भी सहनशीलता और उसके साथ सहिष्णुता कूट कूट कर भरा हुआ था। इस Mech '86 के 'पार्टी' ने हमें बताया कि बोलचाल की भाषा में पार्टी शब्द का प्रयोग singular noun के तौर पर ज्यादा उपयुक्त होता है! इनके अनेकों किस्सों में इनके कैंपस में निभाए "लक्ष्मण" की भूमिका भी काफी रोचक था, साथ ही हर समय कॉलेज में होने वाले किसी न किसी प्रकार के कार्यक्रम के आयोजन में अपने को व्यस्त रखने के साथ- साथ मेस को चलाने का जिम्मा भी लिए हुए थे - इन सबों बीच डिग्री किस तरीके से ली -इनके दुर्गा भगवान के जैसे बने अदृश्य अनेकों हाथों का परिचय मिलता था और सर्वथा यह एक शोध का विषय है!
५५. शरत कुमार - कॉलेज के दिनों में First Year से लेकर अंतिम साल … या बल्कि यूँ कहें कि अभी तक, जिसकी बात करने के अंदाज़ में राँची की झलक दीखता रहता आया है उस शख्श के - 'आदि सत्य', की तरह अपने भाषा को अडिग रखने के प्रयत्न को अनेकों नमन! फर्स्ट ईयर हॉस्टल में इनके सर के सतपुड़ा में जितने घने जंगल थे आज भी उनमें कोई कमी नहीं आयी हैं, इस से ये साबित होता है कि खोपड़ी के अंदर जो कुछ भी BIT के ज्ञान का खाद डाला गया - उसकी उर्वरा शक्ति अच्छी है।
५६. शशि भूषण पाठक - BIT के कैंपस में चारों साल तक कुम्भ के मेले में खो जाने के बाद भटके भटके से और सदैव चिंतित से दिखने वाले 'पाठक बाबा' - शोले वाले रामगढ़ के निवासी लगते थे जो exam और viva के गब्बर के आतंक से ग्रसित लगते थे। इनके अनेकों नाम थे - जिसमे 'लोल' ज्यादा प्रसिद्ध हो गया था - इसका मूल कारण इनका अच्छा व्यवहार था। बहुत प्यार और श्रद्धा भाव से लोगो को मना करने का नतीज़ा यह था कि लोग इनको उसी नाम से और ज्यादा पुकारने लगे पर इन सब का कभी बुरा नहीं मान कर, दोस्ती को ज्यादा ऊंची जगह देते हुए अपने बडप्पन का परिचय दिया। इनके जीवन का सारांश - "हम चले नेक रस्ते पे हमसे भूलकर भी कोई भूल हो ना"
५७. शुभेंदु बनर्जी - कोलकाता के प्रसिद्द La Martiniere स्कूल से पढ़ कर आये - बहुत ही सुसंस्कृत और sophisticated - ऐसा लगता था जैसे कोई देसी बटेरों के बीच कोई विदेशी migrant bird आ गया हो! पढाई,खेल-कूद और जितनी भी तरह की कॉलेज के "अच्छे" क्रियाकलाप जैसे - rotract का eye camp , blood donation camp इत्यादि में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेते थे।परन्तु हर किसी के साथ बहुत प्यार से और सम्मन देते हुए मिलते थे पर स्वयं को अपने बनाये दायरे से खुद को कभी बाहर नहीं जाने देते थे।
५८. सूरज कुमार - बहुत शांत और सीमित लोगों के बीच रहने वाले - दिल्ली के लोकसभा में किसी क्षेत्रीय दल के सांसद की तरह, अपने BIT के ४ साल के कार्यकाल को समपन्न किया।
५९. सुजीत कुमार मिश्रा - बहुत हंसमुख, मिलनसार और सबों के बीच में रहकर हंसी मजाक करने वालों में से एक, पढ़ाई को बहुत ज्यादा तज़रीह नहीं देने वालों में से एक। खेल कूद- ख़ास कर फुटबॉल में गहरी दिलचस्पी रखते थे। एक बार इनकी बहन की शादी में हम सभी इनके शहर - मैथन गए थे जहां पर बहुत सारे दोस्तों के साथ हम गए थे और कॉलेज के दिनों को याद करने पर उस मस्ती की याद जरूर आती है।
६०. सुंदरम महादेवन - समय के पाबन्द, हर सुबह नियम से अपने साइकल पर सवार हॉस्टल में पहुँच जाता था और उतनी ही पाबंदी घर की वापसी करते समय भी दिखाते थे। 'महा' - के नाम से भी जाने जाते थे पर ज्यादातर इनको 'खट्टा' से सम्बोधित किया जाता था। इनकी अनेकों विशेषताओं में से एक यह थी कि इनको समूचा रेलवे टाइम टेबल याद था और इस कारण, हमारे लिए ये उन दिनों के 'गूगल' थे!
६१. सुनील कुमार पाठक - साफ़ स्वच्छ छवि वाले नेताओं की तरह पाठक जी, बहुत शांत चित्त व्यक्तित्व के थे , जो 'मन-क्रम-वचन ध्यान में रख कर पढ़ाई जैसे सामाजिक कुरीति का जड़ से उन्मूलन के प्रयास में लगे हुए दीखते थे। आवश्यकतानुसार कुछ विशेष कार्यों को सम्पादित करने के उद्देश्य से ही इनको अपने कमरे से निकलते देखा जाता था। कुल मिला के शिक्षकों के लिए आरुणि, छात्रों के लिए आदर्श विद्यार्थी के परिभाषा में सौ में सौ लाने वाले में से एक थे।
६२. सुरेन्द्र प्रसाद मंडल - बहुत सौम्य स्वाभाव के पढ़ाई के प्रति सजग रहने वालों में से एक - जिन्होंने सफलता को प्राप्त कर लिया।
६३. तपेंद्र कुमार - बहुत प्रसन्नचित्त और पढाई को एक side business के रूप में लेने वाले "बुढ़बा" के नाम से प्रसिद्द थे। इनके सर के ऊपर उन्ही दिनों से खिचड़ी बने कच्चे पके बाल और ऊपर से अक्सर बढ़ी हुई दाढ़ी इनके परिपक्व रूप को बहुत जँचता था।
६४. उमेश प्रसाद - Periodic table के निष्क्रिय कॉलम के एक element की तरह कभी किसी कॉलेज के reaction में कम ही भाग लेते थे।
६५. उमेश कुमार - साइंटिस्ट के नाम से प्रसिद्द
६६. विजय कुमार - उन दिनों के हल्दिया के wikipedia
६७. विनय कुमार रस्तोगी -'टोगी' के नाम से प्रसिद्द -
६८. वीरेश नंदन सहाय - कॉलेज क्रिकेट टीम का एक छोर बिन्नी और दूसरा वीरेश के जिम्मे होता था। सर पर एक रुमाल के पट्टी को बांधे, चशमा लगाये तेज़ी से जब बॉलिंग करता था तो इसके आक्रामक रूप ओ देख कर लोग ऐसे हो विकेट दे देते होंगे!
६९. जीतें हांसदा
७०. जेम्स लिन्डोघ
७१. सेवाधन मरांडी
Wow Sanjay! This is great ...All of us are amazed by your memory. How do you remember such details about all of us? Your blogs are always a pleasure to read! -Hema
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